बात आजादी के आंदोलन के समय की है। स्वामी सत्यदेवजी, जिन्हें बाद में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक के नाम से जाना जाता रहा, महात्मा गांधी की कार्यशैली से बहुत प्रभावित थे। स्वामीजी अमेरिका से नए-नए आए थे।
एक दिन उन्होंने बापू से कहा, हम आपके आश्रम में रहकर आपके साथ ही जनता की सेवा करना चाहते हैं।
गांधीजी ने अत्यंत आत्मीयता से स्वामीजी से कहा, सत्यदेवजी! यदि मेरे साथ रहकर आप जनता की सेवा करना चाहते हैं तो आपको संन्यास के ये भगवा वस्त्र उतारना पड़ेंगे। गांधीजी के ये शब्द सुनते ही भगवा वस्त्रधारी स्वामी सत्यदेवजी को बड़ा आघात लगा।
वे बोले, यह कैसे हो सकता है? मैं संन्यासी हूं। भगवा वस्त्र कैसे उतारूं?
गांधीजी ने पुनः समझाया, मैं संन्यास छोड़ने की बात नहीं कहता। मेरी बात समझिए। इस भारत देश की जनता भगवा वस्त्रधारियों की सेवा करती आई है, उनसे सेवा नहीं करवाती। वह आपसे सेवा नहीं करवाएगी। संन्यास तो मानसिक चीज है। संकल्प की वस्तु है। मेरे कथन पर विचार कीजिए।
भगवा वस्त्र और जनसेवा को लेकर गांधीजी के इन वचनों से स्वामी सत्यदेवजी को विचलित देख काका कालेलकर ने स्वामीजी से कहा, बापू के वचनों का शांति से मनन करें। इसमें संदेह कहां है कि देश की जनता सदियों से भगवा वस्त्र धारण करने वालों पर अगाधश्रद्धा रखती आई है।
स्वार्थ एवं अज्ञानवश इसका दुरुपयोग कर जनभावना का शोषण भी किया है। रावण का उदाहरण सामने है। साधु के वेश में आए रावण से सीता माता तक धोखा खा गई थीं। स्वामी सत्यदेव ने तनावमुक्त होकर मुस्कराते हुए कहा, वस्त्रों से सेवा और श्रद्धा के मध्य मुझे बापू के वचनों पर पुनः आत्मचिंतन करना पड़ेगा।