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वेंटिलेटर पर रिफिल

वेंटिलेटर पर रिफिल - Refill on ventilator
Refill on ventilator: मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ'। कबीर दास की ये लाइनें इस बात का प्रमाण कलम, स्याही और कागज का रिश्ता अटूट रहा है। पर कलम से स्याही का रिश्ता तो दशकों से टूट गया। अब वो कलमें (फाउंटेन पेन) कालातीत हो गईं जिनमें ड्रॉपर से चेलपार्क या केमलिन की इंक (स्याही) भरी जाती थी। बाल पेन ने आम आदमी के निब वाली इस पेन को आउटडेटेड कर दिया। अलबत्ता रोलर इंक वाली कुछ मंहगी कलमें चंद बड़े लोगों की जेब में स्टेटस सिंबल के रूप में शोभा बढ़ा रही हैं।
 
मैं पेन फेंकता नहीं। इसीलिए मेरे पास किस्म किस्म की पेनें हैं। गोरखपुर में पत्रकारिता के दौरान रिफिल खत्म होने पर एक साथ सबमें रिफिल डलवा लेता था। कुछ महीनों तक लिखने पढ़ने का काम चल जाता था। तब लिखना भी अधिक होता था। कंप्यूटर आने के बाद लिखना कम हो गया। मोबाइल के प्रचलन से और भी कम।
 
आठ साल पहले लखनऊ आया। कुछ महीने पहले तीन चार ऐसी कलमें लेकर निकला जिनकी रिफिल खत्म हो गई थी। नरही में एक स्टेशनरी की दुकान पर कुछ मिलीं। कुछ नहीं। मेरे चेहरे पर शिकायती भाव देख दुकानदार ने कहा भी। अब कौन रिफिल भरवाता है? 10 रूपए की कलम और 5 रुपए की रिफिल के लिए स्टेशनरी की दुकान तलाशिए। फिर रिफिल भरवाइए। इससे अच्छा है, हर गुमटी पर टंगी 10 रूपए की पेन लीजिए और चलता बनिए। वैसे भी कंप्यूटर और लैपटॉप के युग में रिफिल खत्म ही कितनी होती। हां, इस पेन की रिफिल आप हजरतगंज में यूनिवर्सल के यहां देख लीजिएगा। शायद मिल जाए। मुझे वहां मिल भी गई, पर सोचने को भी मजबूर कर गई। लगा कि कलम को चलाने वाली रिफिल तो वेंटिलेटर पर है। कुछ कंपनियों ने तो जमाने के चलन के यूज एंड थ्रो के अनुसार रिफिल भरवाने का विकल्प ही खत्म कर दिया है।
 
तमाम चीजें दिमाग में घूम गईं। मसलन कभी कलम दवात, दुद्धी, नरकट की कलम और स्याही, अंग्रेजी के लिए जी पेन और स्याही, इनकी तमाम किस्में, बाल पेन की यात्रा, बाजार में रेनाल्ड का जलवा। सब याद आ गया। अब तो इस क्षेत्र में देशी ही नहीं विदेशी खिलाड़ी भी खेल रहे हैं। साथ ही जो कलम कभी हाथ से छूट कर गिरने पर हम उसे सर लगाकर विद्या माई की कसम खाते थे, वह कहीं भी सड़क, गली, कूड़े पर गिरी दिख जाती हैं। मानो हमसे पूछ रही है, 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान'।