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Written By ओशो

सभ्य समाज की हिंसा का निकास

Osho discourse | सभ्य समाज की हिंसा का निकास
दुनिया में दो तरह के लोग हैं- सामान्य रूप से पागल व असामान्य रूप से पागल। सामन्य पागल से अर्थ है जो पागल तो है, लेकिन किसी हद तक। तुम देख सकते हो इन सामान्य से पागल लोगों को जो फुटबॉल मैच देख रहे हैं।

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अब एक सामान्य स्वस्थ व्यक्ति क्या फुटबॉल मैच देख सकता है? उन्हें कुछ पागलों की जरूरत है...क्योंकि कुछ लोग एक बॉल को इधर-उधर फेंक रहे हैं और लाखों बेवकूफ लोग मैदान में और टेलीविजन सेटों पर इतने उत्तेजित हैं कृषि छह घंटे तक अपनी कुर्सियों से चिपके हुए हैं कि वे हिल भी नहीं सकते जैसे कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण घटित हो रहा है क्योंकि एक बॉल इधर से उधर फेंकी जा रही है। और लाखों अन्य जो वहाँ जाकर देख नहीं, रेडियो अपने कानों पर लगाए हुए हैं, कम से कम कमेंटरी सुन पा रहे हैं, टीवी के आगे चिपककर बैठे हैं।

तुम इस दुनिया को सामान्य कहते हो?

मैं कैलिफोर्निया में हुआ एक सर्वे पढ़ रहा था कि जब भी कोई फुटबॉल मैच या बॉक्सिंग मैच होता है तो अपराध की दर एकदम चौदह प्रतिशत तक बढ़ जाती है। उन्हें सात दिन लगते हैं। वापस सामान्य दर पर आने के लिए। और किस प्रकार के अपराध दर? हत्याएँ, आत्महत्याएँ, बलात्कार। और न केवल युवा लोग बल्कि बच्चे भी जो फुटबॉल या बॉक्सिंग मैच देख रहे हैं, उन पर भी ऐसा ही प्रभाव पड़ रहा है और वे ऐसा ही व्यवहार करना शुरू कर देते हैं।

इस प्रकार के लोग होते हैं जो लड़ाकू किस्म के हैं, जिन्हें लड़ना ही होता है। यदि उसे युद्ध में लड़ने के लिए नहीं भेजा जाता तो वह दूसरे रास्तों से लड़ेगा। वह चुनाव लड़ेगा, या वह एक खिलाड़ी बन सकता है- वह क्रिकेट या फुटबॉल में लड़ सकता है। लेकिन वह लड़ेगा, वह प्रतिद्वंद्वी बनेगा, उसे किसी की चुनौती की जरूरत रहेगी। कहीं भी दूसरी लड़ाइयाँ उसे संतुष्ट करने के लिए आयोजित करनी होंगी। इसीलिए जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है, लोगों को अधिक से अधिक खेलों से परिचित करवाना होगा। यदि खेल इन योद्धा किस्म के लोगों को नहीं प्रदान किए गए तो वे क्या करेंगे?

जाओ और देखो जब एक क्रिकेट, फुटबॉल या हॉकी मैच होता है, लोग पागल हो जाते हैं जैसे कुछ गंभीर घटित हो रहा हो, जैसे कोई वास्तविक युद्ध हो रहा हो! खिलाड़ी गंभीर हैं और उनके प्रशंसक पागल हो जाते हैं। लड़ाइयाँ होती हैं, दंगे होते हैं। खेल के मैदान हमेशा खतरनाक हो जाते हैं, क्योंकि वहाँ जमा भीड़ लड़ाकू किस्म की होती है। किसी भी क्षण कुछ भी बुरा हो सकता है।

समाज इतना हिंसात्मक है, इतना हिंसा से भरा हुआ है कि केवल एक फुटबॉल मैच और लोग एक-दूसरे को मारने पर उतारू हो जाते हैं। जैसे बॉक्सिंग मैच बेहूदा है, मरने मारने वाला। लोग आनंद लेते हैं कि दो व्यक्ति जानवरों की भांति एक-दूसरे को मार रहे हैं, उनकी नाक तोड़ रहे हैं, उनकी आँखों को नुकसान पहुँचा रहे हैं, खूब बहा रहे हैं... और लोग ताली पीट रहे हैं और चिल्ला रहे हैं और मजा ले रहे हैं। वे स्वयं को दो खिलाड़ियों में से एक से जुड़ा हुआ पाते हैं। मैदान में हर कोई उन दो में से एक मुक्केबाज से जुड़ा जाता है। उसकी जीत ही उनकी जीत है। जब वह शत्रु को मारता है, जैसे वे शत्रु को मार रहे होते हैं। यह बेहोशी है, लेकिन यह एक निकास है।

जो ज्यादा ही हिंसात्मक हैं उनके लिए केवल तादात्म्य से कुछ नहीं हो पाता, मैच खत्म होने के बाद वे असली हिंसा के प्रतिशत में वृद्धि करते हैं। चार दिनों के लिए यह प्रतिशत बढ़ा हुआ रहता है और धीरे-धीरे नीचे आता है। यही सत्य है फुटबॉल मैचों का, ओलिम्पिक का। वे हमारे हिंसा से भरे समाज में सटीक बैठते हैं। यहाँ तक कि युद्ध सटीक बैठते हैं। परमाणुु अस्त्र सटीक बैठते हैं।

मैं अहिंसात्मक हूँ और प्रेम का समर्थन करता हूँ, युद्ध का नहीं। और मुझे नहीं लगता कि इसकी कोई आवश्यकता भी है। मूलतः लोग अकेले होने से डरते हैं। वे अकेले न होने के लिए कुछ भी करेंगे। वे किसी फालतू मूवी के लिए जाएँगे, बस अकेलेपन से बचने के लिए। वे कोई भी फालतू खेल खेलेंगे, वे कुछ भी मूर्खतापूर्ण चीज देखेंगे जैसे फुटबॉल मैच... अब, क्या तुम इससे मूर्खता भरा सोच सकते हो? कुछ बेवकूफ फुटबॉल को इधर से धकेल रहे हैं और कुछ उधर से और लाखों लोग उसे ऐसे देख रहे हो जैसे यह बहुत ही महत्वपूर्ण हो।

नहीं, मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि उन्हें स्वयं को कैसे भी भूलना है, कि वे अकेले हैं। भीड़ में उन्हें अच्छा महसूस होता है, स्वस्थ, सामान्य, क्योंकि उन जैसे लोग उनके आसपास होते हैं। लाखों लोग खेल देख रहे होते हैं, तो वे सोचते हैं यह बेवकूफी नहीं हो सकती है। यहाँ तक कि देश का राष्ट्रपति भी देख रहा है, तो फिर यह बेवकूफी नहीं हो सकती है।

किशोरों को केवल दूसरे लोगों को खेलते हुए देखने वाला मूकदर्शक बनने के लिए नहीं बल्कि प्रतिभागी होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। और हो क्या रहा है कि हजारों लोग बस देख भर रहे हैं और कुछ व्यावसायिक लोग ही खेल रहे हैं। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। प्रत्येक किशोर को प्रतिभागी होना चाहिए, क्योंकि इससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा, उनकी बुद्धिमत्ता बढ़ेगी और यह ही यौवन कहलाता है।

लेकिन एक दर्शक बने रहना और वह भी एक टेलीविजन सेट सामने-यह ठीक नहीं है। पाँच-छह घंटे तक टेलीविजन के सामने अपनी कुर्सी पर चिपके रहना व दूसरों को फुटबॉल या अन्य कोई खेल देखना ठीक नहीं है। इससे तुम्हारा कोई विकास नहीं होता। क्योंकि यह तुम्हें प्रत्येक चीज में एक बाहरी व्यक्ति, एक दर्शक बना देता है, प्रतिभागी कभी नहीं; जबकि प्रतिभागी होने की, शामिल होने की, समर्पित होने की गहन आवश्यकता है।

यह ठीक है कभी-कभी किसी अनुभवी को खेलते हुए देखना, सीखने के लिए- मगर बस सीखने के लिए; नहीं तो हर किसी को खेल के मैदान में होना होगा। युवा लोगों को खेलना चाहिए, यहाँ तक कि वृद्ध लोगों को खेलना चाहिए, यदि वे समय निकाल सकें तो खेलना चाहिए। यहाँ तक कि वे लोग जो रिटायर हो चुके हैं और कुछ और जीना चाहते हैं, उन्हें भी खेलना चाहिए। हमें प्रत्येक आयु वर्ग के लोगों के लिए खेल ईजाद करने चाहिए जिससे सभी लोग अपने पूरे जीवन खिलाड़ी बने रहें- अपनी आयु के हिसाब से, अपने बल के अनुसार। लेकिन जीवन एक खेल रहना चाहिए।

खेलों में एक और खूबसूरत चीज होती है, जो तुम्हें सिखाती है कि कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुम विजयी हुए या पराजित। यह महत्वपूर्ण बात है कि तुम बढ़िया खेलो, समग्रता से खेलो, ऊर्जा से खेलो, तुम अपना सब कुछ लगा दो बिना कुछ बताए। यही भावना है।

दूसरे विजयी हो सकते हैं, कोई ईर्ष्या नहीं; तुम उन्हें बधाई दे सकते हो और तुम उनकी जीत का उत्सव मना सकते हो। बस जरूरत इसकी है कि तुम पीछे न हटो। तुम अपनी सारी ऊर्जा इसमें लगा रहे हो। तुम्हारा पूरा जीवन खेलपूर्वक होना चाहिए।

सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन