चाहे साहित्य हो या फिल्म। बरसात का मौसम बरसों से अपनी जगह कायम है। भीगा-भीगा समां। छम-छम बरसती बूंदें। सावनी लहरिया पहने प्रकृति, नायक-नायिका की निकटता। भला कवि की कलम कैसे सूखी रह जाती? मासूम फुहारें हो या बेखौफ बरसातें, कलम जी भर कर तरबतर हुई है। इधर फिल्मी बरसातों ने बड़ी तेजी से रंग बदला है। पहले नायक बड़ी शालीनता से छेड़छाड़ करता था - 'एक लड़की भीगी-भागी सी, सोती रातों में जागी-सी...'। नायिका कुछ इतराती, बलखाती दूर ही से साड़ी निचोड़ती थी।
बाद में नायक दम ठोंक कर पुकारता रहा है 'मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भीगे कमला खड़ी-खड़ी...' और कहने भर की देर है कि 'कमला' (अपनी नायिका) मौजूद छतरी के नीचे।... बस, फिर शुरू 'रेन इज फालिंग छमा-छम-छम! सनी का पानी वाला डांस तक आते आते तो हीरोइन हाथ से निकल गई....साथ भीगने में उसे अब कोई गुरेज नहीं...
फिल्मों में जिस बारिश को देखकर दर्शक भीगता है उसे फिल्माने में निर्माता-निर्देशक पसीने में नहा जाते हैं। बार-बार रीटेक, रिहर्सल, और रीशूटिंग। इस अनवरत 'प्रायोजित' बरखा में भीगकर हीरो-हीरोइन के आँख-नाक बहने लगते हैं और वे कई बार निमोनिया के शिकार हो बिस्तर पकड़ लेते हैं। इतना होने पर भी कोई शर्म से पानी-पानी नहीं होता। लिहाजा बरसातें हो रही हैं। हीरो-हीरोइन भीगते रहे हैं। भीगते रहेंगे। उनकी आंखों का पानी मरता रहेगा।
बहरहाल, फिल्मों में पहली बार मानसून मेहरबान हुआ फिल्म 'बरसात' (1949) में। उन दिनों राजकपूर की 'आग' फिल्म बिना पानी के बुझ गई थी लेकिन 'बरसात' ने पर्दे पर जमकर आग चेताई। फिल्म का नाम था 'बरसात'। सो, बरसते दृश्य/गाने तो होने ही थे। इस फिल्म का शीर्षक गीत 'बरसात में हमसे मिले तुम सजन' कई दिनों तक शूट होता रहा।
तेज फुहारें और तूफानी हवाएं बड़े-बड़े पंखों से चलाई गई थीं। परिणाम, नरगिस को निमोनिया हो गया। बारिश और राजकपूर का प्रेम बढ़ता गया। फिल्म 'श्री 420' में उन्होंने नायिका नरगिस के सिर पर छाता लगाकर बड़ी भावुकता से गाया - 'प्यार हुआ इकरार हुआ है...' बाद में कई फिल्मों में उनके भीगे निर्देशन में हीरोइनें नहाती रहीं।
'सत्यम् शिवम्, सुंदरम्' में बाढ़ का दृश्य फिल्माने के लिए करोड़ों गैलन पानी और 18 लाख रुपए खर्च किए गए थे। फिल्म 'बरसात' के आसपास बनी 'बरसात की एक रात' बेहद मोहक फिल्म थी। इस फिल्म में सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट का गाया गीत 'गरजत बरसत सावन आयो रे' (गौड़ मल्हार राग) आज भी मन में मीठी फुहारें बरसाता है।
पचास से साठ के दशक में हीरोइनों पर फिल्मी बादल बरसने तो लगे किंतु अश्लीलता के आरोपों की बौछारों से वे हमेशा बची रहीं। कारण, बरखा के दृश्यों का शालीन फिल्मांकन। नायिकों ने पर्दे पर भीगकर दिलों को सुलगाया भी और अपनी छबि पर छींटे भी नहीं पड़ने दिए।
उन दिनों सौंदर्य और अभिनय इतना प्रभावशाली था कि उन्हें देह से वस्त्र त्यागने की प्रतिस्पर्धा नहीं करना होती थी। मधुबाला की मधुरता, नरगिस की नफासत, मीनाकुमारी की मोहकता, वहीदा की मासूमियत, साधना की सादगी, सायरा की नजाकत, गीताबाली की चंचलता और वैजयंतीमाला, नूतन, सुरैया की खूबसूरती, यह सब काफी थे दर्शकों को दीवाना बनाने के लिए।
सत्तर के दशक में हीरोइनों को अपने बरसाती तेवर बदलने पड़े। यह दौर था - शर्मिला, आशा पारेख, जीनत अमान, रेखा, परवीन बॉबी, रीना रॉय जैसी बिंदास बालाओं का मिलाजुला। इस दौर में सिर्फ अभिनय और सौंदर्य पर्याप्त नहीं थे। दर्शकों की भीड़ खींचने के लिए इससे भी आगे के दृश्यों की दरकार थी। बारिश ने बड़ा सहारा दिया। बरसाती नामों, गानों और दृश्यों ने टिकट खिड़कियों पर मूसलधार पैसे बरसाए।
फिल्म 'आया सावन झूम के' शीर्षक गीत को फिल्म के लिए चांदीवली स्टूडियो में फायर ब्रिगेड के इंजनों पर नकली बारिश की गई। इसे फिल्माने में पूरे सात दिन और चालीस इंजन पानी लगा। स्टूडियो में चारों तरफ कीचड़ हो गया। यूनिट के लोग गिर पड़े और भीगने के कारण हीरोइन आशा पारेख समेत सब सर्दी-बुखार से परेशान हो गए लेकिन शूटिंग नहीं रुकी।
उधर फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान में जीनत अमान ने 'मजबूरी में' नायक को पानी पी-पीकर कोसा। आखिर दो टके की नौकरी के बदले लाखों का सावन जो बेकार जा रहा था। इस दौर की अधिकांश फिल्मों में सावन बरसा और जमकर बरसा.. कभी मिलन की रोमांटिक खुशी में तो कभी गम और जुदाई की भीगी भावनाओं में।
जीतेंद्र, मनोज कुमार, राजेश खन्ना जैसे हीरो ने इस बरखा का भरपूर आनंद लिया। अस्सी-नब्बे का दशक बरसात के बचे-खुचे माधुर्य को बहा ले गया। याद कीजिए नमक हलाल। 'आज रपट जाएँ तो हमें ना उठइयो' जैसे गाने ने दृश्यों में स्वच्छन्दता परोसी ही, हल्की शब्दावली का प्रचलन भी शुरू कर दिया। आनंद बक्षी/गुलजार/जावेद/ निदा जैसे गीतकारों ने अपनी कलम से उम्दा 'पानीदार' बोल ही बरसाए हैं।
और आगे चलें, तो मि. इंडिया/चांदनी/लम्हे इन फिल्मों में श्रीदेवी बड़ा मन लगाकर भीगी। मि. इंडिया के बारिश गीत 'काटे नहीं कटते.. ' के लिए बोनी कपूर ने फायर ब्रिगेड का बदबूदार, मटमैला पानी नहीं मंगवाया था बल्कि विशेष रूप से साफ, गुनगुने पानी के टैंकर में कई शीशियां यूडीकोलोन की उड़ेली गई थीं। न सर्दी-जुकाम का झंझट और न बदबू के नखरे।
'चांदनी' का बारिश दृश्य/ गीत - ' 'लगी आज सावन की' और 'लम्हे' का 'मेरा मन तरसा रे पानी क्यों बरसा रे' ने श्रीदेवी को हॉट सीट पर पहुँचा दिया। करिश्मा/तब्बू/रवीना//ऐश्वर्या/रानी/शिल्पा/काजोल/ के बाद करीना/कैटरीना/बिपाशा/ दीपिका/..और अब आलिया,श्रद्धा,विद्या,नरगिस फखरी, अनुष्का, कंगना से लेकर सनी लियोन तक। सब की सब भीग-भीगकर पर्दे के बाहर 'आग' लगाने की नाकाम कोशिश कर रही हैं। इस कोशिश ने फिल्मों की सारी कलात्मकता, मधुरता और भावप्रवणता पर पानी फेर दिया है।
सच को नकारा नहीं जा सकता कि आज की फिल्मी बरखा में शालीनता बह गई है। अभिनय बह गया है, मूल्य बह रहे हैं। और भी बहुत कुछ बहा जा रहा है। धुल रहा है, पुंछ रहा है। किसे फुरसत है सहेजने की? आप यह भीगा हुआ दोहा संभालें -
बरखा सबको दान दे, जिसकी जितनी प्यास
मोती-सी ये सीप में, माटी में ये घास।