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Written By Author अनिल जैन
Last Updated : बुधवार, 30 अक्टूबर 2019 (20:35 IST)

कश्मीर अंदरूनी मसला है तो फिर वहां यूरोपीय सांसदों क्या काम?

कश्मीर अंदरूनी मसला है तो फिर वहां यूरोपीय सांसदों क्या काम? - European MPs in jammu and kashmir
वैसे तो कश्मीर तब से ही भारत का अभिन्न अंग है, जबसे उसका भारत में विलय हुआ है, लेकिन 5 अगस्त, 2019 के बाद से वह ऐसा और इतना 'अभिन्न अंग’हो गया है कि वहां केंद्र सरकार की मर्जी के बगैर भारतीय संसद के सदस्य नहीं जा सकते। जो जाने की कोशिश करते हैं, उन्हें श्रीनगर के हवाई अड्डे से बाहर नहीं निकलने दिया जाता और वहीं से वापस दिल्ली भेज दिया जाता है।
 
वहां संसद में विपक्ष के नेता और उस सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री भी नहीं जा सकते। उन्हें वहां जाने के अपने अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ती है।
 
सुप्रीम कोर्ट उन्हें जाने की अनुमति भी देता भी है तो तमाम तरह की शर्तों के साथ। वहां विदेशी पत्रकारों को जाने की तो कतई अनुमति नहीं है।
 
नई दिल्ली स्थिति विभिन्न देशों के राजनयिक भी वहां नहीं जा सकते, लेकिन यूरोपीय देशों में कार्यरत एक स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) से जुडी एक इंटरनेशनल बिजनेस ब्रोकर की सिफारिश पर यूरोपीय संसद के 27 सदस्यों को भारत सरकार खुशी-खुशी वहां जाने देती है। हैरानी की बात यह कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई दिल्ली में उन विदेशी सांसदों का खैरमकदम करते हैं।
 
कहा जा रहा है कि यूरोपीय संसद के सदस्यों यह दौरा आधिकारिक नहीं है। यूरोपीय यूनियन ने भी स्पष्ट कर दिया है कि सांसदों का यह समूह आधिकारिक तौर पर यूरोपीय यूनियन की नुमाइंदगी नहीं करता। 
 
यह भी साफ हो चुका है कि इस संसदीय समूह की कश्मीर यात्रा का पूरा खर्च एक एनजीओ वहन कर रहा है, लेकिन इसके बावजूद सांसदों के इस समूह को भारत सरकार ने एक तरह से यूरोपीय संसद का प्रतिनिधिमंडल ही माना है।
 
इस समूह ने कश्मीर जाने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की, उनके साथ भोजन किया, तस्वीरें खिंचवाई। प्रधानमंत्री ने उन सांसदों को संबोधित भी किया। इन सांसदों ने उपराष्ट्रपति वेकैंया नायडू से भी की मुलाकात की और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल भी इस संसदीय समूह से मिले।
 
तीन महीने पहले कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने पर जब पाकिस्तान ने हायतौबा मचाते हुए मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया था तो भारत सरकार की ओर से कहा गया कि कश्मीर हमारा अंदरुनी मामला है और इसमें किसी भी बाहरी शक्ति का दखल मंजूर नहीं किया जाएगा।
 
यह और बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के इस रुख को नजरअंदाज करते हुए लगातार इस मसले पर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ बनने की अपनी हसरत दोहराते रहे, जिसका भारत की ओर कोई प्रभावी प्रतिकार नहीं किया गया।
 
यही नहीं, इस सिलसिले में कुछ दिनों पहले जब पाकिस्तान के न्योते पर अमेरिकी संसद के एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद जमीनी हालात का पता लगाने और लोगों की भावनाओं को जानने-समझने के लिए पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) का दौरा किया, तब भी भारत ने अमेरिकी सरकार के समक्ष इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। 
 
तो सवाल उठता है कि क्या अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के उस दौरे के जवाब में भारत ने यूरोपीय सांसदों का यह दौरा आयोजित किया? और क्या ऐसा करके भारत ने अपनी ओर से भी औपचारिक तौर पर इस घरेलू और पाकिस्तान के द्विपक्षीय मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण नहीं कर दिया?
 
सवाल यह भी है कि यह कैसा राष्ट्रवाद है, जिसमें भारत सरकार को कश्मीर जैसे अत्यंत संवेदनशील और निहायत घरेलू मसले पर एक एनजीओ और उससे जुडी एक बिजनेस ब्रोकर के जरिए अपनी स्थिति दुनिया के सामने स्पष्ट करना पड रही है? जिस कश्मीर में भारतीय सांसदों को जाने से सरकार रोक देती है, उसी कश्मीर में विदेशी सांसदों को पूरे सम्मान के साथ दौरा कराती है।
 
क्या यह देश की संसद का अपमान और उसके सदस्यों के विशेषाधिकार का हनन नहीं है? आखिर इन यूरोपीय सांसदों के कश्मीर दौरे के जरिए भारत सरकार क्या पैगाम देना चाहती है?
 
सरकार चाहे जो कहे, यूरोपीय यूनियन के दक्षिणपंथी सांसदों का यह दौरा धुर दक्षिणपंथ के ग्लोबल नेटवर्क के विस्तार की कोशिश तो है ही, साथ ही इस दौरे से भारत सरकार ने खुद ही कश्मीर मसले का औपचारिक तौर पर अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया है।
 
अब कश्मीर की जमीनी हकीकत जानने के इच्छुक हर विदेशी सांसद और राजनयिक को यह संकेत मिल गया है कि उसके कश्मीर जाने में भारत सरकार अड़ंगा नहीं लगाएगी।
 
अब खासकर अमेरिकी सांसद और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं भारत सरकार पर दबाव बनाएंगे कि वह उन्हें भी कश्मीर यात्रा की अनुमति दे।
 
भारत सरकार ऐसी मांग को किस आधार पर खारिज करेगी और सबसे बडा सवाल है कि कश्मीर मसले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की पाकिस्तानी कोशिशों का अब वह किस मुंह से विरोध करेगी?
 
'न्यू इंडिया’ में यह कैसा 'नया कश्मीर’ है, जिसमें विशेष राज्य का दर्जा खत्म किए जाने के बाद से समूची कश्मीर घाटी खुली जेल बनी हुई है।
 
आम लोग अपने बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं। जनजीवन पूरी तरह ठप है। पूरे वातावरण में तनाव, मायूसी और भय छाया हुआ है।
 
'कश्मीर की आजादी’की मांग करने वाले अलगाववादी संगठनों के नेता ही नहीं बल्कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के वे तमाम नेता भी जेल में हैं या अपने घरों पर नजरबंद हैं, जो कश्मीर को भारत ही हिस्सा मानते हैं, भारत के संविधान में आस्था रखते हैं, उसकी शपथ लेकर विभिन्न चुनावों में भाग लेते हैं।
 
घाटी के बाशिंदे न तो अपने सूबे के इन नेताओं से मिल सकते हैं और न ही अपने देश के सांसदों और प्रमुख राजनेताओं से।
 
सरकार ने कैसे सोच लिया कि वह यूरोपीय सांसदों के समूह को ऐसे कश्मीर की यात्रा कराकर उनसे यह प्रमाण-पत्र हासिल कर लेगी कि कश्मीर में हालात बिलकुल सामान्य हैं? 
 
अगर भारत सरकार यूरोपीय सांसदों की इस यात्रा के जरिए कश्मीर के जमीनी हालात को सामान्य दिखाना चाहती थी, तो स्पष्ट रूप से उसकी यह कवायद पूरी तरह बेकार और हास्यास्पद साबित हुई है।
 
27 सांसदों के समूह में से 4 सदस्य तो कश्मीर की यात्रा किए बगैर ही अपने-अपने देश लौट गए, क्योंकि वे कश्मीर में बेरोकटोक घूमना और वहां आम लोगों से बात करना चाहते थे लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी, लिहाजा उन्होंने कश्मीर जाने से इनकार कर दिया।
 
समूह में शामिल ब्रिटेन के प्रतिनिधि क्रिस डेविस ने तो अपने देश लौटते हुए यहां तक कह दिया वे भारत सरकार की इस 'पीआर एक्सरसाइज’का हिस्सा बनकर यह दिखावा करने को तैयार नहीं हैं कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य है।
 
उन्होंने कश्मीर में लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन का आरोप भी लगाया। समूह के जिन 23 सदस्यों ने कश्मीर घाटी का दौरा किया, उन्होंने भी बाद में मीडिया से चर्चा करते हुए कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताते हुए इस मामले में यूरोपीय समुदाय को पंच बनाने का प्रस्ताव दे दिया।
 
कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रस्ताव का सिरा भी अंतत: अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के मध्यस्थता वाले प्रस्ताव से ही जुड़ता है। समूह में शामिल स्पेन के सदस्य हरमन टेरस्टेक ने तो साफतौर पर कहा कि हम इस तथ्य से वाकिफ हैं कि हमें घाटी के आम लोगों से दूर रखा जा रहा है।
 
यूरोपीय सांसदों के दौरे के दौरान कश्मीर घाटी और खासकर श्रीनगर तथा उसके आसपास के इलाकों में लोगों ने विरोध प्रदर्शन भी किया और कुछ इलाकों में पथराव और सुरक्षा बलों के साथ झडपों की घटनाएं भी हुईं।
 
कुल मिलाकर यूरोपीय सांसदों की कश्मीर यात्रा के जरिए सरकार जो हासिल करना चाहती थी, उसमें तो वह पूरी तरह नाकाम रही, साथ ही अपनी मंशा को लेकर कई तरह के संदेह भी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में पैदा कर दिए। कुल मिलाकर यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर की यात्रा कराने का फैसला भारत सरकार की लचर कूटनीति का परिचायक बना है, जो आगे चलकर सेल्फ-गोल साबित हो सकता है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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