पर्युषण पर्व पर्वों में सिरमौर- तरुणसागर
पर्युषण : विचार शुद्धि का महा अनुष्ठान
हिंदुओं में जो महत्व नवरात्रि का है, जो महत्व रमजान का है, जो महत्व गुरु पर्व का है, जो महत्व बुद्ध पुर्णिमा का है वही महत्व जैनों में पर्युषण पर्व का है। पर्युषण पर्व पर्वों में सिरमौर है। जैनियों की आस्था का केन्द्र और विश्व शांति का सुधार है। खुद को तपाकर आदर्श विश्व निर्माण करने की प्रक्रिया और जीवन जाने की कला है। पर्व दो तरह के होते हैं लौकिक और आध्यात्मिक। रक्षाबंधन, होली, दीपावाली, दशहरा आदि लौकिक पर्व हैं। इन पर्वों में अच्छा खाना-पीना, पहनना, दिखना, दिखाना ही मुख्य होता है। जबकि आध्यात्मिक पर्व अपने अंतरंग में तप, त्याग और साधना का संदेश देते हैं। पर्युषण तप साधना का वह मार्ग है जो जीवन शुद्धि का सबक देता है।पर्यावरणविद् बढ़ते प्रदूषण को लेकर चिंतित हैं। जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण ने उन्हें परेशान कर रखा है। ग्लोबल वार्मिंग क्या है? आध्यात्मविदों का माना है कि प्रदूषण का समाधान पर्युषण है। पर्युषण मन में उठने वाले कुत्सित विचार शुद्धि का महा अनुष्ठान है। मुझे लगता है कि आज सबसे बड़ा विचारों का प्रदूषण है। आदमी अपने अलावा और किसी का भला सोचता ही नहीं है। प्रार्थना भी करता है तो कहता है हे प्रभु! मैं सुखी रहूँ, मेरी बीवी-बच्चे सुखी रहें। बाकी दुनिया जाए भाड़ में। आज के आदमी का भोजन ही तामसिक नहीं हुआ है बल्कि उसका भजन भी तामसिक हो गया है। दुनिया से आग्रह करूँगा कि वे अपने पेट में पानी ही छानकर न डालें बल्कि दिमाग में विचार भी छान कर डालें। शुद्ध विचार ही सुखी संसार के कारण हैं। भाद्रपद मास की शुक्ला पंचमी से चर्तुदशी तक दस दिवसीय यह संस्कार-यज्ञ अपने भीतर झाँकने का अवसर मुहैया कराता है। दरअसल यह पर्व त्योहार नहीं वरन् जीवन शुद्धि का विधान है। पर्युषण पर्व कोई जश्न भी नहीं वरन् अंतःकरण में उठने वाला प्रश्न है। यह पर्व स्वयं को परखने का कसौटी, अपने घर लौट आने का निमंत्रण, अपने चरित्र पर प्रश्न चिह्न लगाने का अवसर और खुद की ओर उँगली उठाने का संदर्भ है। सच्चरित्र, पारदर्शिता और प्रमाणिकता की जीवन शैली दुनिया को स्वर्ग में तब्दील करने की क्षमता रखती है लेकिन पैसे की हवस ने आज के आदमी को अंधा बना दिया है। यह पर्व आदमी को सिखाता है कि जीवन में पैसा 'कुछ' हो सकता है, 'बहुत कुछ' भी हो सकता है लेकिन 'सब कुछ' नहीं हो सकता।पंडित महावीर स्वामी के शब्दों में इस पर्व का प्रतिवर्ष इसीलिए महत्व है ताकि सालभर में हम जहाँ-जहाँ भी फिसले गिरे, वहाँ संभले और नए संकल्प के साथ दीप जलाएँ ताकि अधर्म का नाश हो सके और धर्म का प्रकाश हो सके। भोजन शरीर की खुराक है और भजन आत्मा की। भक्त इस पर्व के दौरान आत्मा को खुराक देने का जतन करता है। अपने काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि विकारों पर अंकुश रखकर संयम की साधना करता है।