16 सितंबर, गुरुवार को तेजा दशमी, क्यों और कैसे मनाई जाती है, जानिए लोक कथा
देश के कई इलाकों में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि के दिन तेजादशमी पर्व मनाने की परंपरा चली आ रही है। यह पर्व श्रद्धा, आस्था और विश्वास का =प्रतीक माना गया। इस बार यह पर्व (16 सितंबर), गुरुवार के दिन मनाया जाएगा। इस पर्व के तहत भाद्रपद शुक्ल नवमी की पूरी रात रातीजगा करने के बाद दूसरे दिन यानी दशमी तिथि को जिन-जिन स्थानों पर वीर तेजाजी के मंदिर हैं, वहां मेले लगाए जाते हैं।
इस दिन मेले और तेजा जी महाराज की सवारी के रूप में जगह-जगह शोभायात्राएं निकाली जाती हैं। भोजन और प्रसादी के रूप में बड़े-बड़े भंडारे का आयोजन किया जाता है। इस पर्व पर ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक उत्साह दिखाई पड़ता है। इस दिन काफी संख्या में श्रद्धालु तेजाजी मंदिर में नारियल चढ़ाने एवं प्रसाद ग्रहण करने जाते हैं।
इस दिन मंदिरों में वर्षभर से सर्पदंश या अन्य जहरीले कीड़ों से पीड़ित लोग तांती (धागा) बांधने और बंधा हुआ धागा छोड़ने के लिए जाते हैं। माना जाता है कि सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति यह धागा सर्प के काटने पर बाबा के नाम से पीड़ित स्थान पर बांध लेते हैं, इससे पीड़ित पर सांप के जहर का असर नहीं होता है और वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाता है। इस दिन खासतौर पर चूरमे का प्रसाद बनाकर तेजा जी महाराज को भोग लगाया जाता है।
मध्यप्रदेश और राजस्थान के हर गांव में तेजादशमी पर्व को एक त्योहार की तरह मनाया जाता है। इस दिन राजस्थान के लोकदेवता वीर तेजा जी के निर्वाण दिवस को प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल दशमी को तेजादशमी के रूप में मनाया जाता है।
कथा-
दंतकथाओं और मान्यताओं को मानें और साथ ही इतिहास भी देखें तो वीर तेजाजी का जन्म विक्रम संवत 1130 माघ शुक्ल चतुर्दशी (गुरुवार 29 जनवरी 1074) के दिन खरनाल में हुआ था. नागौर जिले के खरनाल के प्रमुख कुंवर ताहड़जी उनके पिता थे और राम कंवर उनकी मां। दंतकथाओं में अब तक बताया जा रहा था कि तेजाजी का जन्म माघ सुदी चतुर्दशी को 1130 में हुआ था जबकि ऐसा नहीं है। तेजाजी का जन्म विक्रम संवत 1243 के माघ सुदी चौदस को हुआ था। वहीं दंतकथाओं में तेजाजी की वीर गति का साल 1160 बताया गया है जबकि सच यह है कि तेजाजी को 1292 में वीर गति अजमेर के पनेर के पास सुरसुरा में प्राप्त हुई थी। हालांकि तिथि भादवा की दशम ही है।
कहते हैं कि भगवान शिव की उपासना और नाग देवता की कृपा से ही वीर तेजाजी जन्मे थे। जाट घराने में जन्मे तेजाजी को जाति व्यवस्था का विरोधी भी माना जाता है।
हुआ यूं कि वीर तेजाजी का विवाह उनके बचपन में ही पनेर गांव की रायमलजी की बेटी पेमल से हो गया। पेमल के मामा इस रिश्ते के खिलाफ थे और उन्होंने ईर्ष्या में तेजा के पिता ताहड़जी पर हमला कर दिया। ताहड़जी को बचाव के लिए तलवार चलानी पड़ी, जिससे पेमल का मामा मारा गया।
यह बात पेमल की मां को बुरी लगी और इस रिश्ते की बात तेजाजी से छिपा ली गई। बहुत बाद में तेजाजी को अपनी पत्नी के बारे में पता चला तो वह अपनी पत्नी को लेने ससुराल गए। वहां ससुराल में उनकी अवज्ञा हो गई। नाराज तेजाजी लौटने लगे तब पेमल की सहेली लाछा गूजरी के यहां वह अपनी पत्नी से मिले, लेकिन उसी रात मीणा लुटेरे लाछा की गाएं चुरा ले गए। वीर तेजाजी गाएं छुड़ाने के लिए निकल पड़े। रास्ते में आग में जलता सांप मिला जिसे तेजाजी ने बचाया, लेकिन सांप अपना जोड़ा बिछड़ने से दुखी था इसलिए उसने डंसने के लिए फुंफकारा। वीर तेजाजी ने वचन दिया कि पहले मैं लाछा की गाएं छुड़ा लाऊं फिर डंसना। मीणा लुटेरों से युद्ध में तेजाजी गंभीर घायल हो गए।
लेकिन इसके बाद भी वह सांप के बिल के पास पहुंचे। पूरा शरीर घायल होने के कारण तेजाजी ने अपनी जीभ पर डंसवाया और भाद्रपद शुक्ल (10) दशमी संवत् 1160 (28 अगस्त 1103) को उनका निर्वाण हो गया। यह देख पेमल सती हो गई। इसी के बाद से राजस्थान के लोकरंग में तेजाजी की मान्यता हो गई। गायों की रक्षा के कारण उन्हें ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। नाग ने भी उन्हें वरदान दिया था। उस दिन से तेजादशमी पर्व मनाने की परंपरा जारी है।
दंत कथाओं में तेजाजी के चार से पांच भाई बताए गए थे जबकि वंशावली के अनुसार तेजाजी तेहड़जी के एक ही पुत्र थे तथा तीन पुत्रियां कल्याणी, बुंगरी व राजल थी। तेजाजी के पिता तेहड़जी के कहड़जी, कल्याणजी, देवसी, दोसोजी चार भाई थे। जिनमें देवसी की संतानों से आगे धोलिया गौत्र चला। धोलिया वंश की उत्पति खरनाल से ही हुई थी। इसके बाद वि.सं. 1650 में कुछ लोग गांव छोड़कर दूसरी जगहों पर जाकर बस गए जिससे राज्य भर में धोलिया जाति फैल गई।
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