तेरे तअरुफ में ये कौन-सी अजनबीयत न तुझे पाकर चैन, न तुझे खोकर चैन
वहीदा... गुरुदत्त के लिए एक ऐसी कशमकश... उसे देखो तो बेचैनी, उसे न देखो तो बैचेनी। उसे पा लो तो वेदनशल उससे महरूम होकर रहो, तो वेदना, उफ़ न जाने कैसा प्यार था, कितना अकेला, कितना जुदा... वहीदा को देखकर एक अतृप्ति गुरुदत्त के जेहन में हमेशा बनी रही। ऐसी अतृप्ती जो सुकून भरा दर्द देती है। गुरुदत्त-वहीदा का इश्क... कभी सत्यम् तो कभी शिवम्। वहीदा गुरुदत्त के कला-जीवन की प्रेरणा थीं।
गुरुदत्त को लगता था कि वहीदा का उन्हें छोड़कर जाना कभी मुमकिन ही नहीं है। उनके विश्वास को ठेस तब लगी, जब वहीदा ने उनसे बिना पूछे फिल्म 'मुझे जीने दो' में काम करना स्वीकार कर लिया। गुरुदत्त ने वहीदा से मिलने की कोशिश की, लेकिन न जाने क्यों, वहीदा उनसे मिलना टालती रहीं। आखिरकार एक दिन वे 'मुझे जीने दो' के सेट पर नशे की हालत में पहुँच गए और फिर भीड़ में इश्क तमाशा बन गया। सुनील दत्त ने बीचबचाव किया और फिर... उस दिन जो गुरुदत्त वहाँ से लौटे, तो फिर कभी होश में ना आए।
नशा, नशा... और नशा, जो उनके लिए जानलेवा साबित हुआ। वहीदा की कामयाबी में गुरुदत्त का बहुत बड़ा हाथ रहा। इसके बावजूद वहीदा के घर में उस शख्स की कोई तस्वीर नहीं... हो सकता है, कदमों से लिपटी मर्यादा की दहलीज हो। ये भी हो सकता है कि दो दिलों के अफसाने हकीकत बनकर सामने न आए हों। हो सकता है, चार आँखें दूर रहकर भी एक-दूसरे की हयात में शरीक रही हों। कुछ भी हो सकता है। जहाँ इश्क है, वहाँ अफसाने बनते जरूर हैं, लेकिन हकीकत की हद से दो कदम पहले ही अक्सर फना हो जाते हैं।
वो दर्द क्या, जो लफ्जों में बयां हो जाए वो गम क्या, अश्क जिसकी जुबां हो जाए वादों के जनाजों को देखो तो मुस्कुराके देखो वो वादा ही क्या सनम, जो वफा हो जाए।