गुरुवार, 28 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. मुख्य ख़बरें
  3. राष्ट्रीय
  4. From Bharat Jodo Yatra to Parliament how much has Rahul Gandhi changed?

भारत जोड़ो यात्रा से लेकर संसद तक... आखिर कितना बदले राहुल गांधी?

Rahul Gandhi
वन्‍स अपॉन अ टाइम... करीब सवा सौ साल पुरानी एक राजनीतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी। लेकिन यह करीब पांच महीने पुराना ‘स्‍टेटमेंट’ है। इसीलिए इस बात को ‘वन्‍स अपॉन अ टाइम’ से शुरू किया जा रहा है।

भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत सितंबर में हुई थी और आज जनवरी का आखिरी दिन है। इस बीच एक नाम है राहुल गांधी और उनकी करीब 3500 किमी की पैदल यात्रा है। यह महज एक आदमी की पैदल यात्रा नहीं है, यह देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने के एक ऐसे आदमी की पैदल यात्रा है, जिसे यात्रा के तीन महीनों के बाद कुछ लोग उनमें नायक देख रहे हैं। कुछ उन्‍हें उम्‍मीदभरी निगाहों से देख रहे हैं। वहीं राहुल को पसंद नहीं करने वाले भी उन्‍हें इग्‍नौर नहीं कर पा रहे हैं।

यह ठीक वैसा ही जैसे भारत में आजादी के बाद से महात्‍मा गांधी को लेकर अब तक होता आया है--- आप गांधी को प्‍यार कर सकते हैं, नफरत भी कर सकते हैं, लेकिन इग्‍नौर नहीं कर सकते।

राहुल गांधी की इस यात्रा के बारे में कहा गया था कि यह राजनीतिक नहीं है, यह विशुद्ध रूप से आपसी सद्भाव के लिए निकाली जा रही यात्रा है। राहुल कहते भी हैं कि वे ‘मुहब्‍बत की दुकान’ खोलने आए हैं। ...तो फिर राहुल गांधी के लिए एक मनुष्‍य के तौर पर और बतौर एक राजनीतिज्ञ इस यात्रा के क्‍या मायने हो सकते हैं?

हाल ही में यात्रा श्रीनगर में सपन्‍न हुई है। अब आगे अगर इस यात्रा के राजनीतिक परिणाम अच्‍छे न भी आएं और यह कुछ हद तक देश में बढ़ती असहिष्‍णुता, सांप्रदायिकता और बार-बार आहत होती भावनाओं को कुछ थोड़ा बहुत पीछे की तरफ धकेलने में कामयाब रहे तो राहुल की यह यात्रा सार्थक मानी जाएगी।

जब-जब कोई नेता, कोई राजनीतिक दल कमजोर हुआ है, उसने पैदल यात्राएं कर अपने आप को फिर से खड़ा किया है। 12 मार्च 1930 को साबरमती से दांडी तक पैदल यात्रा कर गांधी ने अंग्रेज सरकार के नमक कानून को तोड़ा था। तब बापू के साथ सिर्फ 78 लोग थे, दांडी पहुंचते-पहुंचते एक कारवां बन चुका था।

देश के ख्‍यात लेखक और साहित्‍यकार राहुल सांकृत्यायन ऊंचे पहाड़ों पर पैदल यात्रा और चढाई करते हुए तिब्बत से प्राचीन बौद्ध ग्रंथ ढूंढ ले आए थे। पचास के दशक में विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन में पैदल यात्रा की थी। वे करीब 12 साल पैदल चले और 58 हजार किलोमीटर की यात्रा की थी। आज गांधी को और विनोबा भावे को कौन नहीं जानता।

मैं मानता हूं कि पैदल यात्रा आदमी को योगी बना देती है, कई साधू- संत पैदल चलने को अपनी साधना का हिस्‍सा मानते हैं। यह शरीर और मन दोनों को बदल सकता है। पैदल चलना एक योग है।

जहां तक राहुल की बात है तो इस यात्रा के दौरान उनका बेहद संवेदनशील चेहरा सामने आया है। कहा जाता है कि राजनीति करने के लिए एक चतुर चालाक और चाणक्‍य की तरह रणनीति बनाने वाली कुशाग्र बुद्धि होनी चाहिए, लेकिन राहुल को एक राजनीतिज्ञ के तौर पर हमेशा से नकारा जाता रहा है। उनमें न ही राजनीतिक कुशलता है और न ही कुटीलता नजर आती है। वे इस यात्रा में भी अपने भाषणों में ‘आउट ऑफ पॉलिटिक्‍स’ बातें करते नजर आते हैं। कई बार राहुल गांधी का ‘पॉलिटिकली करैक्‍ट’ नहीं होने की वजह मजाक भी बनाया जा चुका है।

इसके ठीक उलट वे बच्‍चों से प्‍यार से मिलते हैं, अपनी हम-उम्र युवतियों को गले लगाते हैं, युवाओं के गले में हाथ डालकर एक सौम्‍य मुस्‍कान के साथ सेल्‍फी लेते हैं। कभी अपनी बहन प्रियंका गांधी के गाल को दुलार से सहलाते हैं तो कभी श्रीनगर की बर्फ में प्रियंका के साथ अठखेलियां करते नजर आते हैं— तो कभी राजनीतिक और सार्वजनिक  दायरों को तोडकर अपनी मां के जूतों के फीते बांधकर मर्द-वादी सोच को सरेआम दुत्‍कार देते हैं।

उनका संवेदनशील दिल बार-बार जिंदगी के सबसे अंधेरे और गर्द से भरे दृश्‍यों की तरफ मुड़ जाता है और वे अपनी इस यात्रा में गरीब बच्‍चों और आखिरी पंक्‍ति के लोगों की तकलीफों को अपनी आंखों में समेट लेते हैं।

इस पूरी यात्रा के दौरान राहुल गांधी का एक मानवीय पक्ष उभरकर सामने आया है। इसमें कोई संशय नहीं कि देशभर में नेताओं के चेहरों पर पसरी तमाम राजनीतिक धूर्तता से दूर राहुल के पास एक बेहद संवदेनात्‍मक एप्रोच है।

यह सब देखकर यही सामने आता है कि जिस आदमी को पॉलिटिकली बार- बार नकारा गया वो एक बेटे, एक भाई और एक इंसान के तौर पर कितना अलहदा है। ऐसे में सवाल उठता है कि एक इंसान को पहले एक इंसान के तौर पर या एक राजनीतिज्ञ के तौर पर बेहतर होना चाहिए।

अब भारत जोड़ो यात्रा खत्‍म हो गई है। श्रीनगर में गिरती हुई बर्फ में भाषण देते हुए राहुल किसी नायक की तरह नजर आते हैं, जैसे श्रीनगर की घाटियां भी बर्फ के फाहे गिराकर राजनीति में उनका स्‍वागत कर रही हो। हालांकि सवाल यह है कि राजनीतिक धरातल पर देश की जनता उन्‍हें एक अच्‍छे इंसान के तौर स्‍वीकार करेगी या एक धीमे- धीमे परिपक्‍व होते राजनीतिज्ञ के तौर पर अस्‍वीकार कर देगी।
ये भी पढ़ें
प्रवासी कविता : वंदे मातरम