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Last Modified: रविवार, 26 नवंबर 2017 (21:02 IST)

अंतरराष्ट्रीय निवेश जगत में भारत की साख में सम्मानजनक वृद्धि

अंतरराष्ट्रीय निवेश जगत में भारत की साख में सम्मानजनक वृद्धि - Investment India
अर्थशास्त्रियों की दुनिया बहुत अजब गजब की है। यहां तथ्यों को अपने उद्देश्य के अनुसार प्रस्तुत किया जा सकता है और उनकी व्याख्या भी अपनी सुविधा के अनुसार की जा सकती है और गत वर्षों में हमने ऐसा होते देखा भी है। अर्थशास्त्र, विज्ञान की तरह वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) नहीं होता। तथ्य वही रहते हैं किंतु प्रस्तुति और व्याख्या भिन्न हो सकती है। ऐसा नहीं होता कि मंदी की दशा में अर्थव्यवस्था में रॉकेट की तरह आग लगाई, पलायन गति से उसे अंतरिक्ष में उड़ाया और अगली कक्षा में स्थापित कर दिया। रॉकेट, विज्ञान के नियत नियमों का अनुसरण करता है, किंतु अर्थव्यवस्था अपने नियम खुद बनाती है। डॉक्टर के किसी निश्चित नुस्खे की की तरह भी  बीमार अर्थव्यवस्था का इलाज संभव नहीं होता। नियम और नुस्खे के अभाव में राजनेताओं की दूरदृष्टि ही अर्थव्यवस्था को दिशा देती है। जोखिम भी होती है कभी वे सफल हो जाते हैं तो कभी असफल। 
 
जापान में जब शिंज़ो आबे प्रधानमंत्री बने तो जापान की अर्थव्यवस्था दो दशकों से मंदी में पड़ी थी। उन्होंने इस अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने के लिए तीन महत्वपूर्ण क़दमों की घोषणा की। नई मुद्रा की छपाई ताकि जापानी मुद्रा की अंतरराष्ट्रीय मूल्य में गिरावट हो जिससे जापानी कंपनियों को निर्यात में सुविधा हो। आधारभूत सुविधाओं में सरकारी खर्च को बढ़ाना ताकि बाजार में थोड़ा धन का प्रवाह हो जिससे बाजार में मुद्रास्फीति बढ़े।
 
परिणामस्वरूप महंगाई बढ़े और मंदी में पड़ी अर्थव्यवस्था में सुधार हो। तीसरा कदम था जापान की कंपनियों को अधिक दक्ष बनाना ताकि निर्यात के क्षेत्र में वे चीन तथा अन्य देशों की कंपनियों के साथ स्पर्धा कर सकें। मीडिया ने अबे के इस इकनॉमिक्स का नाम दिया अबेनॉमिक्स। इसी तर्ज पर जब मोदीजी प्रधानमंत्री बने थे तब से नमोनॉमिक्स या मोदीनॉमिक्स की चर्चा आरम्भ हो गई है। प्रारम्भ हुआ था उनके गुजरात मॉडल से किंतु मोदी सरकार के कुछ साहसिक आर्थिक निर्णयों जैसे नोटबंदी और जीएसटी ने अब मोदीनॉमिक्स को विश्वस्तर पर बहस का बड़ा विषय बना दिया है। 
 
मोदीनॉमिक्स की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां रहीं। पहली थी व्यापार करने की सुगमता की रेटिंग में भारत ने पहली बार प्रथम 100 देशों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाया। सन् 2016 में 130 नंबर पर था जो इस बार 100वें नम्बर पर है। दूसरा था अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था मूडी द्वारा भारत की साख की रेटिंग में सुधार। जाहिर है अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने सरकार द्वारा लिए जा रहे आर्थिक निर्णयों की सराहना ही नहीं की उन्हें मान्यता भी दी है। स्टॉक एक्सचेंज में शेयर सूचकांक में निरंतर इजाफा भारत की ठोस अर्थव्यवस्था की पुष्टि भी करता है। 2012 में 20000 के अंक पर बैठा सूचकांक आज 34000 के आंकड़े को छू रहा है।  यद्यपि विपक्ष ने सरकार के इन क़दमों की तीखी आलोचना की थी। विपक्ष के सरकार पर मुख्यतः दो आरोप है। उनके अनुसार  नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के खराब क्रियान्वयन से आर्थिक गतिविधियां ठप्प हुई और बेरोज़गारी बढ़ी। कुछ हद तक ये आरोप सही भी हैं। 
 
अब यदि इन आरोपों में दम है तो फिर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के मत भिन्न क्यों हैं? इन संस्थाओं का मानना है कि ये कठिनाइयां कुछ समय की हैं और लंबी अवधि के लिए ये निर्णय देश के विकास में लाभकारी रहेंगे। उक्त वर्णित दो मान्यतों के मिलने के बाद निश्चित रूप से सरकार ने राहत की सांस ली होगी। इस समय सरकार के सामने बड़ी चुनौती है रोजगार के अवसर बढ़ाने की किंतु रोजगार बढ़ाना बिना निवेश के संभव नहीं होता है।
 
सरकार अपने खजाने पर भार डालकर युवाओं को नौकरी पर नहीं रख सकती। मोदीजी की महत्वाकांक्षी योजना ‘मेक इन इंडिया’का उद्देश्य नौकरियों के अवसर पैदा करना है, जिसके लिए विदेशी निवेश की दरकार है।  विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए महत्वपूर्ण है देश की साख और व्यापार में सुगमता। जिस देश में व्यापार की सुगमता हो और साख भी अच्छी हो उस देश में निवेश तो आना ही है, इसलिए भारत का व्यापार सुगमता की सूची में छलांग लगाना और साख में अपनी रेटिंग बढ़ना आज के समय की मांग थी जो बहुत ही सही समय पर एक वरदान बनकर आई है।  
 
व्यवस्था यदि दूषित हो, तंत्र भ्रष्ट हो तो कौन निवेश करेगा? भारत को यदि विश्व के विकसित देशों के साथ खड़ा होना है तो हमारा मानना है कि अर्थव्यवस्था को परिष्कृत तो करना ही पड़ेगा, तब ही विदेशी पूंजी का प्रवाह भारत की ओर होगा। आर्थिक सुधारों के लिए कठोर निर्णय भी लेना होंगे और उनका पालन भी सख्ती से करना पड़ेगा। मर्ज को समाप्त करना है तो कड़वी दवाएं पीना ही पड़ेंगी तथा अपने मुंह का जायका भी खराब करना पड़ेगा। अच्छा तो यह हुआ कि परिणामों के लिए हमें लम्बा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय मान्यता के बाद भारत की जनता भी इस यज्ञ में जितनी अधिक आहुति देगी उतनी ही शीघ्रता से हमें जमीनी स्तर पर भी परिणाम देखने को मिलेंगे।