आसियान (दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का आर्थिक संगठन) देशों के साथ 'मुक्त व्यापार करार' कर पाना भारत के लिए कठिन है। भारत पाम तेल, काली मिर्च, चाय-कॉफी पर से सीमा शुल्क की दर में 50 प्रतिशत तक की कमी करने के लिए तैयार है, किंतु आसियान देश चाहते हैं कि पाम तेल पर शुल्क घटाकर 30 प्रतिशत किया जाए एवं कालीमिर्च, चाय व कॉफी पर 20 प्रतिशत। भारत के लिए ऐसा करना कठिन है। दूसरी ओर 'ईएएस' के 16 देशों के संगठन में भी भारत को एक नहीं, अनेक रोड़ों का सामना करना पड़ सकता है। 21 नवंबर को सिंगापुर में इनकी शिखर बैठक हो रही है। ऐसे में तब उपाय यही है कि वह इन संगठनों के देशों के साथ अलग-अलग द्विपक्षीय समझौते करे, जो कि अधिक कष्टदायक है।
गत छः वर्षों से भारत आसियान (दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का संगठन) देशों के साथ मुक्त व्यापार करार (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट या एफटीए) करने के लिए उतावला बना रहा है एवं आसियान देशों को एक के बाद दूसरी व्यापारिक रियायत देने की पेशकश करता रहा है। रियायत देने का मतलब यही है कि आसियान देशों के माल को भारत में प्रवेश देने की सहूलियत देना या सीमा शुल्क को रियायती बनाना। हजार प्रयास करने पर भी भारत आसियान देशों को संतुष्ट नहीं कर पाया है और अब लगता है कि इन देशों के साथ मुक्त व्यापार करार करना भारत के लिए सरल नहीं है- लिहाजा आसियान देशों से भारत को अपनी जाजम समेटना पड़ सकती है।
भारत को इसकी आशंका पहले ही थी और इसीलिए वह 2003 से 'ईएएस' (ईस्ट एशिया सम्मिट) के 16 देशों के संगठन में शामिल होकर 'विस्तृत आर्थिक भागीदारी करार' के प्रयास में था। इस संगठन में आसियान के दस देशों के अलावा चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, भारत, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड हैं। इसमें भी आसियान देश होने के कारण कृषि वस्तुओं के व्यापार करार में भारत को परेशानी हो रही है।
महत्वपूर्ण बात यही है कि द्विपक्षीय करारों की तुलना में क्षेत्रीय करार अधिक महत्वाकांक्षी नहीं होते और उसमें अधिक से अधिक देशों के विपरीत हितों का ध्यान रखना पड़ता है। आज विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में अमेरिका एवं योरपीय यूनियन को जो परेशानियाँ आ रही हैं, ठीक वैसी ही झंझटों का सामना भारत को आसियान व ईएएस संगठन से करना पड़ रहा है।
डब्ल्यूटीओ में भारत सहित अन्य विकासशील देश माँग कर रहे हैं कि अमेरिका तथा योरपीय यूनियन के देश अपने कृषि उत्पादों पर सबसिडियाँ कम करें, क्योंकि सबसिडियों की वजह से विश्व बाजार में उनके कृषि उत्पाद अधिक सस्ते होते हैं- इस वजह से विकासशील देश न तो अपने कृषि उत्पादों का निर्यात बढ़ा पाते हैं और न निर्यात से अधिक लाभ कम पाते हैं। इसी तरह आसियान संगठन के कुछ देश जैसे मलेशिया, इंडोनेशिया एवं ताईवान का कहना है कि वे पाम तेल, रबर, चाय, कॉफी व कालीमिर्च का उत्पादन बहुत करते हैं।
अगर भारत इन वस्तुओं के आयात पर आरोपित सीमा शुल्क घटा दे तो वे भारत को अधिक निर्यात कर सकते हैं, किंतु भारत का कहना है कि उसने भरसक प्रयास करके अपने यहाँ तिलहन की खेती को बढ़ावा दिया है, जिससे भारत में सींगदाना, सोयाबीन, सरसों आदि का उत्पादन बढ़ा है। अगर पाम तेल पर आयात शुल्क घटा दिया तो भारत में तिलहन की खेती गड़बड़ा जाएगी एवं किसानों को भारी हानि होगी। यही स्थिति चाय, कॉफी, कालीमिर्च की खेती की है। यानी समझौता करने के लालच में भारत अपने किसानों के हित को कैसे अनदेखा कर सकता है?
अब 21 नवंबर को सिंगापुर में ईएएस देशों का तीसरा सम्मेलन हो रहा है और लगता नहीं है कि उसमें भारत को कोई बहुत बड़ी सफलता मिल पाएगी। 1992 से भारत आसियान देशों के बाजार में मुक्त व्यापार करार के तहत प्रवेश पाना चाहता है, ताकि अपने निर्यात व्यापार को तेजी से बढ़ा सके। ईस्ट एशिया भारत का एक खासा बड़ा द्विपक्षीय व्यापार का हिस्सा है एवं चीन व आसियान देशों सहित उसका विदेश व्यापार इस क्षेत्र में 53 अरब डॉलर से अधिक का है। इसीलिए भारत ईएएस देशों के साथ अलग-अलग द्विपक्षीय व्यापार करार करना चाहता है एवं इसके लिए वार्ता का दौर भी जारी है।
जापान, दक्षिण कोरिया के अलावा चीन, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड के साथ करार के प्रयास में हैं। वैसे भारत ने ब्राजील, मलेशिया, श्रीलंका व सिंगापुर के साथ विस्तृत आर्थिक सहयोग का करार कर लिया है। इन देशों की जनसंख्या तथा व्यापार का दायरा बहुत सीमित है। लिहाजा जब तक मलेशिया एवं इंडोनेशिया को भारत संतुष्ट नहीं कर लेता तब तक आसियान देशों के साथ कोई करार संभव नहीं लगता।
दूसरी एवं अधिक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चीन वैसे भारत के साथ करार के लिए तैयार है, किंतु देश के निर्माता (मैन्यूफेक्चरिंग) उद्योग चीन के साथ करार नहीं चाहते, क्योंकि चीन की औद्योगिक उत्पादन क्षमता बहुत बढ़ी-चढ़ी है। जब अमेरिका जैसे देश में चीन से होने वाला आयात 50 प्रतिशत एवं योरपीय यूनियन में 30 प्रतिशत तक बढ़ सकता है तो भारत के बाजार का क्या होगा? भारत ने आसियान देशों के साथ यह भी प्रयास किया था कि पहले 'सेवाओं एवं निवेश' का करार कर लिया जाए, किंतु आसियान देश पहले 'कृषि उत्पादों' के करार को महत्व दे रहे हैं।
ऐसे क्षेत्रीय व बहुपक्षीय करारों से हर देश को कुछ न कुछ अतिरिक्त लाभ मिलता है एवं देश की आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने में सहायता मिलती है, वहीं जोखिमों व कमजोरियों से कुछ सुरक्षा मिल जाती है। अब सभी देश यह जानते हैं कि भारत के पास संगठन के देशों को देने के लिए काफी कुछ है। भारत के पास कुशल कारीगरों की फौज है। अच्छे पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी हैं, आईटी, सॉफ्टवेयर, बीपीओ, फार्मास्युटिकल्स, केमिकल्स एवं धातु क्षेत्र में दुनिया की जानी-मानी कंपनियाँ हैं, आर्थिक व वित्तीय क्षेत्र की शानदार संस्थाएँ हैं। निवेश, अनुसंधान तथा विकास में भी देश आगे हैं एवं भारत के आर्थिक विकास (जीडीपी) की दर तेज-तर्राट है। लगता है कि इन तमाम उपलब्धियों की वजह से संगठन के देशों में भय है कि कहीं भारत उन पर छा न जाए। इसीलिए वे अपनी जिद पर अड़े हुए हैं।