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हिजाब के बंधन से हासिल क्या होगा?

हिजाब के बंधन से हासिल क्या होगा? - hizab case
हमारे देश की महिलाएं जहाँ अंतरिक्ष यात्रा कर ब्रह्माण्ड पर पहुँच चुकी है, वहाँ की महिलाओं के लिए धर्म जाति के अनुरूप पहनावे को लेकर राजनीति गलियारों में गहमागहमी का इस तरह बढ़ना सोच में डालता है कि क्या आज की स्थितियों में नारी-पुरुष समान है? क्या नारी, पुरुषों से किसी बात में कम है?
 
 देश के संविधान में प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छानुसार जीवनयापन की स्वतंत्रता है, वहाँ हिजाब की छाया डालकर नारियों को पीछे करने का यह मात्र एक राजनैतिक, धार्मिक षड्यंत्र नहीं है, तो क्या है? 
 
हमारे देश में कोम विशेष से संबंधित बुद्धिजीवी मानते हैं कि धार्मिक रूढ़ियों के कारण मुस्लिम महिलाओं की उतनी तरक्की नहीं हुई है जितनी होनी चाहिए थी। धर्म की आड़ में आज भी नारियों को अनेक कुरीतियों से बाहर नहीं आने दिया जाता। 

मुस्लिम बहनों को उनके धर्म के अनुसार किशोरावस्था में आते ही हिजाब पहनने की हिदायतें शुरू हो जाती है कारण बताया जाता है कि वे बाहरी पुरुषों की कुदृष्टि से हिजाब के जरिए बच सकती है तथा बाहरी व्यक्तियों से शर्म लिहाज रख सकती है। तो प्रश्न उठना जायज है कि क्या हिजाब पहनने वाली महिलाओं के साथ कभी भी, कुछ भी बुरा नहीं होगा? क्या हिजाब पहनाने व पहनने वाले इसकी 100% ग्यारंटी दे सकते हैं? यहाँ कुदृष्टि तो पुरुष वर्ग की मानी जा रही है तो फिर हिजाब या पर्दा भी तो कुदृष्टि पर ही डाला जाना चाहिए। 
 
हमारे यहाँ कानून में कुकृत्यों के लिए कड़ी सजा के प्रावधान निर्धारित किए गए हैं। तो उनके होते अपनी बेटियों को हिजाब की दीवार में बंदी बनाकर रखना कौन सी समझदारी की बात है? धार्मिक अंधविश्वासों के चलते मुस्लिम बहनें जो किसी भी दृष्टि से पढ़ाई-लिखाई में कम नहीं होती उनकी समय से पहले शिक्षा बंद करवा दी जाती है। जिससे कई कार्पोरेट व ऊँचे-ऊँचे क्षेत्रों में वे पदों को सुशोभित नहीं कर पाती। 
 
आज भी हम देखते हैं कि मुस्लिम कोम में मात्र 3% महिलाएं ही सरकारी पदों पर कार्यरत् हैं। वे भी सिर्फ सुरक्षित स्थानों पर ही। यह सब मुस्लिम महिलाओं की तरक्की में बाधक सिद्ध हो रहा है। कुरान तो सिर्फ शालीन कपडे़ पहनने को कहता है ना कि हर महिला को पर्दे में रहने को।
 
दूसरा प्रश्न है कि शिक्षण संस्थानों में जब यूनिफार्म निर्धारित है जहाँ सभी बच्चों को एक जैसी शिक्षा दी जाने की व्यवस्था रहती है, वहाँ बुर्का पहनकर अलग नज़र आने की आवश्यकता ही नहीं। देखा जाता हैं कि बुर्का पहनने वाले संस्थानों में व अन्य जगह पर अलग नज़र आते हैं और वे निर्धारित बुर्का आदि पहनने के कारण, अपनी जाति-समाज से अलावा अन्य किसी लोगों से मित्रता नहीं करते। 
 
जो उन्हें सामाजिक दायरे खुलकर जीने से रोकता है। जबकि हम अधिकाधिक लोगों से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तो नई बातें, ज्ञान व क्षमताओं से परिचित होते हैं। जो उन्नति के पथ पर बढ़ाने में सहायक होता है। आज भी हम देखते हैं कि हिंदू-मुस्लिमों में समानता भाव नहीं पनपा है। 

एक कारण और समझ से परे है कि हिजाब पहनने वाली बालिकाओं से पूछा जाता है, आप हिजाब क्यों पहनती हैं? तो वे कहती है कि - "हमारे धर्म के अनुसार यह जरूरी है और माता-पिता भी कहते हैं।" 
 
बालिकाओं को पूछा जाता है बताइए क्या फायदा होगा? तो जवाब शून्य होता है। इन्हीं बातों के चलते उच्च तबके के मुस्लिम इन बंधनों में नहीं पड़ते। 
 
संस्कारों के नाम पर समानता में रोड़े सहीं नहीं है। आज़ाद भारत में हम अभी भी कुरीतियों से आगे नहीं बढे़गे तो कब नई राहों का अनुसरण करेंगे? हमें मुस्लिम महिलाओं के समानता के अधिकारों पर बात करने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। दरअसल, हिजाब या हिंदू महिलाओं के लिए पर्दाप्रथा उदारवादियों व रूढ़िवादियों के बीच चलने वाला एक ऐसा सांस्कृतिक द्वंद है, जिसमें समाज दो फड़ में बँट जाता है। 
 
हमें वास्तविक रूप से समानता, अधिकारों की रक्षा व सशक्तिकरण के लिए देखना चाहिए कि कुरान में भी पर्दे की व्याख्या ऐसी नहीं है कि उसे सब मुस्लिम महिलाओं के लिए अनिवार्य माना जाए।
 
कर्नाटक के उडुपी शहर से जन्मा हिजाब विवाद और फिर अभी तूल पकड़ता हिजाब गर्ल विवाद शिक्षण संस्थानों में हिजाब प्रथा बंद होने के साथ विराम पाना चाहिए। कई देशों में हिजाब गैरजरूरी हैं। यूरोप से लेकर श्रीलंका तक हिजाब प्रतिबंध कई बार लागू किया जा चुका है। तुर्की में भी ऐसे विवाद जन्में थे।
 
 मुस्तफा कमाल अतातुर्क तुर्की में यूरोप के समकक्ष समानता व आधुनिकता लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किए। विदेशों में कई बार सुरक्षा की दृष्टि से हिजाब को गैरकानूनी भी माना गया है। श्रीलंका में विगत दो वर्ष पूर्व इसका उदाहरण बना है। स्विट्जरलैण्ड में भी हिजाब प्रतिबंधित है। 
 
विदेशों में रोक लगाने पर इतनी राजनीति नहीं गर्माती जितनी हमारे देश में। वहाँ ऐसे विचारों को समानता का अधिकार माना जाता है और जनता सहर्षता से अपनाती है। हम अपने देश में शिक्षण संस्थानों में समानता लाने के लिए सभी जाति वाले एक जैसी यूनीफार्म पहने तो यह भी गलत बात नहीं होगी बल्कि एक अच्छी पहल होगी बदलाव की दिशा में।
 
हमें इस बात पर गर्व करने की आवश्यकता है कि हमारे यहाँ नारियों की समानता ,अधिकारों को ध्यान में रखकर उनकी उच्च शिक्षा प्राप्ति में वे अलग-थलग ना पड़ जाए, इसलिए एक यूनिफार्म के चलते उन्हें हिजाब ना पहनने को कहा गया है। वैसे भी यूनिफार्म तो समानता की द्योतक है। हमें समझदार होने की आवश्यकता है ना कि इसे राजनैतिक, धार्मिक या दार्शनिक रंगों से रंगने की।
 
हिजाब एक पाबंदी से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ना केवल मुस्लिम समुदाय में बल्कि किसी भी धर्म को अपनी अलग पहचान दिखाकर देश में ऐसे मामलों को तुल नहीं देना चाहिए। शिक्षा देते समय एक किताब से समान ज्ञान दिया जाता है वैसे ही समान वस्त्रों को पहनने में भी आपत्ति जैसी कोई बातें नहीं होना चाहिए। 
 
हमें हमारे देश की हर नारी को समान अधिकारों को दिलवाना है। महिलाएं व किसी को भी, धर्म विशेष के नाम पाबंदी में रखना इंसानियत नहीं है। देखा जाता है शोषण उसी का होता है जो गलत को सहन करता है। आज मुस्लिम महिलाओं को अपने आपको कठपूतली बनने से रोकना होगा, कुरीतियों को रोकने में सहायक बनना होगा। अपने आपको राजनीति की आग में झुलसने से बचाना होगा। अपना व आने वाली पीढ़ीयों का भविष्य संवारने में पहल करनी होगी। और सभी बहनों के लिए इतना ही कहना है कि 
 
किसी को ना दबाइए, ना  दबिए,
गलत को, कभी सही मत कहिए, 
मूक नहीं, आवाज़ बुलंद कीजिए,
पंख परवाज़  से आसमान छुइए।
 
©®सपना सी.पी. साहू "स्वप्निल"
इंदौर (म.प्र.)