भारत की 132 साल पुरानी, ग्रैंड ओल्ड पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस की कमान अब 47 वर्षीय 'युवा' राहुल गांधी के पास होगी। शिवप्रसाद जोशी लिखते हैं कि उन्हें विरासत में ये जिम्मेदारी तो मिल रही है लेकिन आगे की राह आसान नहीं।
19 दिसंबर को राहुल गांधी कांग्रेस के विधिवत अध्यक्ष बन जाएंगे। 2014 की हार के जख्म सूखे नहीं है, कांग्रेस की चूलें हिली हुई हैं, मोदी सरकार के पहले तीन साल पूरे हो चुके हैं- ऐसे में राहुल गांधी का अध्यक्ष बनना, पार्टी में नयी जान फूंकने की- मरता क्या न करता- जैसी कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी समर्थक भले ही राहुल को खारिज करते रहे हों लेकिन गुजरात चुनाव की धुआंधारी और भीषणता में देख गया है कि राहुल गांधी 2014 के अपने राजनीतिक अपरिपक्वता के खोल को उतारकर फेंक चुके हैं और अब हेडऑन यानी आमने सामने मुकाबला करने के लिए तत्पर नजर आते हैं।
इस दृढ़ता की निरंतरता को बनाये रखना राहुल की चुनौती होगी। यानी चौबीसों घंटे उन्हें एक मजबूत विपक्षी नेता के रूप में उपस्थित रहना होगा। गुजरात के बाद जिन कुछ राज्यों में चुनाव हैं उनमें कर्नाटक और मिजोरम भी है जहां कांग्रेस की सरकार है। राहुल को दोनों ओर वार करने होंगे। उनकी स्थिति की कल्पना एक ऐसे पैदल योद्धा के रूप में की जा सकती है जिसके पास न बहुत हथियार हैं न बहुत समय न संसाधन। उसे अपनी राजनीतिक और सामरिक कुशलता का कड़ा इम्तहान देना होगा और अपनी दक्षता से साबित करना होगा कि वह हार को जीत में बदलने वाले चतुर राजनीतिक प्रबंधक भी हो सकते हैं।
मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना से ही राहुल गांधी या कांग्रेस का उद्धार नहीं होना है बल्कि उन्हें वैकल्पिक नीतियों का एक स्पष्ट और निर्भीक एजेंडा सामने रखना होगा जो आम जनता को मुखातिब हो। यानी सबसे बड़ी चुनौती है जनता से वापस जुड़ने की। बीजेपी की आक्रामक राजनीतिक कार्यशैली और उग्र हिंदुत्व के इस दौर में कांग्रेस ठिठकी हुई सी लगती है।
उसे नहीं सूझता कि इस उग्रता की काट के लिए वह भी नरम हिंदुत्व नीति अपनाये और तिलक जनेऊ मंदिर दर्शनों के जरिए अपनी हिंदू छाप जनमानस में अंकित करे या उस धर्मनिरपेक्षता पर ही मजबूती से टिकी रहे जो उसकी बुनियाद रही है। फिलहाल तो राहुल दो नावों पर पैर रखे हुए हैं। लेकिन ये उन्हें जानना चाहिए कि भारत जैसे विविध धार्मिक और जातीय अस्मिताओं वाले देश में हिंदूवादी जामा ओढ़े रखने के भी अपने खतरे हैं। शायद राहुल को एक निर्भीक सेक्युलर नेता के रूप में अपनी पहचान विकसित करनी चाहिए।
राहुल की एक चुनौती पार्टी के अंदरूनी टकरावों से निपटने की भी होगी जो वंशवाद, गांधी परिवार से नजदीकी और चाटुकारिता जैसे मुद्दों से ही पनपे हैं। वंशवाद के हवाले से हो रहे और होने वाले हमलों की काट के लिए भी राहुल गांधी को खुद को तैयार करना होगा। वंशवाद भारतीय राजनीति की एक स्वाभाविकता है- यह कहकर इन तीखे हमलों से नहीं बचा जा सकता। इन हमलों का जवाब वह एक बड़ी लकीर खींच कर ही दे सकते हैं। वह बड़ी लकीर ईमानदार और सकारात्मक नेतृत्व, राजनीतिक निष्ठा, समर्पण और साहस से बनेगी। पार्टी के विभिन्न टापुओं को एकीकृत कर राहुल कांग्रेस के भीतर सर्वमान्यता हासिल कर सकते हैं।
कांग्रेस संगठन इस समय जर्जर है। चुनावी प्रबंधन के नाम पर कार्यकर्ता से लेकर नेता तक दुविधा और आलस्य के शिकार हैं और बाज दफा वे या तो उम्मीद छोड़ चुके हैं या किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में है। राहुल को संगठन की नींद तोड़नी होगी और उसमें एक नयी इच्छाशक्ति का विकास करना होगा। अपनी ही निरीह परछाई बन गयी कांग्रेस का वजूद खड़ा करना राहुल की बड़ी चुनौती होगी।
राहुल एक बीमार पार्टी के स्वनियुक्त डॉक्टर सरीखे हैं। राजनीतिक दूरियों को नापने के लिए उन्हें गठबंधनों और सहयोगियों की तलाश भी करनी होगी। उन्हें पार्टी और पार्टी से इतर ऐसे जानकारों की जरूरत होगी जो सही समय पर सही राय दे सकें और सही दिशा में प्रेरित करते रह सकें। लेकिन ऐसे लोगों को अपने साथ रखने के लिए राहुल को एक दूरदर्शी और ईमानदार नजर भी विकसित करनी होगी।
राहुल गांधी की राजनीति का इस समय सबसे स्पष्ट, सकारात्मक और निर्विवाद पहलू यही है कि वह मोदी के खिलाफ सबसे मुखर विपक्ष बनकर उभरे हैं। मोदी, बीजेपी और संघ के सबसे ज्यादा निशाने पर राहुल गांधी ही रहते आए हैं और एक तरह से चौतरफा हमले, राहुल की जैसी भी सही एक तय राह भी बनाते हैं। और संदेश यह जाता है कि वह मोदी विरोध के प्रतीक हैं। लेकिन सरकार की विफलताएं गिनाते रहने से ही राहुल गांधी की राजनीति नहीं चमकती रह सकती। गंभीर, विवादास्पद मुद्दों, खासकर लव जेहाद और गोरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा पर पार्टी उतनी मुखर नहीं दिखी जितना संभवतः उससे अपेक्षा की गयी थी। किसान और मजदूर आंदोलनों पर भी कांग्रेस कोने में पड़ी रही।
जनवरी 2013 में राहुल पार्टी उपाध्यक्ष बने थे। सोनिया गांधी रोजाना की सक्रियताओं से दूर हुई थीं, 2014 का चुनाव कांग्रेस के लिए एक बड़े झटके की तरह था। लेकिन ये भी ध्यान देने वाली बात है कि बीजेपी को उन चुनावों 31 फीसदी मत मिले थे और कांग्रेस को 19 फीसदी से कुछ ज्यादा।
यानी सीटों में बड़ी गिरावट के बावजूद मत प्रतिशत के लिहाज से पार्टी का इतना बुरा हाल नहीं था। इसका अर्थ ये भी है कि राहुल गांधी के पास खोयी जमीन को फिर से हासिल कर सकने का अवसर है। आज के बाद कांग्रेस ही नहीं बल्कि अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी को भी दो बातें याद रखनी होगीः "करो या मरो'', और "अभी नहीं तो कभी नहीं।''
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी