मध्यप्रदेश में आखिरकार शिवराजसिंह चौहान का जादू चल ही गया। उनके चेहरे पर उभरने वाली आम आदमी की छवि गरीबों के मन में उतर गई। उनकी विनम्रता लोगों को भा गई। 2003 में तीन चौथाई से ज्यादा बहुमत से जीती भाजपा के ग्राफ में समय के साथ आई गिरावट उसके लिए खतरे की घंटी बजा रही थी।
चुनावी समर के दौरान शिवराज के साथ सुबह नौ बजे से लेकर अगली सुबह तीन बजे तक मैंने गाँवों और कस्बों में उनके लिए जैसा जुनून देखा था, उसे देखकर यही विचार आया था कि यदि यह वोटों में तब्दील हो गया तो शिवराज की राह कोई नहीं रोक सकता
चुनावी समर के दौरान शिवराज के साथ सुबह नौ बजे से लेकर अगली सुबह तीन बजे तक मैंने गाँवों और कस्बों में उनके लिए जैसा जुनून देखा था, उसे देखकर यही विचार आया था कि यदि यह वोटों में तब्दील हो गया तो शिवराज की राह कोई नहीं रोक सकता। और अंत में वही हुआ। शिवराज की बयार में कांग्रेस के कई दिग्गज धराशायी हो गए। भाजपा ने अपनी पारंपरिक सीटें गँवाई तो 2003 की आँधी के बावजूद जिन इलाकों में पंजा सख्ती से डटा था ऐसी कई सीटें भाजपा के कब्जे में आ गईं।
PTI
पिछले चुनाव में भाजपा ने 230 में से 173 सीटों पर परचम फहराया था, लेकिन उपचुनाव-दर-उपचुनाव ये सीटें कम होती गईं। इस साल की शुरूआत में आंकड़ा १६६ तक सिमट गया। तीन विधायकों की असामयिक मौत के बाद संख्या घटकर 163 रह गई। भाजपा ने चुनाव के पहले जो आंतरिक सर्वे कराए थे उनमें साफ तौर पर यह बात आई थी कि स्थानीय स्तर सत्तर से ज्यादा विधायकों की राह में एंटी- इंकम्बेंसी फेक्टर आड़े आ रहा है।
शिवराज ने टिकट काटने की कोशिश की लेकिन यह सिर्फ 56 सीटों पर ही संभव हो पाया। करीब चालीस विधायक दिल्ली में अपना ヒतबा दिखाकर टिकट पा गए। स्थिति खिलाफ जाते देख भाजपा ने 2003 में जीती सीटों के साथ ही उन सीटों के लिए खास रणनीति बनाई जो उसे नहीं मिल सकी थीं। इसमें से कई सीटें जीतकर ही वह इस बार बहुमत के जादुई अंक के पार पहुँच सकी।
कांग्रेस के तीनों मोर्चा संगठनों के प्रमुख (शोभा ओझा, जीतू पटवारी तथा रश्मि पवार) चुनाव हारे तो पचौरी के पहले प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे सुभाष यादव, विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी और उपाध्यक्ष हजारीलाल रघुवंशी, पूर्व राज्य गृहमंत्री सत्यदेव कटारे, अंतर सिंह दरबार, प्रेमचंद गुड्डू , पुष्पलता काँवरे, राजनारायण सिंह पूर्णी, राजेश पटेल के अलावा कई मौजूदा विधायक धराशायी हो गए।
प्रदेश समाजवादी पार्टी अध्यक्ष नारायण त्रिपाठी और सपा विधायक दल के नेता डॉ. सुनीलम भी खेत रहे। भाजपा की अर्चना चिटनीस ने बुरहानपुर सीट भी झटक ली। कांग्रेस ने एनसीपी विधायक हमीद काजी के लिए यह सीट छोड़ी थी। भाजपा ने कई सीटें भले ही गँवाई पर ११ सीटें झटक कर उसने घाटा पूरा कर लिया।
बावजूद इसके भाजपा के कई दिग्गज हारे। इनमें हिम्मत कोठारी, डॉ. गौरीशंकर शेजवार, रुस्तमसिंह, चौधरी चंद्रभानसिंह, अखंड प्रतापसिंह यादव जैसे मंत्री शामिल हैं। भाजपा के वर्तमान सांसद छतर सिंह दरबार,रामकृष्ण कुसमरिया व रामलखन सिंह के अलावा पूर्व सांसद जयभानसिंह पवैया को भी हार का मुँह देखना पड़ा। केवल तीन सांसद चंद्रभानसिंह, नीता पटैरिया और सरताज सिंह ही विधायक बन सके।
महू सीट पर कैलाश विजयवर्गीय को लड़ाने का प्रयोग भी सफल रहा। कैलाश के कारण महू के साथ ही नई सीट राऊ भी भाजपा के कब्जे में आ गई। मुख्यमंत्री बनने का मंसूबा साधे बैठे कमलनाथ के गढ़ महाकौशल में ही एक बार फिर कांग्रेस की नैया डूब गई।
महू सीट पर कैलाश विजयवर्गीय को लड़ाने का प्रयोग भी सफल रहा। कैलाश के कारण महू के साथ ही नई सीट राऊ भी भाजपा के कब्जे में आ गई। मुख्यमंत्री बनने का मंसूबा साधे बैठे कमलनाथ के गढ़ महाकौशल में ही एक बार फिर कांग्रेस की नैया डूब गई। दिग्विजयसिंह ने राघौगढ़ की सीट तो जितवा ली पर अपने भांजे सिंधुविक्रम सिंह को नहीं जितवा सके। जबकि शिवराजसिंह के सांसद प्रतिनिधि रहे सूर्यप्रकाश मीणा चुनाव जीत गए।
लोगों ने मान लिया कि उन्हें कांग्रेस और भाजपा में से ही किसी एक को चुनना है। इसी के चलते भारतीय जनशक्ति और बहुजन समाज पार्टी को उन्होंने वोट कटवा पार्टी मानते हुए ज्यादा तवज्जो नहीं दी। कांग्रेस के बागियों ने दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर पार्टी को हरवाने में बड़ी भूिमका निभाई। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी के लिए यह पराजय बहुत बड़ा धक्का है। कांग्रेस को यह पता लगाना होगा कि इन बागियों को चुनाव लड़ने के लिए किन नेताओं ने उकसाया?
वैसे मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत और निर्दलीयों के लिए 25 से तीस सीटों का एक तरह का जो कोटा है, वह इस बार नहीं भर पाया। जिस जनशक्ति से भाजपा को भारी नुकसान पहुँचने की बात कही जा रही थी वह भाजपा के अवसर को एक दर्जन से भी कम सीटों पर प्रभावित कर सकी।
इस चुनाव ने भारतीय जनशक्ति नेत्री उमा भारती को सबक दिया है कि अकेले मॉस लीडर होने से काम नहीं चलता। सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ को वोट में तब्दील करने के लिए कुशल रणनीतिकारों और अच्छे प्रबंधकों की भी जरूरत होती है। अकेले गोविंदाचार्य की सुदृढ़ विचारधारा के सहारे काम नहीं चल सकता।
मायावती के लिए भी यह एक बड़ा सबक है। उत्तरप्रदेश की सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग मध्यप्रदेश में नहीं दोहराया जा सका। सवर्णों पर दाँव लगाने के फेर में लगता है कि बसपा का दलित वोट बैंक उनके हाथ से छिटक गया। समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह इस बात से खुश हो सकते हैं कि कांग्रेस को उन्होंने सबक सिखा दिया, लेकिन हकीकत यह है कि ले- देकर सपा के हाथ एक सीट ही लग सकी है। उसके तीन विधायक चुनाव हार गए।
एक बात बिल्कुल साफ है कि दो या ढाई साल में सत्ता से बाहर हो जाने वाली जिस भाजपा को दस साल का राजनीतिक वनवास मिला करता था, पाँच साल का मौका मिलते ही वह दोबारा सत्ता में आ गई। नतीजों ने भाजपा और शिवराज के राजनीतिक करियर में चार चाँद और सुरेश पचौरी व उमा भारती के भविष्य पर सवालिया निशान लगाए हैं। पचौरी और उमा में समानता यह है कि दोनों को किसी दूसरे ने नहीं अपनों ने ही जख्म दिए हैं।