दिल्ली में पानी की चिंता पर हुई मीडिया चौपाल
- मीडिया चौपाल से लौटकर दिनेश 'दर्द' की विस्तृत रिपोर्ट
गुरू नानक देव के मुताबिक़ पवन गुरू है, पानी पिता है और धरती माता। जहाँ ये तीनों प्रदूषण रहित होंगे, वहाँ खुशियाँ और सेहत रहेगी। हम इनका बेतहाशा दोहन करके इनके भंडार रिक्त करने के साथ-साथ इन्हें विषैला करके अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं। दरअसल, हम अमृत जैसे पानी को ज़हर बना रहे हैं। अगर हमने हवा-पानी और धरती से अच्छे रिश्ते बनाए रखे होते, तो आज परिस्थितियाँ कुछ और होतीं। हमने अपनी करतूतों से जीवने देने वाले पानी को कैंसर जैसी बीमारियाँ पैदा करने वाला बना दिया।
शहरों का अपशिष्ट मिलाकर हमनें ज़हरीली कर दी नदियाँ : आईना दिखाती ये बातें संत बलबीर सिंह सिंचेवाल ने कहीं। वे मीडिया चौपाल द्वारा 'नद्द: रक्षति रक्षित:' विषय पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार के पहले दिन शनिवार को प्रथम सत्र में बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम दिल्ली में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में आयोजित हुआ। संत सिंचेवाल ने कहा कि हमें धरती की हवा-पानी सम्हालने की ज़रूरत है। पहाड़ों से आने वाले अमृत जैसे जल में हमने शहरों का अपशिष्ट मिला कर उसे ज़हरीला बना दिया। जबकि 1974 के एक्ट के अनुसार किसी भी नदी या दरिया में चीज़ें फेंकना तो दूर, हम थूक तक नहीं सकते। हम लोग अपने घरों की टंकियों को तो हर तरह से साफ रखते हैं, लेकिन नदियों को गंदा करने में ज़रा भी नहीं सोचते। इसी के चलते जो पानी जीवन देता है, वही मुसीबत बना हुआ है।
मीडिया बड़ी ताकत, साथ दे तो क्रांति संभव : आस्था या ड्रेनेज के मिसमैनेजमेंट के नाम पर पानी को ज़हरीला करने में बेहिसाब लोग लगे हैं। मगर इसके ट्रीटमेंट के लिए गिनती के लोग लामबंद हैं और वो भी गुमनाम। आज मीडिया बहुत बड़ी ताकत है। यदि मीडिया इन लामबंद लोगों के बारे में दुनिया को बताए, तो अच्छे परिणाम मिलना अधिक संभव हो सकेगा। अफसोस, हमारे देश में अच्छा करने वालों को वैसा प्रोत्साहन नहीं मिलता, जैसा मिलना चाहिए। अगर मीडिया (मुख्य रूप से इलैक्ट्रॉनिक) कसम खाकर इस नेक काम में लग जाए, तो क्रांति ला सकता है।
पैसे से अधिक समर्पण की ज़रूरत : सरकार या संस्थाएँ बेशक इस यज्ञ में पैसे रूपी आहूति जरूर दे सकती हैं, लेकिन पैसे से कुछ नहीं होता, इसके लिए पैसे से अधिक भावना रूपी समर्पण होना चाहिए। हम कहीं भी प्रदूषण देखें, तो चुप न रहें, आवाज़ उठाएं। निराशा से बचें और इच्छाशक्ति से जुट जाएँ। सब मिलकर सकारात्मकता से भिड़ेंगे, तो हमारा उद्देश्य 100 प्रतिशत पूर्ण होगा।
देश के 60 प्रश जिले जल संकट में : भारतीय विज्ञान लेखक संघ (इस्वा) अध्यक्ष वीके श्रीवास्तव ने कहा कि आज गाँव, गली, नुक्कड़, कस्बे, शहर और जगह-जगह ऐसी चौपालों की ज़रूरत है। ज़रूरी है कि हम पानी को शुद्ध रखना अपनी आदत में शामिल करें। वहीं पीने के पानी पर काम कर रही संस्था 'इंडिया वाटर पोर्टल' के विश्वदीप घोष ने बताया कि देश में 60 प्रतिशत जिले पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। धीरे-धीरे झरने कम होते जा रहे हैं। धरती को खोद-खोद कर हमने छलनी कर दिया है। दक्षिण के चित्तुरेड में तो पानी की तलाश में 1500 फीट तक ज़मीनें खोद डाली हैं। सदियों का पानी हमने कुछ ही वर्षों में उलीच लिया। अब पानी में फ्लोराइड की समस्या मुँह खोले खड़ी है। आरओ के इंतेज़ाम भी स्थाई हल नहीं हैं। पानी के लिए जो लोग दूरदराज़ के क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, मीडिया को उनकी एप्रोच नीति निर्माताओं तक पहुँचानी चाहिए।
उबालकर पीने से ज्यादा ज़रूरी, पानी छानकर पीना : वरिष्ठ वैज्ञानिक मनोज पटेरिया ने बताया कि हमने पानी को लेकर देश के क़रीब 500 जिलों में कार्यशालाएँ की हैं। रामपुर गाँव में कोसी नदी पर काम किया। उन्होंने सुझाया कि पानी को उबालकर पीना ही एकमात्र इलाज नहीं है, बल्कि पानी छानना बहुत ज़रूरी है। 80 प्रतिशत से अधिक बीमारियाँ पीने का साफ पानी न मिले के कारण होती हैं। उन्होंने बताया कि पानी पेय योग्य बनाने के लिए 'मॉडर्न एप्रोप और कस्टम एप्रोच' का सामंजस्य बहुत ज़रूरी है।
हाशिए का मीडिया मेन स्ट्रीम में आ जाएगा : वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक ने इस विषय को मीडिया से जोड़ते हुए कहा कि आपके सराहनीय काम को मेन स्ट्रीम मीडिया में यथायोग्य स्थान न मिलने से परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। अब समय बदल रहा है। अब हाशिए वाले मेन स्ट्रीम में आ जाएंगे और मेन स्ट्रीम वाले हाशिए पर चले जाएंगे। आज जिस ख़बर को प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जगह नहीं मिलती, वो फौरन सोश्यल नेटवर्किंग आदि आ जाती है।
अगले पेज पर, ध्यान खींचने के लिए तटबंध तोड़ती हैं नदियां...
ध्यान खींचने के लिए तटबंध तोड़ती हैं नदियाँ : जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र अध्यक्ष, जवाहरलाल कौल ने बताया कि नदी का संबंध हमारी प्रकृति-पर्यावरण से है। वर्षों से हमारी सेवा करती आ रही नदियां बिगड़ जाती हैं, उफान पर होती हैं, अपना रास्ता छोड़ देती हैं, मर्यादा तोड़ देती हैं, क्योंकि हमने कभी उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। फिर कभी-कभी प्रकृति भी जीवित प्राणी की तरह ही अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करवाने के लिए नदियां के रूप में या तो अपने तट तोड़कर बह निकलती हैं, या सूख जाती है। जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ का कारण भी यही रहा। लगभग एक सदी से किसी ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि इस नदी का तल धीरे-धीरे उठ रहा है। एक बार नंदादेवी की तलहटी में स्थित गोहना ताल भी इसी प्रकार तटबंध तोड़ कर बेकाबू हो गया था। उन्होंने विस्तार से इसके तकनीकी पक्ष पर प्रकाश डाला।
मेन स्ट्रीम मीडिया से उम्मीद न रखें : श्री कौल ने इस संबंध में मेन स्ट्रीम मीडिया से उम्मीद रखने से इंकार किया। उन्होंने कहा कि मेन स्ट्रीम मीडिया बाज़ार का हिस्सा है। बाज़ार में जो बिकता है, वही उसके लिए ज़रूरी है। इसके बरअक्स पोर्टल-वेबसाइट-ब्लॉग आदि इस संबंध में अपना दायित्व ईमानदारी से निभा सकते हैं। वैसे, जो रास्ते हमें अपनाने चाहिए, वो प्रकृति में ही मौजूद हैं, केवल हमें उन्हें पहचानने की ज़रूरत है।
मनुष्य का बढ़ना और मनुष्यता का घटना जारी : वर्तमान भाजपा सांसद व 16 वर्ष पत्रकारिता करके 24 साल पहले छोड़ चुके प्रभात झा ने भी विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि अब सत्य का गला नहीं घोंटा जा सकता। अब उसकी हत्या नहीं हो सकती क्योंकि अब उसके कई आयाम हो गए हैं। साथ ही नागरिक भावना के संबंध में चिंता ज़ाहिर की। उन्होंने बताया कि आज संवेदनशीलता कम होती जा रही है। मनुष्य का बढ़ना और मनुष्यता का घटना निरंतर जारी है, जो चीज़ें हमें 1947 में तय करनी थीं, आज तक तय नहीं कर सके हैं। आज़ादी के बाद हमें सिविक सेंस (नागरिक भावना) विकसित करना था, लेकिन हमने रोज़ वोटर सेंस विकसित किया। वोटर सेंस में लोभ इंगित होता है, जबकि सिविक सेंस में कर्तव्य। और भारत का दुर्भाग्य रहा कि यहाँ सिविक सेंस की धज्जियाँ उड़ाई गईं। शायद इसलिए आज़ादी के इतने बरस बाद देश के प्रधानमंत्री को झाडू पकड़ना पड़ा। कुछ भी असंभव नहीं। हर कार्य संभव है। किसी भी कार्य को संपादित करने में जुनून का होना बहुत ज़रूरी है। पहले तो अकेले ही चलना पड़ता है, कारवां तो बाद में ही बनता है। और फिर हम तो निमित्त मात्र हैं, नियंता तो वही है।
बाढ़ में नदी ख़ुद हमारे पास आती है : उद्घाटन सत्र के बाद 'नदी संरक्षण : विकल्प-संकल्प-प्रकल्प' प्रथम सत्र आयोजित हुआ। मुख्य वक्ता के रूप में बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश मिश्र ने संबोधित किया। उन्होंने बताया कि मेरा नदी के साथ घरेलू और बराबरी का रिश्ता रहा है। हम लोग बहुत-से मौकों पर नदी पर जाते हैं लेकिन बाढ़ का मौका ऐसा होता है, जब नदी हमारे पास आती है। और जब नदी ख़ुद हमारे पास आती है, तो कई काम करती है। हमारे खेतों पर मिट्टी डालती है, जिससे हमारा कृषि उत्पादन समृद्ध होता है। हमारे ग्राउंड वॉटर को समृद्ध करती है और कभी-कभी आकर चुटकी भी काट लेती है। इसी को प्रलयंकारी बाढ़ कहते हैं। इसके अलावा उन्होंने विश्लेषणात्मक रूप से मिट्टी के कटाव और नदियों के उफान आदि पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सहायता बाँटना लोगों को भिखमंगा बनाना है। हमने लड़कर माँगा और ख़ुद ही अपनी क़ीमत तय कर ली।
नदियाँ जोड़ने का काम प्रकृति पर छोड़ें : प्रख्यात गांधीवादी व पर्यावरण विशेषज्ञ अनुपम मिश्र ने कहा कि अंग्रेजों ने 200 साल के शासनकाल में नदियों के साथ जो गलतियाँ कीं, उससे हमने कुछ नहीं सीखा। इस बात गाँधीजी के प्रिय शिष्य विनोवा भावे ने इसे इस तरह कहा कि, 'ये स्वतंत्र ठोकर खाने का ज़माना आ गया है। किसी और की ठोकर से मुझे कोई सबक नहीं लेना।' इसी प्रकार अंग्रेजों की ठोकर से जब स्वराज मिला, तो कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया और भाखड़ा बाँध बनाया। जब-जब हम नदी की राह में रोड़े लगाएंगे, विनाश होगा। हमने नदियों को जोड़ने की योजना बनाकर भी यही किया है। नदी जोड़ने का काम हमें प्रकृति पर छोड़ देना चाहिए। यह करोड़ों साल की कुदरती प्रक्रिया है। यदि नदियाँ जुड़ेंगी, तो सदियों का भूगोल बदले बिना नहीं बदलेंगी।
पत्रकार बंधू शब्दों का एक्स-रे करना भी सीखें : मिश्र ने अनुरोध किया कि पत्रकार बंधू रिपोर्टिंग करें, तो सरल लिखें। आप पत्रकार हैं, आपके द्वारा शब्दों का एक्स-रे किया जाना भी ज़रूरी है। अत: शब्दों का एक्स-रे करना सीखें। साथ ही जानकारी दी कि अंग्रेजों द्वारा सबसे पहला इंजीनियरिंग कॉलेज भारत के रुड़की में खोला गया। इस समय तक एशिया, अफ्रीका, इंग्लैण्ड और अमेरिका तक में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं थे। इसी क्रम में पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर ने कहा कि स्टोरी आगे जाकर रुक जाती हैं और उन्हें माकूल जगह नहीं मिलती, ये बातें बेमानी हैं। अगर स्टोरी अच्छी, तथ्यपरक और तरीके से कवर की गई हो, तो किसी टेबल पर नहीं रुकती। अपने ज्ञान से समाज को डराने की कोशिश न करें, बल्कि समाज से सहजता से जुड़े रहें। डराना पत्रकारिता नहीं है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि पत्रकार के तौर पर मैं पानी का ऋणी हूँ।
वेबदुनिया ने बनाया था पहला फोनेटिक कीबोर्ड : चायकालीन सत्र के बाद 'वेब संचालकों, ब्लॉगर्स और जन-संचारकों की चौपाल सजी। इसमें 'स्वतंत्र संचारकों का सशक्तीकरण: 'इंटरलिंकिंग, रेवेन्यू मॉडल, कंटेंट-टेक्नोलॉजी' के संदर्भ में चर्चा की गई। इसे सबसे पहले जयदीप कर्णिक ने संबोधित किया। उन्होंने बताया कि वेबदुनिया ने इंटरनेट पर कई नई चीजें की। वेबदुनिया ने ही पहला फोनेटिक कीबोर्ड बनाया, जिसे बाद में गूगल ने भी अपनाया। इतना ही नहीं वेबदुनिया ने यूनिकोड के बिना भी हिन्दी में कंटेंट सर्च की सुविधा कई भाषाओं में उपलब्ध करवाई। उन्होंने कहा कि जिस समय एक-एक वेब पोर्टल बंद हो रहे थे, तब वेबदुनिया ने सर्विस मॉडल अपनाया और अनुवाद के साथ ही सिफी आदि के लिए भी काम किया।
सरस्वती की ताकत है, तो एक दिन लक्ष्मी आएगी ही : श्री कर्णिक ने कहा- मीडिया की इकॉनमी विज्ञापन आधारित है। आज गूगल-टि्वटर-फेसबुक आपकी स्वेद (पसीना) बूँदों से उपजे और खड़े हुए हैं। आप निराश न हों, इससे स्पष्ट है कि आपमें मुद्दों की अच्छी समझ और लेखन कौशल है। निश्चिंत रहें, हिन्दी ब्लॉगिंग के भी अच्छे दिन आने वाले हैं। आपके लेखन का आपको संतोषजनक पारिश्रमिक मिलेगा। वैसे भी आज एप्लिकेशंस की सर्च पर गूगल की कोई दादागिरी नहीं है। बस, यह बात हमेशा ध्यान रखें कि, कंटेंट हमेशा से किंग था, है और रहेगा क्योंकि विचार ही सर्वोपरि है और विचार हमेशा ज़िंदा रहेगा। संभवत: इसीलिए कबीर-ग़ालिब के विचार आज भी ज़ियादा पसंद किए जाते हैं। आश्वस्त रहें, अगर आपके पास सरस्वती की ताकत है, तो लक्ष्मी आपसे ज़ियादा दिनों तक रूठी नहीं रह सकती। वहीं हेमंत जोशी ने ब्लॉगिंग के अलावा लेखन के और भी माध्यमों की तलाश करने पर ज़ोर दिया।
हमेशा ओरिजनल लिखें, गूगल की मदद न लें : वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने विशेष रूप से संगठित होने पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे बीच नेटवर्किंग हो। साथ ही आज कंटेंट की और जागरूकता की बहुत ज़रूरत है। इसके अलावा कामयाबी के लिए अपनी क्रिएटिविटी की पैकेजिंग और मार्केटिंग भी सीखें। बड़े मीडिया हाउसेस के सामने अपनी सम्मानजनक माँग रखें। उनसे कहें कि, समाजसेवा करना है, तो हम झुग्गी-झोपड़ियों में कर लेंगे। आप तो यह बताइए कि हमारे काम और समय के कितने पैसे चुका सकेंगे। हमेशा ओरिजनल लिखने की कोशिश करें, गूगल से अधिक नकल न करें। सचमुच कंटेंट की बहुत डिमांड है, लेकिन उसमें क्वालिटी हो। सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ वैज्ञानिक मनोज पटेरिया ने कहा कि हमें नॉलेज वर्कर नहीं, बल्कि नॉलेज प्रोड्यूस करना चाहिए। मौलिक (इनोवेटिव) बिंदुओं पर लिखेंगे, तो आपको मुँह मांगी राशि मिल सकती है। संचालन अनिल पांडेय ने किया। आभार संजीव सिन्हा ने माना।
अगले पन्ने पर, दस हजार साल का पानी खर्च कर चुके हैं हम...
मीडिया चौपाल का दूसरा दिन (12.10.2014)दस हज़ार साल का पानी खर्च कर चुके हम : दूसरे दिन के पहले सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में आयुक्त, आदिवासी विकास (भोपाल), उमाकांत उमराव ने 'नदी संरक्षण : नद्द: रक्षति रक्षित:' विषय पर प्रोजेक्टर से प्रस्तुतिकरण दिया। उन्होंने देवास जिले का कलेक्टर रहते हुए अपने कार्यकाल के दौरान विकसित की गई तालाब संस्कृति की कामयाबी पर प्रकाश डाला। श्री उमराव ने कहा कि, पानी के बारे में बात करने के दो पहलू हैं- 'एक : नदियों में जल, दूसरा : नदियों का जल'। स्लाइड, 'बियांड रीवर्स' के ज़रिए उन्होंने बताया कि 25-30 साल पहले 25 या 50 या सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों नदियाँ थीं, जो काल कवलित हो गईं। हमने मात्र 40-45 वर्षों में ही लगभग दस हज़ार या उससे भी ज़्यादा वर्षों का पानी प्रयोग कर लिया है। विदर्भ में तो पानी की तलाश में 1800 फीट तक ज़मीन खोदी जा चुकी है।
पानी की फिज़ूलखर्ची रोकनी होगी : श्री उमराव ने बताया कि सामान्यत: एक्यूफर (जलवाही स्तर) दो प्रकार के होते हैं। सीमित जलवाही स्तर और असीमित जलवाही स्तर। धीरे-धीरे झरने और पानी के अन्य सोते ख़त्म होते जा रहे हैं। साथ ही खेतों से ह्यूमस (उपजाऊ मिट्टी) भी ख़त्म होती जा रही है। कभी-कभी तो लगता है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर नहीं, मिट्टी को लेकर होगा। उन्होंने पानी की फिज़ूलखर्ची पर विशेष चिंता ज़ाहिर की। स्लाइड्स ख़त्म हुई तो उनकी स्क्रीन पर कोटेशन था- 'वी कैन लीव विदाउट 'गॉड' बट नॉट विदाउट 'वाटर' !'
तिब्बत में 1500 झीलें, सभी स्वच्छ : छत्तीसगढ़ से आईं सुभद्रा राठौर ने 'नदी संरक्षण में जनसंचार माध्यमों की भूमिका' विषय पर प्रकाश डाला। तीर्थ को परिभाषित करते हुए उन्होंने बताया कि तीर्थ का मतलब वास्तव में 'तीर पर स्थित' होता है। वहीं भाषा के तीन रूप होते हैं- आंगिक, वाचिक और लिखित। तिब्ब्त का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि तिब्बत में क़रीब 1500 झीलें हैं और सभी ख़ूब स्वच्छ। दसअसल, वहाँ झीलों में निर्माल्य आदि विसर्जित नहीं करने दिया जाता। नदियों-झीलों-तालाबों की रक्षा के लिए हमें देश के अन्य स्थानों पर भी निर्माल्य बंद करना पड़ेगा। इसके लिए कोई दूसरा सुरक्षित उपाय अपनाते हुए नदियों-झीलों-तालाबों को गंदा करने से रोकें। माखनलाल पत्रकारिता विवि भोपाल में संचार शोध विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ.मोनिका वर्मा और पंकज चतुर्वेदी ने भी विचार व्यक्त किए।
जल समस्या का एक ही हल, किफायत से करें इस्तेमाल : दूसरे दिन के द्वितीय सत्र में पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु ने पानी की समस्या का एक ही हल बताया, कि इसका इस्तेमाल किफायत से करें। खेती के लिए क़रीब 85 प्रतिशत पानी इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद सबसे अधिक पानी की खपत बिजली उत्पादन के लिए होती है। पानी-प्रकृति का संबंध माँ-बेटे जैसा है। नदियों में स्वयं भी रक्षण की क्षमता है। हम उसमें दखल देते हैं इसलिए ये नष्ट हो रही हैं। शहरी प्रशासनिक खामी के चलते नदियाँ मर रही हैं।
हर नदी का अपना व्यक्तित्व होता है : विचारक और चिंतक गोविंदाचार्य जी ने पानी के संदर्भ में कहा कि 'जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि'। महत्वपूर्ण यह है कि पानी के प्रति हमारा नज़रिया क्या है। हर नदी का अपना व्यक्तित्व होता है। जैसे यह आंशिक सत्य है कि सब आदमी समान होते हैं, उसी प्रकार सब नदियाँ तो समान होती हैं, किंतु उनका भी अपना पृथक व्यक्तित्व होता है। जैसे, गंगा- ज्ञान की नदी है, युमना- यम की और नर्मदा वैराग्य की नदी है। मनुष्य का इनसे भक्ष्य-भक्षक का संबंध है। हम प्रकृति की अनुभूति को समझें। एक सीमा के बाद तो मनुष्य के शरीर से रक्त भी नहीं निकालना चाहिए। मगर हमने अपनी धरती माँ के शरीर में अनगिनत छेद कर-करके इसके जलरूपी अमृत का बेतहाशा दोहन किया है। शेर जंगल को बचाते हैं और जंगल शेर को। दोनों में संबंध हैं। यदि इनमें से कोई एक भी अनुपस्थित रहा, तो कोई भी नहीं बचेगा। इस समय साहस-पहल-प्रयोग की आवश्यकता है। हमें नए प्रयोग करने होंगे।
जो जहाँ है, वहीं से बोले : श्री गोविंदाचार्य ने कहा कि भारत संबंधों पर जीता है, शर्तों पर नहीं। साथ ही बताया कि नौजवानों में तीन तरह की खुमारी हैं। एक- उपनिवेशवाद की खुमारी, दूसरी- विभाजन की खुमारी और तीसरी- सरकार आश्रित बनने की खुमारी। हालाँकि तीसरी खुमारी से नौजवान अब उबर रहे हैं। हमेशा याद रखें- 'सच बात को डटकर बोलें, जो जहाँ है, वहीं से बोले।'
बच्चे बना रहे नर्मदा का स्वास्थ्य चार्ट : सांसद व संयोजक- नर्मदा समग्र अनिल माधव दवे ने भी विचार रखे। उन्होंने कहा कि मैं मूलभूत रूप से नदी पर कार्य करने वाला कार्यकर्ता हूँ। नर्मदा और शिवाजी प्रमुख रूप से मेरी ऊर्जा के स्रोत हैं। शिवाजी और अफजल खां की लघु कथा के ज़रिए उन्होंने बताया कि जो ख़बर मिले, उसे कलेक्ट करें और तेज़ी से आगे पहुँचा दें। हम नर्मदा के किनारे काम कर रहे हैं। इस समय हमने 100 किट बनाईं और एक-एक किट उन स्कूलों को दीं, जो नर्मदा किनारे हैं। और स्कूल में जाने वाले 6ठी से 12वीं वाले बच्चों से कहा कि सप्ताह में एक बार नर्मदा जी के किनारे जाना, पानी लेना और उस पानी का इस किट के माध्यम से दिए गए प्रशिक्षण अनुसार परिक्षण करना और उसके जो परिणाम आएं, वो घाट पर लगा देना। अब उन्हें बोर्ड दिया जाएगा जिसमें पानी की श्रेणी बताई जाएगी कि पानी किस योग्य है। इस प्रकार साल भर का जो डेटा इकट्ठा होगा, उसके आधार पर हम बता देंगे कि नदी का स्वास्थ्य कैसा है। इस प्रकार हम नदी का हेल्थ चार्ट बना रहे हैं और ये चार्ट तैयार करने का महत्वपूर्ण काम बच्चे कर रहे हैं। इसी बहाने बच्चे विज्ञान सीख रहे हैं, पर्यावरण सीख रहे हैं और उनकी भावनाएँ नदी के साथ ही जुड़ रही हैं। बच्चे अब बड़ों को बता रहे हैं कि पानी की यह स्थिति है।
समस्या पर चर्चा से अच्छा, उस पर काम करें : श्री दवे ने आह्वान किया कि यदि आप जीवन में कुछ अच्छा करना चाहते हैं, तो अपने पास की कोई नदी या तालाब सम्हाल (गोद) लें। अपने जीवन के महज़ 50 दिन उस नदी/तालाब को दे दें। बस्स, यही विश्व की सबसे बड़ी सेवा होगी। घंटों चर्चा करने से, ढेरों किताबें पढ़ने से दो क़दम चल लेना ठीक है। अत: इसके लिए किसी जलपुत्र या जलदेव की ज़रूरत नहीं। ख़ुद ही छोटे तालाब/छोटी नदी चुनें और जुट जाएं, क्योंकि समस्या पर चर्चा करने से अच्छा है कि उस पर काम करना शुरू कर दें। मेरे लिए भी नर्मदा पहले और राजनीति बाद में है। अंत में समापन सत्र के दौरान सवालों/जिज्ञासाओं/मश्विरों पर बात कर विदा ली गई।