सोमवार, 30 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. खबर-संसार
  2. समाचार
  3. राष्ट्रीय
  4. Pandit Nain Singh Rawat, Himalaya, Tibet Map, History Studies
Written By
Last Modified: शनिवार, 21 अक्टूबर 2017 (16:50 IST)

हिमालय के इतिहास और भूगोल के गुमनाम नायक

हिमालय के इतिहास और भूगोल के गुमनाम नायक - Pandit Nain Singh Rawat, Himalaya, Tibet Map, History Studies
हमारे देश में परंपरा है कि हमें तब तक अपनी विरासत का कोई विदेशी याद नहीं दिलाता है या उसके प्रति सम्मान जाहिर नहीं करता है तब तक हमारे ज्ञान चक्षु पता नहीं किन कारणों से बंद रहते हैं। लेकिन जैसे ही कोई विदेशी उसकी खूबियों का वर्णन करता है, हमारी 'स्वदेशी मेधा और संस्कृति' का बांध फूट पड़ता है।
 
इसलिए ‍जब शनिवार, 21 अक्टूबर, 2017 को गूगल ने अपने डूडल से देश के पहले भूगोल से जुड़े इतिहास का प्रामाणिक अध्‍ययन करने वाले पंडित नयन (या नैन) सिंह रावत को आदरांजलि दी तब हमें मालूम हुआ कि नैन सिंह रावत भी कुछ ऐसा ज्ञान सौंपकर गए हैं जिससे न केवल अंग्रेज वरन भारतीय, चीनियों और यहां तक सारी दुनिया ने सीखने की शुरुआत की।
 
21 अक्टूबर 1830 को जोहार घाटी के एक गांव में पैदा हुए नैन सिंह को सबसे जरूरी काम तिब्बत की मैपिंग के लिए जाना जाता है। विदित हो कि उस दौर में जब तिब्बत में बाहरी लोगों का आना-जाना वर्जित था और वहां सिर्फ बौद्ध भिक्षु ही आ-जा सकते थे, उन्होंने बिना किसी आधुनिक उपकरण की मदद से यह काम किया था।  
 
उनके बारे में कहा जाता है कि पंडित जी हाथ में माला फेरते हुए किसी भिक्षु की तरह पूरे हिमालय में घूमते थे लेकिन उनकी माला में सामान्य 108 मनकों की जगह 100 ही मनके होते थे। 31.5 इंच का एक कदम रखने वाले नैन सिंह के 2000 कदमों में एक मील की दूरी तय होती थी। गोपनीयता की खातिर इस यात्रा से जो भी आंकड़े मिलते रहे, उन्हें वे प्रार्थना की शक्ल में रखते थे। जानकारी को गोपनीय घुमाने का एक और उपाय वह चकरी भी थी जिसको लेकिन बौद्ध  भिक्षु और धर्मावलम्बी घुमाते हैं।    
सारी जानकारी चकरी में सुरक्षित रहती थी। उन्होंने पहले कुमायूं की यात्रा की और फिर एक बार कश्मीर होते हुए तिब्बत की राजधानी ल्हासा गए थे। इसके बाद काठमांडू से 1200 मील की यात्रा कर फिर ल्हासा गए। वहां से मानसरोवर गए और वापस आए। नैन सिंह ने एक बार फिर लेह से ल्हासा तक की यात्रा की, जिसे उनकी सबसे अधिक सफल और महत्वपूर्ण यात्रा माना जाता है। हालांकि उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान पूरी गोपनीयता बरती थी लेकिन वर्ष 1865 में दो कश्मीरी व्यापारियों ने उनकी शिकायत स्थानीय अंग्रेज अधिकारियों से की थी। लेकिन उनकी इसी यात्रा के नक्शे को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश रॉयल सोसायटी ने उन्हें अहम काम के लिए गोल्ड मेडल दिया था। बाद में भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया।
 
उस समय तिब्बत का मापन बिना आधुनिक उपकरणों के उल्लेखनीय काम था। हिमालय के इस वीर सपूत ने दुर्गम रास्तों का चिन्हांकन और नई राहों की खोज कर तात्कालिक राहगीरों, कारोबारियों और पर्वतारोहियों का काम आसान कर दिया। उनका प्रमुख काम तिब्बत का नक्शा बनाना था जो कि तब एक अत्यधिक खतरनाक और दुर्गम स्थल माना जाता था।   
 
पंडित नैन सिंह के काम का इतना महत्व था कि तत्कालीन तिब्बत के पठार के मालिक अंग्रेज भी उनसे खासे प्रभावित थे लेकिन वहां पर किसी भी विदेशी के पहुंचने पर रोक थी। इस अभियान के दौरान उनके पास सिर्फ रस्सी, कंपास, थर्मामीटर और माला ही थी जिससे बल पर वहां पहुंचे थे। उस दौरान किसी भी विदेशी के पकड़े जाने पर उसे मौत की सजा दी जाती थी।     
 
जिस समय पंडित नैन ति‍ब्बत का नक्शा तैयार कर रहे थे उस समय अंग्रेजों ने सारे भारत का मानचित्र बना लिया था लेकिन उनके पास तिब्बत का नक्शा नहीं था और वे आगे बढ़ते हुए तिब्बत का नक्शा चाहते थे। लेकिन अंतत: अंग्रेजों ने 1863 में कैप्टन माउंटगोमरी को तिब्बत का नक्शा बनाने का भार सौंपा था और अंग्रेजों ने इस काम के लिए उत्तराखंड के 33 वर्षीय पंडित नैन सिंह रावत और उनके चचेरे भाई मणी सिंह को इस काम पर लगाया था। 
 
दोनों भाइयों को ट्रेनिंग के लिए देहरादून लाया गया। उस समय दिशा और दूरी नापने के यंत्र काफी बड़े हुआ करते थे और उन्हें तिब्बत तक ले जाना कम खतरनाक नहीं था क्योंकि इन यंत्रों के कारण दोनों के ही पकड़े जाने का खतरा होता और तब इन दोनों को मौत की सजा पाने से कोई नहीं रोक  सकता था। ऐसे में दिशा नापने के लिए छोटे कंपास और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर इन भाइयों को सौंपे गए।
 
दूरी नापने के लिए नैन सिंह के पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी गई ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें। हिंदुओं की 108 की कंठी के बजाय उन्होंने अपने हाथों में जो माला पकड़ी थी, वह केवल 100 मनकों की थी ताकि गिनती आसान हो सके। 1863 में दोनों भाइयों ने अलग-अलग राह पकड़कर तिब्बत के लिए यात्रा शुरू की। नैन सिंह काठमांडू के रास्ते और मणी सिंह कश्मीर के रास्ते तिब्बत के लिए निकले लेकिन मणी सिंह बिना यात्रा पूरी किए ही वापस आ गए। नैन सिंह की यात्रा जारी रही।
 
अंतत: नैन सिंह किसी तरह तिब्बत पहुंचे और पहचान छिपाने के लिए बौद्ध भिक्षु के रूप में वहां घुलमिल गए। वे दिन में शहर में टहलते और रात में किसी ऊंचे स्थान से तारों की गणना करते। इन गणनाओं को वे कविता के रूप में याद करते थे। उन्होंने ही सबसे पहले दुनिया को बताया कि ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, उसके अक्षांश और देशांतर क्या हैं? यही नहीं उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांगपो (चीनी नाम) और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है। उन्होंने दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों से भी परिचित कराया।