कम ऑन वैल्थ बनाम कॉमनवेल्थ
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
पिछले दिनों मेरा दिल्ली जाना हुआ। यात्रा कॉमन मैन की तरह नॉन एसी कम्पार्टमेंट में करनी पड़ी क्योंकि प्रोग्राम अचानक ही बना था। और आजकल ट्रेन रिजर्वेशन में सबसे पहले एसी कोच ही फुल हो जाते हैं। देश तरक्की कर रहा है। लोग फल-फूल रहे हैं। लोगों की इस तरक्की का श्रेय भ्रष्टाचार को भी जाता है। मेरा सरकार से अनुरोध है कि विकास के इस मंत्र को अब लीगलाइज्ड कर ही दिया जाना चाहिए। ट्रेन में मेरी सीट के सामने रामभरोसे बैठा था। जानते हैं ना आप रामभरोसे को? वही अपने करेंसी नोट वाले गाँधीजी के भारत का अंतिम व्यक्ति, जिसे वोट देने का असाधारण अधिकार दिया है हमारे संविधान ने। रामभरोसे जिसका जीवन सुधारने के लिए सारी सरकारें सदा प्रयत्नशील रहती हैं। जो हर पार्टी के चुनावी मेनीफेस्टो के केंद्र में होता है। अब तो पहचान लिया होगा आपने रामभरोसे को। यदि अभी भी आप उसे न पहचान पाए हों तो पानी के लिए नल की लाइन पर, राशन की दुकान पर, या किसी सरकारी दफ्तर में किसी न किसी काम से प्रायः चक्कर काटते हुए इस बंदे से आप सहज ही मिल सकते हैं। आजादी से पहले पैदा हुए एक बुजुर्ग सज्जन भी सामने की सीट पर ही बैठे थे। वातावरण में उमस थी। जैसे लंदन में दो अपरिचित बातें शुरू करने के लिए मौसम की बातें करने लगते हैं, वैसे ही हमारे देश में सरकार विरोध में बोलना, व्यवस्था के विरुद्ध शिकायत करना, समाज में आचरण के अधोपतन, नैतिकता के गिरते स्तर से लेकर भ्रष्टाचार के शिष्टाचार में बदलने की स्थितियों तक की चर्चाएँ, रास्ते की सारी कठिनाईयाँ भुला देती हैं। समय सुगमता से कट जाता है इस बातचीत में सभी को आत्मप्रवंचना का सुअवसर मिल जाता है। अपरिचितों में भी आत्मीयता का भाव पैदा हो जाता है। रामभरोसे, जो सिर्फ राम के ही भरोसे जी रहा है, मजे की बात है कि वह राम को ही अपनी बेबस जिंदगी के लिए भरपूर कोसता है। एक चाय वाला निकला। मैने बड़प्पन दिखाते हुए तीन चाय लीं। गरम पानी जैसी बेस्वाद चाय पीते हुए अखबार में पढ़ी हुई अपनी जनरल नॉलेज हम एक-दूसरे पर उड़ेलने लगे। स्वाभाविक था कि नईदिल्ली में हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्स पर भी हमारी चर्चाएँ होने लगी। सबसे पहले तो अपने देश की गरीबी का उल्लेख करते हुए बुजुर्गवार ने कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। मैंने उन्हें समझाया कि चचा, गरीब से गरीब व्यक्ति भी समाज में स्वयं को सार्वजनिक रूप से गरीब थोड़े ही घोषित करता है। ठीक इसी सिद्धांत पर हम भी पाकिस्तान को वहाँ बाढ़ आने पर अपना पेट काटकर करोड़ों का दान देते हैं। दुनिया में अपनी साख बनाने के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन भी ऐसी ही नीति का परिणाम है। रामभरोसे को मेरी यह बात पसंद आई। उसका स्वाभिमान, देशप्रेम का जज्बा जाग उठा। पर अभी भी बुजुर्ग सज्जन पढ़े-लिखे थे। वे कुतर्क कर रहे थे। उनका कहना था कि पहले हमारे खिलाड़ी कुछ अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में मेडल तो जीतें तब हम ऐसे बड़े आयोजन करें। बात में दम था। ऊपर की बर्थ पर लेटे युवक ने जो अब तक चुपचाप हमारी बातें सुन रहा था बहस में एंट्री ली। उसने कहा कि यदि हम स्थापित खेलों में जीत नहीं सकते तो बेहतर है कि कुछ नए खेल शुरू करवाएँ जाएँ। जिनमें हमारा जीतना तय हो जैसे किसी काम में कौन कितना ज्यादा से ज्यादा कमीशन ले सकता है। ऐसी प्रतियोगिता के विजेता को भ्रष्टाचार अलंकरण से सम्मानित किया जा सकता है। ठेकेदार इस व्यवस्था का कोच नियुक्त किया जा सकता है। मंत्री जी, सचिव जी, इंजीनियर साहब, ब्लैकमेलर पत्रकार आदि इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर कीर्तिमान बना सकते हैं। रामभरोसे ने कहा कि उसके हिस्से के फंड को कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों के लिए डाइवर्ट करके यह सब ही तो किया जा रहा है। इन भ्रष्टाचारियों के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स, कम आन वैल्थ का उदघोष ही है। करोड़ों रुपयों में थीम साँग बनता है जिसे सुनने के लिए भी देशभक्ति की सारी ताकत लगाना पड़ती है। मैनेजमेंट व ग्लोबल टेंडर के इस साधन संपन्न युग में भी सारी तैयारियाँ अंतिम वक्त के लिए छोड़ दी जाती हैं, आखिर क्यों? आखिर क्यों, हमारे खिलाड़ी डोपिंग का सहारा लेना चाहते हैं जीत के लिए? रामभरोसे को कुछ-कुछ गुस्सा आ रहा था। मुझे रामभरोसे के ज्ञान पर प्रसन्नता हो रही थी। मैं खुश था, क्योंकि मेरा मानना है कि जिस दिन रामभरोसे को सचमुच गुस्सा आ जाएगा क्रांति हो जाएगी। भ्रष्टाचारी भागते फिरेंगे और कॉमनवेल्थ गेम्स में ही नही ओलंपिक में भी भारत मैडल ही मैडल जीतकर रहेगा। इस देश में सदा से कॉमन मैन ने ही अनकॉमन काम किए हैं। फिलहाल आइए, दुआ करें कि दुनिया में देश की इज्जत बची रहे कॉमनवेल्थ गेम्स सुसंपन्न होवें। आयोजकों और भारतीय खिलाड़ियों से हम यही कहें कि कम ऑन यू कैन डू इट....और जब कर गुजरेंगे तो नेम, फेम, वैल्थ सब कुछ स्वतः ही आपकी होगी।