मां, ईश्वरीय चमत्कार है
हैप्पी मदर्स डे
मां एक अनुभूति, एक विश्वास, एक रिश्ता नितांत अपना सा। गर्भ में अबोली नाजुक आहट से लेकर नवागत के गुलाबी अवतरण तक, मासूम किलकारियों से लेकर कड़वे निर्मम बोलों तक, आंगन की फुदकन से लेकर नीड़ से सरसराते हुए उड़ जाने तक, मां मातृत्व की कितनी परिभाषाएं रचती है। स्नेह, त्याग, उदारता और सहनशीलता के कितने प्रतिमान गढ़ती है? कौन देखता है? कौन गिनता है भला? और कैसे गिने? ऋण, आभार, कृतज्ञता जैसे शब्दों से परायों को नवाजा जाता है। मां तो अपनी होती है, बहुत अपनी सी। हम स्वयं जिसका अंश हैं, उसका ऋण कैसे चुकाएं। ऋण चुकाने की कल्पना भी धृष्टता कही जाएगी। कितने और कैसे-कैसे अहसान हैं उसके हम पर। यदि अदायगी का मन बना लिया तो उलझ जाएंगे। भला कैसे अदा करेंगे उस ऋण को? जब आपको पृथ्वी पर लाने के लिए वह असीम अव्यक्त वेदना से छटपटा रही थी, उसका? या ऋण चुकाएंगे उन अमृत बूंदों का जिनसे आपकी कोमलता पोषित हुई? अनवरत भीगती नन्ही लंगोटियों का या बुरी नजरों से बचाती काजल टीकलियों का? हाथों में स्वर्ण मोतियों के साथ गुँथे काले मोतियों वाले 'मनघटियों' का या आरक्त नन्हे चरणों में रुनझुन बजती पैजनियों का? स्मृतियों के बहुत छोटे-छोटे किंतु बहुत सारे मखमली लम्हे उसकी मन-मंजूषा में सँजोकर रखे गए हैं। किसी अमूल्य धरोहर की भाँति, कैसे झाँकेंगे आप? कितनी बार नन्ही लातें उस पर चलाईं? कितनी बार आपने क्या-क्या तोड़ा, बिखेरा और उसने समेटा। कितनी मिन्नतों के बाद किसी चूजे की भाँति आप चार चावल दाने चुगते थे और आपकी भूख से वह अकुला उठती थी। क्या याद है आपको वह सुहानी संध्या जब दीया-बाती के समय मंत्र, श्लोक और स्तुतियों के माध्यम से आपकी सुकोमल हृदय धरा पर वह संस्कार और सभ्यता के बीज रोपा करती थी। नहीं भूले होंगे आप वे फरमाइशें और नखरे जिन्हें वह पलकों पर उठाया करती थी।दाल-चावल से लेकर मटर पुलाव तक, अजवाइन डली नमकीन पूरी से लेकर मैथी-पराठे तक, मलाईदार श्रीखंड से लेकर पूरनपोली तक और कुरकुरी भिंडी से लेकर भुट्टे के किस तक कितने प्यार में पके रसीले व्यंजन हैं जो मां के सिवा किसी और की स्मृति दिला ही नहीं सकते।याद कीजिए अपने किसी साधारण से बुखार को। सिरहाने रखे भिलामें, राई, दूध की ठंडी भीगी पट्टियाँ, तुलसी का काढ़ा, अमृतांजन, नारियल तेल में महकता कपूर और मां की चिंतातुर उँगलियाँ। चुका सकेंगे इन महकते भावुक लम्हों का मोल?उम्र बीत जाने पर भी मां के धीरज बँधाते बोल आप भुला नहीं सकते ' सो जा बेटा बीमारी हाथी की चाल से आती है और चींटी की चाल से जाती है।' तपते तन-मन पर जैसे ठंडे मुलायम फाहे रख दिए हों।आज भी उसकी डाँट आपको भीतर तक भिगो देती है। 'मैं समझाती हूं तो कहां समझ में आता है, देखा, हो गए ना बीमार?' एक ऐसी डांट जिसमें चिंता की कोंपलें सहज फूटती दिखाई पड़ जाती है, उसके छुपाते-छुपाते भी। प्रार्थना के फूल बुदबुदाते स्वरों में ही झर जाते हैं उसके संभालते-संभालते भी। प्यार की हरी पत्तियाँ झाँक ही लेती हैं दबाते-दबाते भी।मां को ईश्वर ने सृजनशक्ति देकर एक विलक्षण व्यवस्था का भागीदार बनाया है। एक अघोषित अव्यक्त व्यवस्था, किंतु उसका पालन हर मां कर रही है। चाहे वह कपिला धेनु हो, नन्ही सी चिड़िया हो या वनराज सिंह की अर्धांगिनी। इस व्यवस्था को समझिए जरा। आपने कभी नहीं देखा होगा गाय का बछड़ा मां को चाट रहा है। चिड़िया के बच्चे उसके लिए दाना ला रहे हैं और मां की चोंच में डाल रहे हैं या शावक अपनी मां के लिए शिकार ला रहे हैं। प्रकृति ने ही मां को पोषण देने का अधिकार दिया है। वही पोषण देती है और सही समय आने पर पोषण जुटाने का प्रशिक्षण भी। पोषण देने में वह जितनी कोमल है प्रशिक्षण देने में उतनी ही कठोर। मां दोनों ही रूपों में पूजनीय है।इन दोनों ही रूपों में संतान का कल्याण निहित होता है।'
उसको नहीं देखा हमने कभी...पर उसकी जरूरत क्या होगी,...
हे मां तेरी सूरत से अलगभगवान की सूरत क्या होगी...ईश्वर हर जगह नहीं पहुंच सकता इसीलिए उसने मां बना दी। जो हर किसी की होती है, हर किसी के पास होती है। शारीरिक उपस्थिति मां के लिए मायने नहीं रखती। वह होती है तो उसकी ईश्वरीय छाया सुख देती है जब 'नहीं' होती है तब उसके आशीर्वादों का कवच हमें सुरक्षा प्रदान करता है।