संसार मिथ्या, पर कर्म न छोड़ें
- आचार्यश्री उमेशमुनिजी 'अणु'
संसार मिथ्या है। इस बात को दुनिया में आए भूकम्पों, सुनामी और अन्य आपदाओं ने साबित कर दिया है। मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए। कर्म का फल जरूर मिलता है। जो जीव को जानता है, वही सही अर्थों में संयम को जानता है। जानना भी बड़ा कठिन है। व्यक्ति जानने की भावना तो रखता है और यह भी कहता है कि मुझसे कोई बात छुपी नहीं है मान लों वही सर्वज्ञ है। फिर भी वह जानना चाहता है। मन की जिज्ञासा को शांत करने के लिए प्रयत्न भी करता है। प्रतिदिन नई जानकारियां प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अखबार पढ़ते हैं, टीवी पर जानकारी प्राप्त करते हैं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति कुछ न कुछ जानना चाहता है, लेकिन अखबार पढ़ने के बाद कहते हैं कि कुछ भी नहीं है। अर्थात नहीं जानने की बातें जानने के लिए व्यक्ति प्रयत्न करते हैं। जीवों के दो भेद है- शुद्ध और अशुद्ध। शुद्ध जीव की सही पहचान अशरीरी होना है। जो शरीरी है, वह अशुद्ध है। जो कर्म से रहित हो वह शुद्ध है। आप कर्म को भले ही न जानें, लेकिन कर्म फल को तो जानते हैं। जिस तरह बर्तन के भीतर के गुण को भले ही न जानें, लेकिन उसके ऊपर जमी गंदगी को तो जानते हैं, उसे साफ करने का प्रयत्न करते हैं। वैसे ही आत्मा की गंदगी को जानकर उसे साफ करने का प्रयत्न करना चाहिए।
अशुद्ध से शुद्ध और अस्वस्थ से स्वस्थ जीव बनने के भाव होना चाहिए। लोग लक्ष्मी के लिए बहुत प्रयत्न करते हैं, लेकिन बिना पुण्य के लक्ष्मी नहीं मिलती। जिसे लक्ष्मी मिल जाए और वह उसका सही उपयोग कर ले तो ठीक, वरना लक्ष्मी किसी काम की नहीं रहती। उदारता हृदय में हो तो ही प्राप्त हुई लक्ष्मी का सदुपयोग होता है।गुरु और वृद्धजनों की सेवा में ही सार है। इस सेवा से ही सतत सानिध्य मिलता है। इसकी निराली ही बात रहती है। गुरु के समीप रहने वाला सतत उनकी चर्या से जुड़ा होता है। जीवन में जब भी गुरु की सेवा का अवसर प्राप्त हो तो उसे खोना नहीं चाहिए। इससे ही जीवन सार्थक होता है। जीवा-जीव के स्वरूपों को जानने से ही संयम के स्वरूप को जाना जा सकता है। पुण्य के फल में व्यक्ति इतना बंध जाता है कि उसे कुछ समझ ही नहीं आता है। संगति का लाभ लेने से ही संगति बनती है।