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Written By डॉ. नीलम महेंद्र
Last Modified: गुरुवार, 2 मार्च 2017 (15:33 IST)

यह कैसी पढ़ाई है और ये कौन से छात्र हैं?

यह कैसी पढ़ाई है और ये कौन से छात्र हैं? - JNU, Ramjas college,
9 फरवरी 2016 में जेएनयू के बाद एक बार फिर 21 फरवरी 2017 को डीयू में होने वाली घटना ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्यों हमारे छात्र संगठन राजनीतिक मोहरे बनकर रह गए हैं और इसीलिए आज एक-दूसरे के साथ नहीं, बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ हैं। इन छात्र संगठनों का यह संघर्ष छात्रों के लिए है या फिर राजनीति के लिए?
इनकी यह लड़ाई शिक्षा, नौकरी, बेरोजगारी या फिर बेहतर भविष्य इनमें से किसके लिए है? इनका विरोध किसके प्रति है भ्रष्टाचार भाई-भतीजावाद या फिर गुंडागर्दी के? इनका यह आंदोलन किसके हित में है उनके खुद के या फिर देश के? अफसोस तो यह है कि छात्रों का संघर्ष ऊपर लिखे गए किसी भी मुद्दे के लिए नहीं है। 
 
सवाल कॉलेज प्रशासन से भी है कि उमर खालिद अतिथि वक्ता के तौर पर रामजस कॉलेज को उपयुक्त क्यों दिखाई दिया, जो कि स्वयं एक छात्र है? उसका आदिवासियों पर किया गया शोध अंतरराष्ट्रीय दर्जे का था या फिर अफजल और बुरहान वानी जैसे आतंकवादियों से उसकी हमदर्दी उसकी योग्यता बन गई?
 
और जब कुछ छात्रों के विरोध के फलस्वरूप 'विरोध की संस्कृति' विषय पर आयोजित इस सेमिनार में वक्ता के तौर पर उसका आमंत्रण निरस्त किया जाता है तो वामपंथी छात्र संगठन द्वारा इस 'विरोध' के विरोध में बस्तर और कश्मीर की आजादी के नारे क्यों लगाए जाते हैं? यह कैसी पढ़ाई है और ये कौन से छात्र हैं? जब एबीवीपी इन नारों का विरोध करता है तो बात अभिव्यक्ति की आजादी और राष्ट्रवाद पर कैसे आ जाती है? अभिव्यक्ति की यह कैसी आजादी है जिससे देश की अखंडता ही खतरे में पड़ जाए? क्यों हमारे कॉलेज के कैम्पस पढ़ाई से ज्यादा राजनीति के अड्डे बन चुके हैं?
 
देश की राजधानी दिल्ली का रामजस कॉलेज 1917 में अपनी स्थापना के साथ इस वर्ष अपने 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है। दिल्ली यूनिवर्सिटी देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी है जिसमें एडमिशन मिलना ही अपने आप में एक उपलब्धि मानी जाती है। वहां पर हमारे छात्रों को वैचारिक और सांस्कृतिक खुलेपन के नाम पर क्या परोसा जा रहा है? बड़े ही भोलेपन से कुछ लोग यह सवाल कर रहे हैं कि इस सेमिनार में आमंत्रित सदस्यों को सुनने से क्या हो जाता? तो इसका जवाब इन वक्ताओं के अतीत में है। 
 
उमर खालिद का इतिहास तो पूरा देश जानता है। शहेला राशिद एक कश्मीरी होने के साथ ही एआईएसए की वाइस प्रेसीडेंट हैं। जिस संगठन से वे जुड़ी हैं, जाहिर है वे छात्रों के आगे उस विचारधारा को ही परोसतीं। माया कृष्णराव थिएटर कलाकार हैं, जो नाटक एवं अन्य कलाओं से छात्रों को 'विरोध' के तरीके सिखातीं। सृष्टि श्रीवास्तव, जो कि 'पिंजरा तोड़ अभियान' चलाती हैं, वो महिलाओं को 'पितृसत्तामक संस्कृति' का विरोध करना बतातीं कि आखिर क्यों लड़कियों के लिए रात 8 बजे के बाद बाहर निकलना मना है लेकिन लड़कों के लिए नहीं। प्रद्युमन जयराम, जो कि लंदन में पीएचडी कर रहे हैं, वो सोशल मीडिया पर विरोध के तरीके, उसके फायदे और उससे होने वाले नुकसान के बारे में बताते। विक्रमादित्य सहाय ट्रांसजेंडर लोगों को समाज में मिलने वाले विरोध का विरोध करते। इन लोगों को सुनकर हमारे छात्रों का क्या भला हो जाता?
 
वैसे तो सेमिनार का विषय भी अपने आप में बहुत कुछ कहता कि किसी सकारात्मक विषय के बजाए विरोध जैसे विषय को बच्चों के आगे रखकर देश के वातावरण में नकारात्मकता नहीं फैलाई जा रही?
 
हमारे देश ने हाल ही में अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं, जैसे इसरो ने एकसाथ 104 सैटेलाइट लांच की थी या फिर 2016 के ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते अथवा भारत के योग को विश्वभर में जो मान्यता मिली है। इसके अलावा भारत के युवाओं को उद्यमी कैसे बनाएं, जैसे अनेक विषय वाद-विवाद के लिए हो सकते थे। लेकिन कल्चरल स्टडीज के नाम पर अपनी सोच, अपनी संस्कृति, अपने 'पिंजरे' से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करने के बहाने हमारे देश के युवाओं को एक विशेष संस्कृति का मीठा जहर बहुत ही चालाकी से परोसा जा रहा है। 
छात्र तो मोहरा भर हैं, असली राजनीति तो वे समझ ही नहीं पा रहे। 
 
शायद इसीलिए 27 फरवरी को रामजस कॉलेज के प्रिंसीपल राजेन्द्र प्रसाद छात्रों के बीच खुद पर्चे बांट रहे थे जिसमें उन्होंने साफतौर पर लिखा कि देशभक्ति की हवा तले शिक्षा को खत्म न होने दें। वे सियासी औजार बनकर न रह जाएं और उस राजनीति को स्वीकार न करें, जो उनकी पढ़ाई के ही खिलाफ है। विरोध तर्कों का हो, विचारों का हो, लेकिन एक-दूसरे का तो कतई न हो।
 
तो 'विरोध की संस्कृति' सीखने से पहले 'विरोध की राजनीति' को समझना आवश्यक है और हम सभी के लिए यह भी समझना जरूरी है कि सुखद परिणाम और खुशहाली के रास्ते एक- दूसरे से सहमति और समझौतों की संस्कृति से निकलते हैं, न कि विरोध से और आजादी का मतलब बेलगाम होना कतई नहीं होता।
 
दुनिया का हर आजाद देश अपने संविधान एवं अपने कानून व्यवस्था के बंधन में ही सुरक्षित होता है। आजादी तो देश के हर नागरिक को हासिल है। अगर आप आजाद हैं अपनी अभिव्यक्ति के लिए तो दूसरा भी आजाद है आपका प्रतिकार करने के लिए। वह भी कह सकता है कि आप उनके विरोध का विरोध करके उसकी आजादी में दखल दे रहे हैं। तो फिर इसका अंत कहां है?
 
इसलिए अधिकारों एवं आजादी की भी सीमाएं होती हैं। एक लक्ष्मण रेखा हर जगह आवश्यक है आजादी की भी सुरक्षा के लिए। 
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