अच्छाई और बुराई का खेल
जीवन के दो विरोधाभासी मुहावरें
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डॉ. महेश परिमल जैसे ही हमारे जीवन में बुराईरूपी अंधेरे का आगमन होता है, विवेकरूपी दीया प्रस्थान कर जाता है। बुराई अपना खेल खेलती है, मानव को दानव तक बना देती है। बुराई में एक विशेषता होती है, जब वह कमजोर होने लगती है, तब वह अधिक आक्रामक हो जाती है। यही समय है, जब थोड़े धैर्य के साथ उसका मुकाबला किया जाए इस दौरान हमें उस सुहानी सुबह के बारे में सोचना चाहिए, जो उस अंधेरी बुराई के ठीक पीछे उजाले के रूप में होती है। आज मेरे सामने दो मुहावरे हैं। एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है और एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। दोनों ही मुहावरों में विरोधाभास है। जब भी एक उदाहरण देता है, दूसरा तपाक से दहला मारते हुए दूसरा मुहावरा उछला देता है। लोग हँसकर रह जाते हैं। आइए इन मुहावरों का विश्लेषण करें दोनों में मुख्य अंतर है, अच्छाई और बुराई का। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि उसे बुराई जल्द आकर्षित और प्रभावित करती हैं। दूसरी ओर अच्छाई में चकाचौंध करने वाली कोई चीज नहीं होती, यह सदैव निर्लिप्त होती है। जब तक कमरे में उजाला है, तब तक हमें अंधेरे का भान ही नहीं होता। जैसे ही लाइट गई, अंधेरा पसरा कि हम फडफड़ाने लगते हैं। तब हम उजाले का महत्व समझने लगते हैं। विदेशों से हमने कई नकलें की हैं। फैशन, शिक्षा, रहन-सहन आदि की नकल करने में हम बहुत आगे हैं। पर समय की पाबंदी, निष्ठा, अनुशासन जैसे गुणों की ओर देखना भी मुनासिब नहीं समझा। विदेशों में जब एक मिनट के लिए किसी की ट्रेन छूट गई या फिर थोड़ी सी देर के लिए काफी नुकसान उठाना पड़ा हो, वही जान सकता है कि समय का कितना महत्व है।
हम अपने देश में समय को बेकार जाते देखते भर रहते हैं। एक सड़ी हुई मछली में संक्रामक कीटाणु होते हैं, जो तेजी से फैलते हैं। उनकी संख्या प्रतिक्षण बढ़ती है, इसलिए सारा तालाब कुछ ही देर में गंदा हो जाता है। दूसरी ओर चने का इकट्ठा होना, भाड़ तक पहुँचने के लिए उनका रूप सख्त है। गर्मी पाते ही चने का रूप बदल जाता है। वह कोमल हो जाता है।भाड़ की गर्मी से चने ने अपना रूप बदल दिया। भाड़ फोड़ना एक क्रांतिकारी विचार है। क्रांति ठोस इरादों से आती है। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना क्रांति का आगाज है। भाड़ चने पर कोई अत्याचार नहीं करता, बल्कि अपनी तपिश से उसे कोमल और स्वादिष्ट बनाता है। चना भाड़ फोड़ने की सोच भी नहीं सकता, क्योंकि भाड़ के सामने जाते ही उसका रूप बदल जाता है। बिल्कुल उस हैवान की तरह जो गुस्से से देवी माँ के सामने आता है और अपना क्रोध भूलकर उसके चरणों में लोट जाता है। माँ का प्यार उस हैवान को पिघला देता है। मछली तालाब को हमेशा के लिए गंदा नहीं कर सकती। बुराई केवल कुछ देर के लिए ही तालाब पर हावी होती है। कुछ समय बाद तालाब की अच्छाई सक्रिय हो जाती है। धीरे-धीरे बुराई का नाश होता है और तालाब स्वच्छ हो जाता है। बुराई के ऐसे ही रंग हमें अपने जीवन में देखने को मिलते हैं। बुराई हमेशा शक्तिशाली नहीं रह पाती, उसके कमजोर होते ही अच्छाई का आगमन है और उसी दानव को महात्मा तक बना देती है। मेरा मानना है कि अच्छाई को कई दानव भी सच्चे ह्रदय से स्वीकार करे, तो उसे महात्मा बनने में देर नहीं लगेगी। आप क्या सोचते हैं?