सत्य और संत की परिभाषा बापू की नजर में
न संत, न पापी :- मैं सोचता हूं कि वर्तमान जीवन से 'संत' शब्द निकाल दिया जाना चाहिए।
यह इतना पवित्र शब्द है कि इसे यूं ही किसी के साथ जोड़ देना उचित नहीं है। मेरे जैसे आदमी के साथ तो और भी नहीं, जो बस एक साधारण-सा सत्यशोधक होने का दावा करता है, जिसे अपनी सीमाओं और अपनी त्रुटियों का अहसास है और जब-जब उससे त्रुटियां हो जाती है, तब-तब बिना हिचक उन्हें स्वीकार कर लेता है। जो निस्संकोच इस बात को मानता है कि वह किसी वैज्ञानिक की भांति, जीवन की कुछ 'शाश्वत सच्चाइयों' के बारे में प्रयोग कर रहा है, किंतु वैज्ञानिक होने का दावा भी वह नहीं कर सकता, क्योंकि अपनी पद्धतियों की वैज्ञानिक यथार्थता का उसके पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ही वह अपने प्रयोगों के ऐसे प्रत्यक्ष परिणाम दिखा सकता है जैसे कि आधुनिक विज्ञान को चाहिए।
मुझे संत कहना यदि संभव भी हो तो अभी उसका समय बहुत दूर है। मैं किसी भी रूप या आकार में अपने आपको संत अनुभव नहीं करता। लेकिन अनजाने में हुई भूल-चूकों के बावजूद मैं अपने आपको सत्य का पक्षधर अवश्य अनुभव करता हूं।