गायब हो गया मतगणना से रोमांच
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के आ जाने से चुनाव प्रक्रिया भले ही बेहद आसान हो गई हो, लेकिन इन मशीनों ने मतगणना के सारे रहस्य और रोमांच को समाप्त कर दिया है। अब मतगणना केन्द्रों के बाहर न तंबू दिखते हैं न शामियाने। पूड़ी, सब्जी और चाय के प्याले तो हवा ही हुए।अब तो लोकतंत्र के इस महासमर में वोटों की गिनती के प्रति न कोई उत्साह है और न ही उमंग। यही नहीं जल्दी परिणाम आ जाने से न तो प्रत्याशियों और न ही उनके समर्थकों के बीच बहस होती है और न ही किसी का ब्लड प्रेशर घटता-बढ़ता है।चुनाव आयोग की सख्ती के कारण अब न तो मतगणना स्थल के बाहर 'जीत गया भई जीत गया' और 'टैम्पर हाई है' के नारे सुनाई देते हैं और न ही नजर आता है प्रत्याशियों और उनके समर्थको का घटता-बढ़ता ब्लड प्रेशर।जरा अपनी यादों की किताब के पुराने पन्ने पलटिए और कुछ साल पहले तक की मतगणना स्थल के बाहर के नजारे याद करिए जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें नही आई थीं और न ही चुनाव आयोग के डंडे का इतना खौफ था।चुनाव के नतीजों का फैसला दो से तीन दिन में होता था और मतपेटियाँ खुलती थीं और एक-एक वोट गिना जाता था। मतगणना स्थल के बाहर विभिन्न पार्टियों के तंबू और शामियाने एक दिन पहले से ही लगाए जाते थे। इन शामियानों के भीतर और बाहर एक मेले का-सा माहौल होता था। यहाँ कार्यकर्ताओं के लिए पूड़ी, सब्जी और चाय बनती रहती थी और आसपास की दुकानों में भी मेले का माहौल रहता था।कार्यकर्ताओं के दिलों की धड़कनें बढ़ी रहती थीं। एक-एक राउंड के बाद साँसें ऊपर-नीचे होती थीं। कब किस राउंड में कौन-सा प्रत्याशी आगे निकल जाए और किस राउंड में पीछे रह जाए इसी बात को लेकर ब्लड प्रेशर ऊपर-नीचे होता रहता था।डीएवी कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफेसर जयशंकर पांडे पुराने दिनों की यादें ताजा करते हुए कहते हैं कि पहले तीन-तीन दिन तक मतगणना का काम होता था और प्रत्येक राउंड के बाद जब 'कौन प्रत्याशी कितने वोटों से आगे है' की घोषणा होती थी तो कुछ समर्थकों का जोश देखते ही बनता था, जबकि विरोधी खेमे में खामोशी छा जाती थी। और जब दो-तीन दिन बाद चुनाव का परिणाम सामने आता था तो पूरे मतगणना स्थल पर होली के त्योहार जैसा नजारा देखने को मिलता था।फिजा में गूँजते 'जीत गया भई जीत गया' के नारे और ढोल-ताशों की धुन पर नाचते-झूमते और अबीर-गुलाल उड़ाते समर्थक। एक अजब-सा माहौल दिखाई देता था।दिल्ली के रहने वाले और कानपुर के लैंडमार्क होटल के जनरल मैनेजर विनय धीर पुराने दिनों की मतगणना के माहौल में खो-से जाते हैं। वे कहते हैं कि विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मशीनों ने परिणाम तो जल्दी सामने ला दिए, लेकिन मतगणना के दिन होने वाले उत्सव का मजा किरकिरा कर दिया।पहले सुबह से ही सारे काम छोड़कर टीवी के सामने चिपक जाते थे या रेडियो कान से लगा लेते थे लेकिन अब आप थोड़ा देर से सोकर उठे तो पता चलता है कि आपका प्रत्याशी जीत या हारकर घर भी वापस लौट चुका है।मशहूर चमड़ा व्यापारी इमरान सिद्दीकी पुराने दिनों की यादें ताजा करते हुए कहते हैं कि हम लोग मतगणना स्थल के बाहर ही तंबुओं में रहते थे और पार्टी की पूड़ी-सब्जी खाते थे और चाय पीते थे और दिन-रात चुनावी आकलन में लगे रहते थे।सिद्दीकी कहते हैं कि इस दौरान मतगणना केन्द्र से कोई कर्मचारी या एजेंट या पुलिसकर्मी बाहर निकला तो तुरंत उसे घेरकर अन्दर के माहौल और नब्ज जानने की कोशिश करते थे और पूछते थे कि कौन प्रत्याशी आगे निकल रहा है और कौन पीछे रह गया है।वे कहते हैं कि चुनाव आयोग की सख्ती ने न तो मतगणना स्थल के बाहर वह मेले जैसा माहौल और न ही परिणामों को लेकर कोई खास उत्साह बाकी छोड़ा। अब तो सुबह उठे, टीवी खोला दोपहर तक परिणाम सामने और शाम होते-होते सरकार बनने की कवायद भी शुरू हो जाती है।पेशे से स्कूल टीचर विनीता द्विवेदी भी लोकतंत्र के इस मेले के प्रति अब कोई खास उत्साह नहीं रखती हैं। वे कहती हैं कि पहले जब तीन-तीन दिन तक मतगणना चलती थी, तो हम लोग भी सुबह-सुबह ही घरों में काम निपटाकर टीवी के सामने बैठ जाते थे और अपनी तरह से एक-एक वोट का आकलन करते रहते थे, लेकिन अब वह बात ही नहीं रही।इस सबके बीच आईआईटी कानपुर के शोध छात्र चन्द्रशेखर शर्मा जल्द चुनाव परिणाम आने को सराहते भी हैं। वे कहते हैं कि इससे समय की बरबादी बचती है। एक ही दिन में सारा होहल्ला खत्म हो जाता है। आखिर चुनाव के अलावा और भी तो काम है दुनिया में। वैसे भी परिणाम एक दिन में आएँ या तीन दिन में, नेताओं की सेहत पर तो कोई खास असर पड़ता नहीं है। परेशान तो आम जनता ही होती है न।