गुरुवार, 28 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. मुख्य ख़बरें
  3. राष्ट्रीय
  4. amitabh bachchan, dada saheb phalke award
Written By
Last Updated : मंगलवार, 24 सितम्बर 2019 (21:47 IST)

भारतीय‍ फिल्मों के पितामह दादा साहब फाल्के के बारे में संपूर्ण जानकारी

भारतीय‍ फिल्मों के पितामह दादा साहब फाल्के के बारे में संपूर्ण जानकारी - amitabh bachchan, dada saheb phalke award
मुंबई। मंगलवार के दिन जब भारतीय फिल्मों के पितामह माने जाने वाले दादा साहब फाल्के अवॉर्ड (dada saheb phalke award) के लिए अमिताभ बच्चन (amitabh bachchan) के नाम का ऐलान हुआ तो पूरा बॉलीवुड जश्न में डूब गया। आप भी जानना चाहेंगे कि आखिरकार दादा साहब फाल्के कौन थे, जिनके सम्मान में फिल्मों का सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जाता है... 
 
त्र्यम्बकेश्वर गांव में हुआ था दादा साहब फाल्के का जन्म : दादा साहब फाल्के का पूरा नाम धुण्डीराज गोविंद फाल्के था। उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक जिले के त्र्यम्बकेश्वर गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। परिवार की परंपरा के अनुसार उन्हें घर पर ही संस्कृत और पुरोहिताई की शिक्षा दी गई। उनकी रुचि चित्रकला, नाट्य, अभिनय और जादूगरी मे वि‍कसित होती चली गई। इनका परिष्कार बंबई आकर हुआ, जब उनके पिता दाजी शास्त्री एलफिंस्टन कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक बने। 
 
फाल्के ने जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया : 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद धुण्डीराज गोविंद फाल्के ने बंबई के प्रसिद्ध कला विद्यालय जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। ललित कलाओं के साथ छायांकन कला ने उन्हें विशेष रूप से आकर्षित किया। इसके बाद वे बड़ौदा के कला भवन गए और छायांकन में असाधारण रुचि को देखते वहां के प्रधानाचार्य प्रो. गज्जर ने छायांकन विभाग उन्हें सौंप दिया। 
 
छात्रवृत्ति से खरीदा कैमरा : फाल्के ने वहां छायांकन प्रयोगशाला और पुस्तकालय में उपलब्ध सूचना सामग्री का भरपूर उपयोग किया। 1890 में उन्हें जो छात्रवृत्ति मिली, उससे एक कैमरा भी खरीद लिया। उन्होंने मॉडलिंग और आर्किटेक्चर का प्रशिक्षण भी लिया।
 
फिल्म के पहले के गोरखधंधे : अध्ययन समाप्ति के बाद के 16 वर्षों में दादा साहब फाल्के ने विभिन्न व्यवसायों में अपना भाग्य आजमाया। बंबई रहकर उन्होंने छायांकन किया। रंगमंच के परदों पर लैंडस्केप बनाए। कहा जाता है कि उन्होंने एक सेट की डिजाइन के लिए अहमदाबाद में हुई प्रतियोगिता में पुरस्कार भी पाया था। 
 
दादा साहब फाल्के ने जादूगरी भी सीखी : दादा साहब फाल्के ने गोधरा में कुछ दिन रहकर फोटोग्राफी पर हाथ आजमाए। पुणे में सन् 1903 में शासन के पुरातत्व विभाग में ड्रॉफ्ट्स मैन और फोटोग्राफर पद पर काम किया। इसी दौरान 1901 में एक जर्मन जादूगर से मुलाकात ऐसी हुई कि उसके शिष्य बन गए। उसे अनेक एन्द्रेजालिक युक्तियां सीखीं और जादू में माहिर हुए।
 
प्रिंटिंग प्रेस का व्यवसाय : दादा साहब फाल्के पर लोकमान्य तिलक का गहरा प्रभाव था। अपनी सरकारी नौकरी से वे खुश नहीं थे। उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसी बीच राजा रवि वर्मा के देवी-देवताओं के रंगीन चित्रों की धूम मची हुई थी। लोग भारी संख्या में चित्र खरीद रहे थे। रवि वर्मा ने अपना लिथोग्राफी प्रेस शुरू किया था। इसमें बड़ौदा के रीजेंट और दीवान सर माधवराव उनसे सहयोग कर रहे थे। 
 
राजा रवि वर्मा का प्रेस ज्वाइन किया : दादा फाल्के ने राजा रवि वर्मा का प्रेस ज्वाइन कर लिया। उन्हें फोटोलिथो ट्रांसफर तैयार करना होते थे। प्रेस की सफलता और चित्रों की मांग से प्रभावित होकर दादा के कुछ रिश्तेदारों ने उन्हें स्वयं की प्रेस भागीदारी में शुरू करने का अनुरोध किया।

फाल्के ने स्वयं का एनग्रेविंग और प्रिंटिंग वर्क्स कायम कर लिया। 1909 में छापखाने के प्रमुख और प्रमुख तकनीशियन के रूप में वे जर्मनी गए। नई मशीनों के संचालन की जानकारी हासिल की। तीन रंगों की छपाई की नई मशीन लेकर लौटे। प्रेस चल निकला। इसी समय भागीदारी से मतभेद हो गया। वे दु:खी हो गए।
 
नहीं मन लगा छापखाने में : इस बारे में उनकी पत्नी सरस्वती देवी ने लिखा है- 'उनका मन छापखाने के काम में बाद में नहीं लगा। कई गुजराती ‍परिवारों के प्रस्ताव आए कि लक्ष्मी आर्ट प्रेस छूट जाने से निराश न हो। नई पूंजी से सरस्वती प्रेस लगाएं। वह मेरा निर्माण था। मैं उस प्रेस को कोई क्षति नहीं पहुंचाना चाहता।'
 
फिल्म ही सब कुछ : सन् 1911 में 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' फिल्म देखकर दादा फाल्के रातभर बेचैन रहे। फिल्म को दूसरी, तीसरी और चौथी बार देखने पर उनके मनोसंसार में हलचल मची और भविष्य में बनाई जाने वाली ‍अपनी फिल्म की तस्वीरें दिमाग में दौड़ने लगीं। यदि भगवान कृष्ण के जीवन पर फिल्म बनाई जाएगी, तो कृष्ण का बचपन, राधा और गोपियों के प्रसंग, कालिया मर्दन, कंस वध के दृश्य परदे पर किस प्रकार प्रकट होंगे। उनकी कल्पना हवा पर सवार हो गई।
 
भारत में भी फिल्में बनाने आया विचार : दादा फाल्के ने नवयुग पत्रिका (1917-18) में अपने संस्मरण लिखे हैं जिनमें 'राजा हरिश्चंद्र' निर्माण के पूर्व (1911-12) अपनी मानसिक दशा का चित्रण किया है- अगले दो माह तक मेरी यह हालत रही कि मैं तब तक चैन से नहीं बैठ सकता था, जब तक बंबई के सिनेमाघरों में लगी सभी फिल्में नहीं देख लेता था। मैं उन सभी फिल्मों का विश्लेषण करता और सोचता कि क्या हमारे यहां भी ऐसी फिल्में बनाई जा सकती हैं।'
 
पहली फिल्म 'मटर के पौधे का विकास' : अपनी आंखों की बीमारी के दौरान उन्होंने कला के प्रदर्शन का सही तरीका खोज निकाला। उन्होंने एक मटर का दाना एक गमले में बो दिया। उसके अंकुरण और विकसित होने के रोजाना चित्र लेने लगे। जब पूरा पौधा उग आया, तो उनकी पहली फिल्म 'मटर के पौधे का विकास' बनकर आई। इस फिल्म को देखकर उनके व्यापारी‍ मित्र नाडकर्णी ने उन्हें बाजार दर पर पैसा उधार दिया और लंदन से उपकरण खरीद लाने की सलाह दी।
 
किचन बना डार्क रूम : इस उद्योग में सबसे पहले उनके सहायक बने परिवार के सदस्य। फिल्म परफोरेटर का काम सरस्वती काकी ने संभाला। इस फिल्म की पट्टी में छेद स्वयं को करना होते थे। आधे इंच की पट्टी को घुप्प अंधेरे में रखकर छेद करने का काम सरल नहीं था। रोशनी की एक किरण से पूरी फिल्म खराब हो सकती थी। एक छेद गलत होने पर फिल्म या प्रोजेक्टर में फंस सकती थी। दिन में रसोई का काम निपटाने के बाद रात को वही रसोईघर डार्क रूम में बदल जाता था।
भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' : अपने अनुभवों से दादा फाल्के समझ गए थे‍ कि पहली फिल्म के लिए भगवान कृष्ण का चुनाव करना नादानी होगी। कृष्ण के जीवन का इतना विस्तार है कि उसे दो-ढाई घंटे में समेटा नहीं जा सकता। पहले छोटे बजट, कम कलाकार, ऐसा कथानक जो सरल और सर्वज्ञात हो पर फिल्म बनाने का तय करते ही उन्हें बंबई में हिट जा रहे नाटक 'राजा हरिश्चंद्र' से प्रेरणा मिली और इस तरह भारत की पहली फिल्म बनी 'राजा हरिश्चंद्र'।
 
'राजा हरिश्चंद्र' में राजा की भूमिका के लिए अभिनेता दाबके का चयन हुआ। तारामती के रोल में पुरुष अण्णा सालुंके राजी हुए। बेटे रोहिताश्व की सांप के काटने से मृत्यु होती है, इस अंधविश्वास के चलते किसी माता-पिता ने धन के लालच के बावजूद अपना बेटा नहीं दिया। मजबूर होकर दादा को अपने बेटे भालचंद्र को उतारना पड़ा। सरस्वती काकी जरा भी अंधविश्वासी नहीं थीं।
हवा में उड़ते हनुमान : दादा फाल्के की अधिकांश फिल्मों की कथावस्तु पौराणिक गाथाएं और पात्र हैं। परिवार की विरासत के रूप में उन्हें बचपन में पुराण, उपनिषद, रामायण और महाभारत का अध्ययन कराया गया था, जो उनके फिल्मकार बनने पर बेहद प्रभा‍वी साबित हुआ। उनकी आरंभिक फिल्मों के चरित्रों का चित्रांकन इतना सशक्त और गहराई से देखने को मिलता है कि विदेशी दर्शकों ने फाल्के की अभिव्यक्ति का लोहा माना।

फिल्म 'लंकादहन' में उड़ते हुए हनुमान को देखने दर्शकों की इतनी भीड़ जमा हो जाती थी कि कई बार उन्हें दो-दो दिन ठहरकर फिल्म देखना होती थी। पहले तो सिनेमा चमत्कार और अजूबा बनकर आया और जब हनुमान हवा में उड़ने लगे तो महा-चमत्कार हो गया।

गूगल ने भी डूडल बनाकर याद किया : तमाम विप‍रीत परिस्थितियों से जूझते हुए फाल्के ने भारत को ऐसी इंडस्ट्री दी जिसके बूते पर आज करोड़ों रुपए कमाए जा रहे हैं। यही कारण है कि गूगल ने भी डूडल बनाकर दादा फाल्के को याद किया था।
ये भी पढ़ें
सिलेक्शन की बात सुनकर लगा कि मैं रोने लगूंगी : सेहर बंबा