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Written By Author अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
Last Updated : सोमवार, 29 जून 2020 (13:34 IST)

घुमक्कड़ी का आनंद

Nomadic | घुमक्कड़ी का आनंद
कुदरत ने हम सबको घुमक्कड़ी करने के लिए ही दो पैर दिए हैं, पर ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के विस्तार ने पैर- पैदल घुमक्कड़ी को पीछे धकेलकर सुबह-शाम के एकरस पैदल टहलने की रस्म-अदायगी में बदल दिया है। एक जोड़ी मनुष्य के पैरों ने धरती के चप्पे-चप्पे पर अपनी पदछाप छोड़ी है। गर्मी से तपता रेगिस्तान हो या हाड़तोड़ ठंडक वाला हिमालय, सबको घुमक्कड़ी करने वालों ने अपने पैरों से नापा है।
 
घुमक्कड़ी धरती मां की गोद में खेलते रहने जैसा आनंददायी अनुभव है जिसे हम सब अपनी जीवन यात्रा में निरंतर पाते हैं। घना जंगल तो घुमक्कड़ी का अंतहीन खजाना है। दरिया किनारा हो या पहाड़ी नदी के साथ कदमताल करने की आनंददायक अनुभूति को पैदल घुमक्कड़ी करने वाले ही अनुभव कर पाते हैं। आज की साधनों की अति वाली दुनिया में पैदल घुमक्कड़ी का चलन थोड़ा सिमटा है, पर मिटा नहीं है। पैदल घूमने का रोमांच यह है कि हम हर क्षण नई जमीन और हर क्षण नए आसमान के साथ आगे बढ़ते हैं।
 
जबसे मनुष्य ने पहला कदम बढ़ाया, तब से ही पैदल घूमने की कथा का आरंभ होता है। मानव समाज में कई समूह तो ऐसे हैं, जो एक जगह बसते ही नहीं, घूमते ही रहना उनकी जिंदगी है। मनुष्य मूलत: थलचर है, पर पानी में तैरना वह सीख लेता है।
 
तकनीक का विस्तार कर हम आकाश में आवागमन के कई साधनों के बल पर हवा में भी घुमक्कड़ी, भले ही हम साधारण मनुष्य भी क्यों न हों, फिर भी कर सकते हैं। इस तरह आधुनिक काल का मनुष्य थलचर, नभचर और जलचर तीनों श्रेणियों के प्राणियों की तरह घुमक्कड़ी का आनंद उठाने की हैसियत अपने ज्ञान, विज्ञान और तकनीक के बल पर पा गया है।
 
धरती के घनघोर दुर्गम स्थल तो एक तरह से पैदल घूमने के लिए सुरक्षित रखे हैं। मन का संकल्प और पैरों की ताकत ही मनुष्य को दुर्गम स्थलों से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवाने का अवसर और अनुभव सुलभ करवाती है। शायद इस धरती पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो भोजन नहीं मानसिक आनंद के लिए घुमक्कड़ी को अपनाता है।
 
घूमने को जीवन का ध्येय बनाने का सीधा-सादा अर्थ है समूची धरती को अपना घर मानना। इसमें घर खरीदने, बनाने या लौटकर घर आने से मुक्ति है। दुनियाभर में हर जगह ऐसे लोग हैं जिनका अपना खुद का घुमक्कड़ी का दर्शन होता है। कुछ लोग आजीवन घुमक्कड़ी करते हैं। कुछ लोग पारिवारिक दायित्व से मुक्त होकर घुमक्कड़ी का दर्शन अपनाते हैं। जगत के विराट स्वरूप से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के लिए घुमक्कड़ी का रास्ता चुनते हैं। वैसे तो जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी घुमक्कड़ी है, पर जीवन की घुमक्कड़ी में आजीवन घुमक्कड़ी का आनंद ही अनंत है।
 
घूमने की शुरुआत तरुणावस्था में हो जए तो घुमक्कड़ी का रोमांच बढ़ जाता है। महात्मा गांधी के सहयोगी काका साहेब कालेलकर का कहना था कि सारे दुर्गम स्थानों को युवा अवस्था में ही घूम लेना चाहिए। जब तन कमजोर होता है तो घुमक्कड़ी का मन होने पर भी तन की कमजोरी घूमने-फिरने पर दुविधाओं को मन में जन्म देती है।
 
जीवन का सत्य भी यही है कि युवा अवस्था में मनुष्य का मन हर चुनौती के लिए तैयार होता है या चुनौती को अवसर मानता है। तरुणावस्था एक तरह से वरुणावस्था ही है, तूफान की तरह वेगवान और कभी भी, कहीं भी गतिशील होने को तत्पर। युवा मन और तन जीवन का सबसे ऊर्जावान कालखंड है जिसमें जिंदगी का जोड़-बाकी, गुणा-भाग अजन्मा होता है। इसी से शायद जोश में होश खोने जैसी बातों का जन्म हम सबके लोक जीवन में आया।
मानव की जिज्ञासा ने घूमने-फिरने को जी भरके पाला-पोसा है। बहुत पहले के कालखंड से घूमने-फिरने वाले को ज्ञानी और अनुभवी समझा जाता रहा है। हमारी इस धरती के चप्पे-चप्पे में फैली विविधताएं मनुष्य को घुमक्कड़ बनने का हर काल में आमंत्रण देती रहती है।
 
आज की साधनों की अतिवाली जिंदगी में बहुत कम लोग तन और मन के साधन के बल पर घुमक्कड़ी की हिम्मत जुटा पाते हैं। आज हम सबका मानस साधन संपन्नता वाले पर्यटन की ओर ज्यादा झुका हुआ रहता है। कहां रहेंगे? कहां और क्या खाएंगे? कैसे जाएंगे? जैसे सवाल प्राथमिक चिंता हो जाते हैं और घुमक्कड़ी का प्राकृतिक आनंद गौण हो जाता है। हमारी धरती हमारे जीवन की रखवाली है। धरती पर जीवन की सारी अनुकूलताएं उपलब्ध होने से ही धरती के हर हिस्से में मानव सभ्यता का विस्तार हुआ। पर आज हम व्यवस्था की अनुकूलता के आदी होते जा रहे हैं जिसका प्रभाव हमारे मन और तन दोनों पर बहुत गहरे से हुआ है।
 
जीवन एक यात्रा है। जीवन एक अनुभव है। जीवन एक खुली चुनौती है। जीवन हवा है, पानी है, मिट्टी है, वनस्पति है, जैवविविधता का अनोखा विस्तार है जिसमें हर जीवन के लिए जीवंत बने रहने की भरपूर गुंजाइश है। हमने हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए जो-जो इंतजाम रहने, सोने, खाने और जीने के लिए जुटाए हुए हैं, हम में से अधिकांश उन सबके इतने अधिक आदी हो गए हैं कि तन और मन का साधन ही गौण हो गया।
 
आज के कालखंड में हमारे सोच में विकास, विस्तार और बदलाव का एकमात्र अर्थ व्यवस्थागत संसाधनों की अंतहीन जकड़बंदी होता जा रहा है। आज हम में से किसी के पास यदि साइकल, मोटरसाइकल या स्कूटर, कार या जीप, बस या रेल की सुविधा उपलब्ध न हो तो हम अपने पास कोई साधन उपलब्ध न होने की उद्घोषणा कर कहीं भी आने-जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करने में लजाते नहीं हैं और सब इस तर्क को सहर्ष स्वीकार भी कर लेते हैं। यदि आज कोई अपने पैरों की ताकत से जीना चाहे तो लोग उसे साधनहीन मनुष्य मान कर दया का पात्र समझने लगते हैं।
 
भूदान का विचार लेकर सारे देश में सतत 1 दशक से भी ज्यादा समय तक पदयात्रा करने वाले संत विनोबा भावे ने आदिशंकराचार्य के बारे में लिखा है कि शंकराचार्य 2 बार कुल भारतभर में घूमे। 32 साल की उम्र तक उन्होंने लगातार काम किया। ग्रंथ लिखे, चर्चा की, समाज की सेवा की और सर्वत्र संचार किया।
 
भारत के एक कोने में केरल में जन्म हुआ और हिमालय में समाधि ली और अनुभव किया कि अपनी मातृभूमि में ही हूं। उनके खाने के लिए आधार क्या था? झोली। कहते थे- 'भिक्षा मांगकर खाओ, क्षुधा को व्याधि समझो और स्वादिष्ट अन्न की आशा मत रखो। जो सहज प्राप्त होगा, उसमें संतोष, समाधान मानो।' 
 
यही था शंकराचार्य का जीवनाधार! और यही उस तन और मन की भी असली ताकत है जिसके बल पर वह जीवन के प्रवाह को घुमक्कड़ी का आनंद बना देता है।