जालंधर (पंजाब) में जन्मी डॉ. सुधा ढींगरा कविता के साथ-साथ कहानी और उपन्यास भी लिखती हैं। हिंदी चेतना (उत्तरी अमेरिकी की त्रैमासिक पत्रिका) की सह संपादक, पंजाब केसरी (हिंदी दैनिक पत्र) की स्तम्भ लेखिका हैं। हिंदी विकास मंडल (नार्थ कैरोलाईना) के न्यास मंडल में हैं।
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आज सुबह से ही दाई आँख फड़क रही है। ऐसे में मुझे मेल का बहुत इंतजार रहता है। 25 वर्ष अमेरिका में रहने के बाद आज भी दाईं आँख का फड़कना और काली बिल्ली का रास्ता काटना अपशकुन मानती हूँ। हालाँकि काली बिल्ली तो यहाँ के घरों में रखी जाती हैं और उनका सड़कों पर रास्ता काटना स्वाभाविक-सा है।
दाईं आँख के फड़कने के साथ चिट्ठी-पत्री कैसे जुड़ गए, पता ही नहीं चला। 25 वर्ष पूर्व मैं सुहा वर्मा शादी के बाद जब सेंट लुईस (मिजूरी) आई तो हर रोज मेल का इंतजार करती थी। छोटा-सा अपार्टमेंट था। दिनभर खिड़की से बाहर झाँकना अच्छा लगता था। चारों ओर चुप्पी और शांति रहती थी। किसी तरह की कोई आवाज सुनाई नहीं देती थी। कभी-कभी पक्षियों का चहचहाना सुनाई देता था।
मैं संयुक्त परिवार की चहल-पहल से आई थी और भारत के वातावरण का शोर-गुल मिस कर रही थी। अमेरिका की धरती पर मेरा पहला सप्ताह था। सामने के दो एक अपार्टमेंटों में मेरी तरह ही कुछ कुत्ते और बिल्लियाँ खिड़की के शीशों से बाहर झाँकते थे। इंसान कोई दिखाई नहीं देता था। अपराह्न चार बजे के बाद ही इक्का-दुक्का कारें नजर आती थीं। बस मैं इन सबको देखकर मन बहला लेती थी।
ठीक तीन बजे एक मेल मैन, मेल लेकर आता था और मैं रोज मेल लेने बाहर भागती थी, क्योंकि तब मायके और ससुराल से पत्र ही आते थे। मेले लेते समय किसी एक व्यक्ति से हैलो-हाय हो जाती थी। दाईं आँख का फड़कना मेल के साथ शायद इसलिए भी जुड़ गया था कि जब-जब आँख फड़की, कोई न कोई बुरी खबर पत्र में पढ़ने को मिली।
आज सुबह से ही दाई आँख फड़क रही है। ऐसे में मुझे मेल का बहुत इंतजार रहता है। 25 वर्ष अमेरिका में रहने के बाद आज भी दाईं आँख का फड़कना और काली बिल्ली का रास्ता काटना अपशकुन मानती हूँ। हालाँकि काली बिल्ली तो यहाँ के घरों में रखी जाती हैं।
मेल का आज भी इंतजार है, हालाँकि अब मेल में जंक मेल ज्यादा और एक-दो ही काम के पत्र होते हैं। वो भी कुछेक मित्रों के और बाकी बिल। परिवार तो पत्रों से ऊपर उठ गए हैं। ई-मेल और दूरभाष पर बातचीत का सहारा हो गया है। फोन की बातचीत एक-दूसरे को मिला देती है। पोस्ट ऑफिस की गाड़ी देख भाग कर मेल लेने जाती हूँ। जंक के साथ एक कीमती पत्र था।
भारत से मेरी बचपन की सहेली रानी वाधवा का। रानी और मैं कब से सहेलियाँ हैं याद नहीं। बस इतना याद है कि वह सिख परिवार की है और जपुजी साहब पढ़ना उसने मुझे सिखाया। गुरुद्वारे के हर उत्सव में मैं उसके साथ बढ़-चढ़कर भाग लेती थी और वह हमारे हर पर्व में आगे होती थी। शादी के बाद हम दोनों दूर हो गईं। मैं अमेरिका और वह बरेली में, पर पत्रों ने हमें जोड़े रखा।
पत्र खोलते ही कई यादें घूम गईं। पत्र पढ़ने के बाद रोना काबू में न रहा। रानी के तीन भाइयों ने सारी जमीन-संपत्ति अपने नाम करवाकर माँ-बाप को वृद्ध आश्रम में छोड़ दिया है। एक कमरा भी नहीं दिया। वृद्ध अवस्था के रोग उन्हें लग गए थे और उन्हें बच्चों के ध्यान और सेवा की जरूरत है। किसी के पास उनके लिए समय नहीं। दोनों पति-पत्नी काम करते हैं और उनके बच्चे भी हैं। वृद्ध आश्रम में रखकर उनका खर्चा उठाना भाइयों को मंजूर है, पर घर में एक कमरा और सेवा के लिए किसी बाई को रखना स्वीकार्य नहीं। क्योंकि उन्हें स्वयं भी उनका ध्यान रखना पड़ता, जो उनकी पत्नियों को गवारा नहीं।
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बचपन से लेकर शादी तक की यादें बरबर मस्तिष्क में कौंध गईं। कितने प्यार से अंकल-आंटी ने बच्चों को पाला था। उनकी ममता का सुख मैं भी ले चुकी हूँ। आज उन्हीं बेटों के पास माँ-बाप की इस अवस्था में उनका साथ देने की अक्ल नहीं। बहुत गुस्सा आया, दिल किया कि अभी उन्हें फोन करूँ और उनकी बुद्धि ठिकाने लगाऊँ। पर रानी के पत्र की अंतिम पंक्तियाँ सामने घूम गईं- ‘मैंने जब भाइयों, भाभियों को सामने बिठाकर बात करनी चाही तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया, तुम्हारे भी माँ-बाप हैं, इतना बुरा लग रहा है तो तुम उन्हें साथ ले जाओ।
अगर जमीन-संपत्ति में हिस्सा माँगोगी तो तुम्हारी शादी और आज तक जितना किया है, वह सब कुछ भी गिनना होगा। हमारे हिस्से से कहीं ज्यादा ले गई हो। हाँ, अगर माँ-बाप को घर ले जाओगी तो हम उनका खर्चा तुम्हें दे देंगे।’ रानी ने आगे लिखा था- ‘सुहा, ये वो भाई हैं, जो राखी बँधवा कर इकलौती बहन पर गर्व करते थे। आज राखी सिर्फ धागा रह गई है, इनकी नजरों में। बहन पर किया गया खर्चा गिना जा रहा है। माँ-बाप तो बोझ हो गए हैं, इन पर।’
सोच में पड़ गई कि भारत की सभ्यता, संस्कृति को क्या हो गया है, कहाँ जा रही है? माँ-बाप के बुढ़ापे तक आते-आते बच्चों के संस्कार ही मर गए हैं- भगवान के बाद माँ-बाप का स्थान है, बचपन से सुनते आए हैं। माँ-बाप के साथ ऐसा व्यवहार देखकर अगली पीढ़ी क्या संस्कार ले पाएगी, क्या सीख पाएगी? सारी शाम ये प्रश्न मन में उठते रहे।
25 वर्ष पहले की घटना घूम गई जब शादी होकर अमेरिका आई थी। सामने वाले अपार्टमेंट में एक विधवा नैनसी रहती थी। उसके दो बेटे थे। उनके पालन-पोषण के लिए उसे दो नौकरियाँ करनी पड़ती थीं। पति कोई पैसा नहीं छोड़ गया था। एक दिन उसने बातों ही बातों में बताया कि उसने अपने डैडी को नर्सिंग होम में डाल दिया था। उसकी मम्मी बहुत साल पहले स्वर्ग सिधार चुकी थी। उसके डैडी का सारा पैसा उन्हीं के लिए बैंक में डलवा दिया था ताकि उनका बुढ़ापा नर्सिंग होम में अच्छा निकले।
नैनसी ने बहुत भावुक होकर कहा था- उसके डैडी ने सारी उम्र कड़ी मेहनत की थी। अब वृद्धावस्था तो उनकी अच्छी गुजरनी ही चाहिए। वह सेवा नहीं कर सकती थी पर नर्सिंग होम में अपनी तरह के लोगों में तो वह खुश और अच्छा जीवन जी सकते थे। उसके पिता उसकी मजबूरी और आर्थिक स्थिति समझते थे। उसके पिता ने ही उसे नर्सिंग होम का विचार सुझाया था। वह हर रविवार चर्च न जाकर अपने पिता से मिलने जाती थी। अमेरिका में रविवार का दिन चर्च का दिन होता है। 12 बजे दोपहर से पहले कुछ भी नहीं खुलता।
नैनसी से बात करने के बाद मैंने अपने पति से नैनसी के पिताजी को देखने जाने का आग्रह किया था। मैं नर्सिंग होम का मतलब अस्पताल समझती थी। बाद में पता चला, यहाँ नर्सिंग होम का अर्थ वृद्धाश्रम है। अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वहाँ कोई कल्चर नहीं... नैनसी गरीब थी तो भी उसने अपने पिता का पैसा नहीं लिया।
अभी परसों काम पर प्रसिल्ला मेरी साथिन ने अपने घर बुलाकर अपना बेसमेंट दिखाकर बताया था कि उसने अपनी सास-ससुर के लिए ठीक करवायाक है। प्रसिल्ला और उसके पति कैन्न अपने माँ-बाप को नर्सिंग होम में नहीं छोड़ना चाहते हैं।
प्रसिल्ला ने हँस-हँसकर बताया कि उसके माँ-बाप की सेवा में कैन्न ने उसका साथ दिया। उसके माँ-बाप को कैंसर था। अब उसकी बारी है। उसके तीनों बच्चे तो अपने-अपने घरों में हैं। अमेरिकन जिन्हें हम संस्कृति रहित प्राणी समझते हैं, वे पूर्वी संस्कारों को अपनाते जा रहे हैं और भारतीय पश्चिम की आँधी में अँधे हुए उड़ रहे हैं। कैसी विडम्बना है?