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जिसने अतीक का आतंक देखा, वो कल्‍पना भी नहीं कर सकता कि उसे सजा भी होगी

जिसने अतीक का आतंक देखा, वो कल्‍पना भी नहीं कर सकता कि उसे सजा भी होगी - The one who saw the terror of Atiq, cannot even imagine that he will be punished.
कई बार हमारे सामने जो कुछ घटित होता है उसके महत्व को नहीं समझ पाते। बड़ी- बड़ी घटनाएं भी हमें सामान्य लगती है। अतीक अहमद को प्रयागराज के सांसद विधायक न्यायालय द्वारा दी गई उम्र कैद की सजा आज सामान्य लग सकता है। उसने अपराध किया और उसकी सजा हुई।

जिन्होंने 80 और 90 के दशक के उत्तर प्रदेश में अतीक और उसके पूरे गैंग या जुड़े हुए लोगों के कारनामे देखे हैं, उनके लिए यह कल्पना करना भी कठिन था कि उसके विरुद्ध पुलिस की कोई बड़ी कार्रवाई हो सकती है। जिस व्यक्ति के विरुद्ध थाने में प्राथमिकी लिखवाने का अर्थ अपने साथ परिवार और रिश्तेदारों के नष्ट हो जाने का खतरा मोल लेना था उसकी ऐसी दशा होगी इसकी कल्पना की भी नहीं जा सकती थी।

जो मामले पुलिस नहीं सुलझा सकती थी वह भी अतीक के पास जाता था। उसके पास दूसरे को अपने अनुसार बोलने, काम करने को विवश करने के लिए पूरी प्रणाली थी। फोन पर आदेश देकर बुलाना, न आने पर उठा लेना, टॉर्चर करना, मनमाने तरीके से जहां चाहो हस्ताक्षर करवाना और जो चाहो बुलवा लेना अतीक अहमद के तंत्र का सामान्य क्रियाकलाप था। अतीक को साबरमती जेल से प्रयागराज लाने या बुलडोजर की कार्रवाई उसे वापस ले जाने सहित अन्य घटनाक्रमों पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं देख लीजिए। इस पर एक ही प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी कि दुर्दांत अपराधी, जिसने पूरे प्रदेश की सत्ता तक को उंगलियों पर रखा उसके और उससे जुड़े लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए। इसकी जगह आपको इतने किंतु परंतु मिलेंगे , संविधान कानून का हवाला दिया जाएगा कि ऐसा लगता है मानो अतीक और उसके लोगों के साथ उपयुक्त व्यवहार नहीं हो रहा और योगी आदित्यनाथ की सरकार ही अन्यायी और अपराधी है।

इसका पहला निष्कर्ष तो यही है कि प्रदेश में यदि योगी सरकार नहीं होती तो अतीक को सजा दिलाना या बुलडोजर से संपत्तियों को ध्वस्त करना तो छोड़िए इतने लंबे समय तक जेल में रखना संभव नहीं होता। सपा के नेता- प्रवक्ता चाहे जितने गुस्से का प्रदर्शन करें सच यही है अतीक अहमद अपने जीवन का 21 वर्ष उसी पार्टी में रहा और सामान्य सदस्य के रूप में नहीं। उसे पांच बार विधायक एवं एक बार सांसद समाजवादी पार्टी ने ही बनाया। क्या सपा के नेतृत्व को अतीक के आपराधिक साम्राज्य का पता नहीं था? सब कुछ जानते हुए उसे विधानसभा और लोकसभा में लाकर आम लोगों का नियति निर्धारक बनाना क्या साबित करता है?

ध्यान रखिए, उसके विरुद्ध पहला मुकदमा 1979 में दर्ज हुआ । इस तरह उसे सजा तक लाने में 44 वर्ष लगे हैं। उस पर 100 मुकदमे दर्ज होने के आंकड़े हैं। इस समय करीब 50 मामले न्यायालय में चल रहे हैं। इनमें हर प्रकार के जघन्य अपराध शामिल हैं। जो पुलिस प्रशासन अतीक के विरुद्ध आक्रामक होकर कानूनी सीमाओं में इस स्तर की कार्रवाई कर रहा है वही पहले उसके सामने नतमस्तक क्यों था? जो लोग भी भय और भ्रष्टाचार से मुक्त राज व्यवस्था व समाज की कामना करते हैं उन्हें राजनीतिक विचारधारा या समर्थन विरोध से परे हटकर इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहिए। जिन लोगों ने साहस करके मुकदमा दर्ज किया उनकी दशा क्या हुई इसकी छानबीन करेंगे तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे। जिस उमेश पाल अपहरण कांड में अतीक को उम्रकैद की सजा हुई उसमें उसके वकील खान सौलत हनीफ को भी उम्र कैद मिली है। ऐसे मामले विरले होते हैं जिसमें मुख्य आरोपी के साथ उसका वकील भी उतना ही बड़ा अपराधी साबित हुआ हो।

उमेश पाल का अपहरण कर लाया गया तो वह पूरे कागजात तैयार करके रखा था जिस पर उसे हस्ताक्षर करना था और यही बयान उसे पुलिस और न्यायालय के समक्ष देना था। ध्यान रखिए, तब सपा का कार्यकाल था और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। उमेशपाल ने अतीक के पक्ष में बयान दिया। कल्पना करिए, जिस उमेशपाल ने मित्र राजूपाल की हत्या की कानूनी लड़ाई का संकल्प किया और उसी में उसकी जान भी गई उसने किन परिस्थितियों में अतीक के पक्ष में गवाही दी होगी! जब मायावती 2007 में मुख्यमंत्री बनी तभी उसके विरुद्ध कार्रवाई नए सिरे से आरंभ हुई। उमेश पाल ने प्राथमिकी दर्ज कराई तथा विरुद्ध बयान दिया। हालांकि मायावती भी अपने शासनकाल में अतीक के विरुद्ध कानूनी प्रक्रिया को मुकाम तक नहीं ले जा सकीं क्योंकि उनके विधायकों और मंत्रियों में भी उससे संपर्क- संबंध रखने वाले थे और जिनका स्वयं भ्रष्टाचार और अपराध का अतीत था।

उनके बाद अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार में तो कोई उसे स्पर्श करने की सोच भी नहीं सकता था। उस दौरान उसके विरुद्ध मायावती शासन काल में मुकदमा दर्ज करने वालों की हालत क्या रही होगी इसकी कल्पना भी आसानी से की जा सकती है। वह केवल 1999 से 2003 तक अपना दल में रहा। 2004 में सपा ने ही उसे पंडित जवाहरलाल नेहरू के क्षेत्र फूलपुर से उम्मीदवार बनाकर लोकसभा भेज दिया। यह समय केंद्र में यूपीए सरकार का कार्यकाल था। प्रदेश में 3 वर्ष तक मुलायम सिंह यादव की सरकार रहेगी। 2014 में भी अगर नरेंद्र मोदी की लहर नहीं होती तो अतिक्रमण लोकसभा पहुंच जाता।

चाहे कोई कितना बड़ा अपराधी बाहुबली माफिया हो अगर वह माननीय बन गया तो विशेषाधिकार हो जाते हैं और सामान्यतः पुलिस प्रशासन उसके विरुद्ध मुकदमे लेने, कार्रवाई करने से तब तक बचता है जब तक राजनीतिक नेतृत्व प्रत्यक्ष परोक्ष हरी झंडी नहीं दे देता।

योगी आदित्यनाथ सरकार में भी आरंभ में उसके विरुद्ध कार्रवाई की गति अत्यंत धीमी रही। लंबे समय तक प्रदेश में ऐसे अपराधियों माफियाओं और अंडरवर्ल्ड के लिए हर स्तर का इंफ्रास्ट्रक्चर यानी आधारभूत संरचना सशक्त हो गया। इन सबको तलाश कर ध्वस्त करना आसान नहीं है। सरकार के समक्ष समस्या कानून और उसकी प्रक्रियाओं के पालन करते हुए कार्रवाई की होती है जबकि माफियाओं और अपराधियों के समक्ष अपनी तथा तंत्र की रक्षा करने -छिपाने के लिए कोई बाध्यता नहीं।

बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने इतने बड़े माफिया को इस स्थिति में ला दिया कि केवल आदेश पर हत्या और अपहरण कराने वाले की पत्नी और बच्चे को भी स्वयं हत्या करने के लिए सामने आना पड़ा। उनके सामने अब बचने का कोई चारा नहीं है। यानी पूरे परिवार के कानूनी रूप से खत्म होने की आधारभूमि। विधानसभा में जब मुख्यमंत्री ने इस माफिया को मिट्टी में मिला देंगे की घोषणा की उसी समय अतीक और उसके साम्राज्य के अंत का संकेत मिल गया।

लोग प्रश्न उठा रहे हैं कि आखिर सड़क से उसे इतनी दूर प्रयागराज लाने की आवश्यकता क्या थी? निस्संदेह, उसे हवाई जहाज या रेल से भी लाया जा सकता था। सड़क से लाने की घोषणा के साथ ही देश भर में चर्चा होने लगी कि या तो गाड़ी पलटेगी या उसको मुठभेड़ में मार दिया जाएगा। यह भय पूरे रास्ते आने और लौटने तक अतीक के अंतर्मन में रहा होगा, उसके परिवार और रिश्तेदार एवं समर्थक भी हर क्षण इसी चिंता में डूबे रहे होंगे कि पता नहीं कब उसका अंत कर दिया जाए। यह कानूनी भी सही है और इससे अपराध करने वाले के अंदर यह एहसास हुआ होगा कि अगर उसने न किया होता तो ऐसी स्थिति नहीं होती। इससे दूसरे अपराधियों -आतंकवादियों -माफियाओं के अंदर भी संदेश गया होगा कि तुम्हारी भी दुर्दशा ऐसी ही होगी। अपराध उन्मूलन या नियंत्रण के क्षेत्र में डेटरेंट यानी भय निवारक शब्द का प्रयोग होता है।

इसका अर्थ है कि ऐसी कार्रवाई करें जिसे देखकर भय से दूसरे अपराधी अपराध करना छोड़ दें और नए अपराधी तैयार नहीं हो हो। उम्मीद करनी चाहिए साबरमती जेल से नैनी जेल लाने और  यहां से ले जाने के प्रसंग का ऐसा ही असर हुआ होगा। न जाने ऐसे लोगों के कितनी संख्या होगी जिन्हें अतीक के कारण परिवार, रिश्तेदार, दोस्त की जान गंवानी पड़ी होगी, संपत्तियां छोड़नी पड़ी होगी या भय से पलायन कर चुप कर रहना पड़ा होगा। इन सबके साथ सही न्याय की शुरुआत हो गई है। इसमें बिना लाग लपेट  कहा जा सकता है कि उमेशपाल हत्याकांड की कानूनी परिणति भी वही होगी जो होनी चाहिए।

नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।
Edited: By Navin Rangiyal
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