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Written By WD

मौत का नंगा नाच अभी जारी है कश्मीर में

-सुरेश एस डुग्गर

कश्मीर
मौत का नंगा नाच अभी रुका नहीं है कश्मीर में। यह इसी से स्पष्ट है कि कश्मीर में फैली हिंसा 26 सालों में 50 हजार लोगों को लील चुकी है। यह आंकड़ा आधिकारिक आंकड़ा है और गैरसरकारी आंकड़ा यह संख्या 1 लाख से अधिक बताता है।
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चाहे कुछ भी है इतना तो स्पष्ट है कि कश्मीर में मौत का तांडव अभी जारी है और इसके लिए और कोई नहीं बल्कि पाकिस्तान जिम्मेदार है जो अपनी हार का बदला लेने के लिए अप्रत्यक्ष युद्ध छेड़े हुए है भारत के विरुद्ध।

मृतकों की संख्या और तबाही पैमाना हो अगर आतंकवाद के स्तर को नापने का तो धरती के स्वर्ग कश्मीर में आतंकवाद अभी अपने पूरे यौवन पर है। यह अक्षरशः सत्य है कि कश्मीर में मृतकों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यह बात अलग है कि मौतों के समीकरणों में अंतर अवश्य आया है।

अगर सरकारी आंकड़ों को ही स्वीकार करें तो औसतन इन सालों के दौरान प्रतिदिन 7 लोगों की दर से कश्मीर में मौतें हुई हैं। इन मौतों में यह बात अलग है कि मृतकों में आतंकी कितने थे और नागरिक कितने।

इस सच को तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि मरने वाले सभी हिन्दुस्तानी थे और उनकी रगों में हिन्दुस्तानी खून था जिसे इसलिए कश्मीर में गिरना पड़ा, क्योंकि पाकिस्तान को अपनी 3 प्रत्यक्ष लड़ाइयों में हुई हार का बदला लेना था। नतीजतन आज आतंकवाद से त्रस्त कश्मीर में आपको अधिकतर बूढ़े और औरतें ही दिखेंगी, क्योंकि नवयुवक या तो आतंकियों की गोलियों का शिकार हो चुके हैं या फिर सुरक्षाबलों की गोलियों के।

कश्मीर में 26 सालों से जारी पाक समर्थक आतंकवाद फिलहाल 50,000 से अधिक लोगों को लील चुका है। ये आधिकारिक आंकड़े हैं। गैरसरकारी आंकड़े दोगुने तो नहीं लेकिन डेढ़ गुणा अवश्य हैं इससे।

अर्थात 1 लाख लोग इस आतंकवादरूपी अप्रत्यक्ष युद्ध में अपनी जान गंवा चुके हैं जिसे पाकिस्तान ने भारत के साथ होने वाली 3 जंगों में हुई अपनी हार का बदला लेने के लिए छेड़ा हुआ है।

ऐसा भी नहीं है कि कश्मीरियों को पाकिस्तान द्वारा दिखलाए गए तथाकथित आजादी के सब्जबागों से मुक्ति दिलवाने के लिए आए सुरक्षाकर्मी इन सभी से अछूते रहे हों बल्कि उन्हें भी अपनी कुर्बानी देनी पड़ी है। इतना अवश्य है कि इस सारे खून-खराबे में उनकी संख्या कम तो रही है, पर इतना अवश्य है कि कश्मीर के आतंकवाद में सुरक्षाकर्मियों की कुर्बानी की संख्या ने उनके तथाकथित अत्याचारों में वृद्धि अवश्य की है।

आधिकारिक आंकड़े ही बताते हैं कि आतंकवाद का यह 7 सालों का अरसा, जिसमें अभी भी कोई कमी आने की आस नहीं जगी है, 7,000 सुरक्षाकर्मियों की कुर्बानी ले चुका है और 15,000 हजार से अधिक घायल भी हुए हैं। इनमें से कई अपंग और कई मानसिक रूप से विक्षिप्त भी हुए हैं।

गैरसरकारी तथा आतंकी दावे के अनुसार सुरक्षाकर्मियों के हताहतों की संख्या सरकारी संख्या से 4 गुना अधिक है जिन पर आतंकियों ने डेढ़ लाख से अधिक हमले किए और उन पर होने वाली गोलीबारी की घटनाओं में से उन्होंने सिर्फ 1 लाख घटनाओं का ही उत्तर दिया था।

मौत के आंकड़ों के बावजूद, जो अपनी दर से लगातार बढ़ते जा रहे हैं, सरकार आतंकवाद में कमी आने का दावा तो करती है लेकिन उसके इस दावे का खंडन उसके द्वारा प्रस्तुत आंकड़े आप ही करते हैं।

अधिकारिक आंकड़े ही बताते हैं कि इन सालों के दौरान 25,000 आतंकी मारे गए हैं और अगर इसका औसतन निकाला जाए तो प्रतिदिन 3 आतंकवादी की दर से निकलता है।

मजेदार बात यह है कि कश्मीर में मारे गए नागरिकों का आंकड़ा भी आतंकियों के बराबर ही है। बस उनमें अंतर इतना है कि 20 हजार के लगभग को आतंकियों ने अपनी तथाकथित आजादी की जंग में ‘मुखबिर’ का ठप्पा लगाकर हत्या की तो 8,000 से अधिक सुरक्षा बलों की गोलियों से उस समय मारे गए जब कानून तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए सुरक्षाकर्मियों ने बल प्रयोग किया या फिर वे मासूम नागरिक आतंकियों के साथ होने वाली मुठभेड़ों में जा फंसे।

आतंकवाद के स्तर को नापने में आगजनी तथा रॉकेट हमलों की घटनाओं के अतिरिक्त अपहरण के मामले भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आगजनी की 15,000 घटनाओं में आतंकियों द्वारा तबाह की गई इमारतों, स्कूलों आदि की संख्या शामिल नहीं हैं, जो 20 हजार के आंकड़े के कब का पार कर चुके हैं। इन 7 सालों के दौरान अपने 1,750 रॉकेट हमलों से वे लोगों में दहशत फैलाने में कामयाब रहे हैं।

मगर इतना अवश्य है कि रॉकेट हमलों के साथ-साथ आतंकियों ने लोगों में भय, आतंक की लहर फैलाने के लिए जिन हथियारों का प्रयोग किया उसमें अपहरण का हथियार बहुत खतरनाक माना जाता रहा है। अपने इस हथियार का प्रयोग करके उन्होंने कई हजार लोगों को अपनी कैद में रखा।

आधिकारिक आंकड़ा तो 7,500 का है, मगर सरकार आप ही स्वीकार करती है कि हजारों अन्य मामले पुलिस तथा सुरक्षाबलों की नजर में नहीं आ पाए हैं जिनमें कई तो खुशकिस्मत थे, जो फिरौती देकर छूट गए और जो बदकिस्मत थे वे फिरौती की रकम न दे पाए और गुमनाम मौत का शिकार हो गए।