रविवार, 22 दिसंबर 2024
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महाभारत का यह एकमात्र सबसे बड़ा सबक याद रखेंगे तो कभी मात नहीं खाएंगे

महाभारत का यह एकमात्र सबसे बड़ा सबक याद रखेंगे तो कभी मात नहीं खाएंगे | mahabharata war
महाभारत में जीवन, धर्म, राजनीति, समाज, देश, ज्ञान, विज्ञान आदि सभी विषयों से जुड़ा पाठ है। महाभारत एक ऐसा पाठ है, जो हमें जीवन जीने का श्रेष्ठ मार्ग बताता है। महाभारत की शिक्षा हर काल में प्रासंगिक रही है। महाभरत से हमें हर तरह का सबक मिलता, लेकिन यहां एक ऐसे सबक की चर्चा करना चाहेंगे जो आज के युग के लोगों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। हालांकि कौन इस पर कितना अमल करता है यह सोचने वाली बात है। वह सबक है जैसी संगत वैसी पंगत।
 
 
मालवा में एक कहावत है कि जैसी संगत वैसी पंगत और जैसी पंगत वैसा जीवन। इस सबक के अंतर्गत पहले तो अच्छी संगत में रहना सीखना होगा, दूसरा आपको आपके दोस्त और शत्रु को पहचानना होगा। अच्छे दोस्तों की क्रद करना सीखना होगा और तीसरा हमेशा सत्य के साथ रहने वाला ही जीतता है।
 
 
*आप लाख अच्छे हैं लेकिन यदि आपकी संगत बुरी है तो आप बर्बाद हो जाएंगे। लेकिन यदि आप लाख बुरे हैं और आपकी संगत अच्छे लोगों से है और आप उनकी सुनते भी हैं तो निश्‍चित ही आप आबाद हो जाएंगे। महाभारत में दुर्योधन उतना बुरा नहीं था जितना कि उसको बुरे मार्ग पर ले जाने के लिए मामा शकुनि दोषी थे। जीवन में नकारात्मक लोगों की संगति में रहने से आपके मन और मस्तिष्क पर नकारात्मक विचारों का ही प्रभाव बलवान रहेगा। ऐसे में सकारात्मक या अच्छे भविष्य की कामना व्यर्थ है।
 
 
*संगत में एक बात और महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति को दोस्त और दुश्मनों की पहचान करना सीखना चाहिए। महाभारत में कौन किसका दोस्त और कौन किसका दुश्मन था, यह कहना बहुत ज्यादा मुश्किल तो नहीं लेकिन ऐसे कई मित्र थे जिन्होंने अपनी ही सेना के साथ विश्वासघात किया। ऐसे भी कई लोग थे, जो ऐनवक्त पर पाला बदलकर कौरवों या पांडवों के साथ चले गए। शल्य और युयुत्सु इसके उदाहरण हैं। कहते हैं कि आपका हितेशा हमेशा कड़वा बोलता है लेकिन चापलूस हमेशा अपना ही हित साधने की सोचता रहता है।
 
 
*इसीलिए कहते हैं कि कई बार दोस्त के भेष में दुश्मन हमारे साथ आ जाते हैं और हमसे कई तरह के राज लेते रहते हैं। कुछ ऐसे भी दोस्त होते हैं, जो दोनों तरफ होते हैं। ऐसे दोस्तों पर भी कतई भरोसा नहीं किया जा सकता इसलिए किसी पर भी आंख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए। अब आप ही सोचिए कि कौरवों का साथ दे रहे भीष्म, द्रोण और विदुर ने अंतत: युद्ध में पांडवों का ही साथ दिया। ये लोग लड़ाई तो कौरवों की तरफ से लड़ रहे थे लेकिन प्रशंसा पांडवों की करते थे और युद्ध जीतने के उपाय भी पांडवों को ही बताते थे।
 
 
कौरवों की सेना पांडवों की सेना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। एक से एक योद्धा और ज्ञानीजन कौरवों का साथ दे रहे थे। पांडवों की सेना में ऐसे वीर योद्धा नहीं थे। जब श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि तुम मुझे या मेरी नारायणी सेना में से किसी एक को चुन लो तो दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को छोड़कर उनकी सेना को चुना। अंत: पांडवों का साथ देने के लिए श्रीकृष्ण अकेले रह गए।
 
 
*कहते हैं कि विजय उसकी नहीं होती जहां लोग ज्यादा हैं, ज्यादा धनवान हैं या बड़े पदाधिकारी हैं। विजय हमेशा उसकी होती है, जहां ईश्वर है और ईश्वर हमेशा वहीं है, जहां सत्य है इसलिए सत्य का साथ कभी न छोड़ें। अंतत: सत्य की ही जीत होती है। आप सत्य की राह पर हैं और कष्टों का सामना कर रहे हैं लेकिन आपका कोई परिचित अनीति, अधर्म और खोटे कर्म करने के बावजूद संपन्न है, सुविधाओं से मालामाल है तो उसे देखकर अपना मार्ग न छोड़ें। आपकी आंखें सिर्फ वर्तमान को देख सकती हैं, भविष्य को नहीं।
 
 
*ईमानदार और बिना शर्त समर्थन देने वाले दोस्त भी आपका जीवन बदल सकते हैं। पांडवों के पास भगवान श्रीकृष्ण थे तो कौरवों के पास महान योद्धा कर्ण थे। इन दोनों ने ही दोनों पक्षों को बिना शर्त अपना पूरा साथ और सहयोग दिया था। यदि कर्ण को छल से नहीं मारा जाता तो कौरवों की जीत तय थी। उदाहरण यह कि दुर्योधन ने अपने दोस्त कर्ण की सुनने के बजाए मामा शकुनि की ज्यादा सुनी। कर्ण तो दुर्योधन को अच्छे मार्ग पर ही ले जाना चाहता था। उसने बुरे समय में हमेशा दुर्योधन को अच्छी ही राय दी लेकिन दुर्योधन के लिए कर्ण की राय का कोई महत्व नहीं था। जबकि पांचों पांडव भगवान श्रीकृष्ण की सलाह और आदेश को आंखमिंदकर मान लेते थे। 
 
 
पांडवों ने हमेशा श्रीकृष्ण की बातों को ध्यान से सुना और उस पर अमल भी किया लेकिन दुर्योधन ने कर्ण को सिर्फ एक योद्धा समझकर उसका पांडवों की सेना के खिलाफ इस्तेमाल किया। यदि दुर्योधन कर्ण की बात मानकर कर्ण को घटोत्कच को मारने के लिए दबाव नहीं डालता, तो जो अमोघ अस्त्र कर्ण के पास था उससे अर्जुन मारा जाता।
 
 
अंतत: अगर मित्रता करो तो उसे जरूर निभाओ, लेकिन मित्र होने का यह मतलब नहीं कि गलत काम में भी मित्र का साथ दो। अगर आपका मित्र कोई ऐसा कार्य करे जो नैतिक, संवैधानिक या किसी भी नजरिए से सही नहीं है तो उसे गलत राह छोड़ने के लिए कहना चाहिए। जिस व्यक्ति को हितैषी, सच बोलने वाला, विपत्ति में साथ निभाने वाला, गलत कदम से रोकने वाला मित्र मिल जाता है उसका जीवन सुखी है। जो उसकी नेक राय पर अमल करता है, उसका जीवन सफल होता है। इति। 
 
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