दिल्ली में इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति स्मारक को स्थापित किया गया था। यहां एक तरह से हमने अपने युद्ध और इतिहास की स्मृति स्थापित किया था। वहां शहीदों की स्मृति की ध्वनि है, जय जवान की एक गूंज है, वहां एक पीड़ा है, एक दुख है, एक गौरव है, राष्ट्र की सुरक्षा का एक प्रतीक है। एक राइफल में टंगे हुए शहीद के हेलमेट में शहादत की आत्मा दीप्तमान है। एक भौतिक मशाल को वहां से हटाकर कहीं ओर ले जाया जा सकता है, लेकिन राष्ट्र के प्रति हुए उस बलिदान, गौरव और शहादत को कहां और कैसे शिफ्ट किया जा सकता है।
अमर जवान ज्योति। शहीदों की शहादत का एक प्रतीक चिन्ह। एक ऐसी जगह जहां भारत की शौर्य गाथा की इबारत लिखी हुई है। इस जगह एक अखंड ज्योत, एक शाश्वत रोशनी पिछले करीब 50 साल से प्रज्वलित है।
अब इस प्रज्वलित लौ की जगह बदल जाएगी। हां, जगह ही बदलेगी, बुझेगी नहीं। अमर जवान ज्योति को नेशनल वॉर मेमोरियल ले जाने के अपने फैसले के बाद सरकार लगातार इस गलतफहमी का दूर करने की कोशिश कर रही है कि ज्योति बुझेगी नहीं, उसे बस एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट किया जा रहा है। इस ज्योति को वहां विलय कर दिया जाएगा। अब फैसले का राजनीतिकरण हो चुका है।
भारत में यह समस्या रही है कि यहां हर मुद्दे का राजनीतिकरण उस विषय, विषय के महत्व को ही खा जाता है, नष्ट कर देता है। जैसा कि इस मामले में हुआ। हर कोई कह रहा है कि अमर जवान की ज्योति सरकार बुझा रही है जबकि बहस या विरोध इस बात पर किया जाना चाहिए कि इसकी तय जगह को क्यों बदला जा रहा है?
महत्व जितना अमर ज्योति का है, उतना ही उस जगह का है, जहां वो प्रज्वलित हो रही है। जाहिर है, सरकार कोई ऐसा मूर्खता वाला काम नहीं करेगी कि जिसका नाम ही अमर ज्योति है, उसे बुझाकर अपनी भद करवा ले। सरकार ने अगर कोई गलती की है तो वो है उसकी जगह में परिवर्तन करना।
दरअसल, भारत की संस्कृति में स्थान का महत्व रहा है, जिस जगह बैठकर आप पूजा करते हैं, उस जगह का महत्व है। इसीलिए उसे स्थान कहा जाता है। शहरों में तो इंटीरियर और सुविधा के लिए जहां चाहे वहां घर में मंदिर बना दिया जाता है, लेकिन आप गांवों में चले जाइए तो पता चलेगा कि वहां के कई घरों में कोई देवता, मूर्ति या प्रतिमा नहीं होती है, वे सिर्फ उस जगह को पूजते हैं। स्थान की पूजा की जाती है।
इसे एक उदाहरण के तौर पर बेहद आसान तरीके से समझा जा सकता है। गांव के किसी परिवार में दो भाइयों के बीच झगड़ा हो जाता है और वे अलग हो जाते हैं। जब तक वे साथ रहे तब तक अपने परंपरागत तरीके से चले आ रहे पूजा स्थान में बैठकर ही पूजन-हवन आदि करते हैं। लेकिन अलग होने पर देवताओं को बांटते नहीं, जिस भाई को विवाद के बाद रहने के लिए दूसरी जगह मिली या घर मिला वो दूसरा मंदिर नहीं बनाता, वो पूजा के तय दिनों में उसी स्थान पर पूजा करने या माथा टेकने जाता है।
अगर वो चाहे तो पूजा के लिए एक दूसरी प्रतिमा का निर्माण करवाकर अपने नए घर में नया मंदिर बना सकता है, लेकिन महत्व नए देवता का नहीं, पुराने स्थान का है। वो ग्रामीण अपने स्थान के महत्व को समझता है।
इसलिए भारतीय संस्कृति में जहां हम बैठकर भोजन करते हैं, उस स्थान का भी महत्व है, जहां हम ध्यान करते हैं, उस जगह का महत्व है— जिस जगह हम मरते हैं, उस जगह का भी बेहद महत्व है।
अगर यह इतना ही आसान होता तो कई लोगों को अपना पुराना घर बदलने में इतना दुख नहीं होता। लोग आसानी से अपना पुराना और जर्जर घर बेचकर, बदलकर नए और सुविधाजनक फ्लैट में जा सकते हैं, लेकिन वे अभावों और संकट में भी अपने ही घर में रहना चुनते हैं।
ऐसे में जहां स्थान को बदलने को लेकर विरोध होना चाहिए था, वहां कुछ और ही राजनीतिक तर्क दिए जा रहे हैं।
अमर जवान ज्योति की लौ तो अखंड ही है, वह एक दूसरी लौ में विलीन होकर भी जलती रहेगी, लेकिन उसे जिस जगह होना चाहिए था, अब वो वहां नहीं रहेगी। तकलीफ बस यही होनी चाहिए।
1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के मकसद से दिल्ली में इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति स्मारक को स्थापित किया गया था।
यहां एक तरह से हमने अपने शहीदों की स्मृति स्थापित किया था। वहां शहीदों की स्मृति की ध्वनि है, जय जवान की एक गूंज है, वहां एक पीड़ा है, एक दुख है, एक गौरव है, राष्ट्र की सुरक्षा का एक प्रतीक है। एक राइफल में टंगे हुए सैनिक के हेलमेट में शहादत की आत्मा जाग्रत है।
यह सबकुछ वहां से शिफ्ट नहीं किया जा सकता। भौतिक मशाल को वहां से हटाकर कहीं ओर ले जाया जा सकता है, लेकिन राष्ट्र के प्रति हुए उस बलिदान, गौरव और शहादत को कहां और कैसे शिफ्ट किया जा सकता है?