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Written By WD Feature Desk
Last Modified: शनिवार, 30 नवंबर 2024 (11:59 IST)

कौन है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जिनकी दरगाह पर मचा है बवाल?

कौन है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जिनकी दरगाह पर मचा है बवाल? - Hazrat khwaja moinuddin chishti ajmeri Sharif Dargah
Ajmeri masjid:राजस्थान के अजमेर में शिया मुस्लिमों के संत ख्‍याजा मोइनुद्दीन चिश्ती की विश्व प्रसिद्ध दरगाह है। अजमेर के पास ही हिंदुओं का प्राचीन तीर्थ पुष्करजी है। अजमेर का प्राचीन नाम अज्मेरू था। यह शहर बसाकर मेवाड़ की नींव रखने वाले महाराज अजमीढ़ जी, मैढ़क्षत्रिय स्वर्णकार समाज के आदि पुरुष माने जाते हैं। अजमेर भारत की प्राचीन नगरी है। यहां पर पहले एक संस्कृत पाठशाला और भव्य मंदिर हुआ करता था। इसी पवित्र नगरी पर पृथ्वीराज चौहान का शासन था। यहीं पर 800 वर्ष पूर्व ईरान से आए एक सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती?
 
कौन है ख्‍यावा मोईनुद्दीन साहब?
ख्वाजा साहब या फिर गरीब नवाज के नाम से मशहूर महान सूफी संत मोईनुद्दीन चिश्ती का जन्म साल 1143 ई. में ईरान (पर्शिया) के सिस्तान इलाके में हुआ था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के पिता एक बड़े कारोबारी थे। लेकिन ख्वाजाजी का मन अध्यात्म में ज्यादा लगता था। इसलिए उन्होंने धार्मिक स्थलों की यात्राएं प्रारंभ की। उसी दौरान उनकी मुलाकात सूफी संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई थी। हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी ने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य मान लिया। तब ख्वाजा जी को 52 साल की उम्र में शेख उस्मान से खिलाफत मिली। इसके बाद वे हज पर मक्का और मदीना गए। वहीं से वह मुल्तान होते हुए भारत के अजमेर आ गए। 
 
ख्वाजा साहब के कारण ही भारत में सूफीवाद का प्रचार प्रसार हुआ। इतिहास के मुताबिक हिन्दुस्तान में सूफीवाद का उद्गम भक्ति आंदोलन की तर्ज पर ही हुआ। सूफी-संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने 11वीं सदी के महान राजा पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में इस जगह को अपनी कर्मभूमि बनाकर भाईचारे का संदेश दिया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के कारण ही भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना हुई। 
 
उल्लेखनीय है कि जयचंद ने दिल्ली की सत्ता को हथियाने के लालच में एक क्रूर और धोखेबाज लुटेरे से मोहम्मद गौरी से हाथ मिला लिया था। गद्दार राजा जयचंद के कारण मोहम्मद गौरी ने 1192 में अजमेर पर चढ़ाई करके वहां के मंदिरों को तोड़ा और खूब लूटपाट मचाकर भाग गया था। इसके बाद ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ईरान से मदीना गए और वहां से सन् 1195 ई. में भारत के अजमेर में आकर यहीं बस गए थे। वर्ष 1230 ईस्वी में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के निधन के बाद उन्हें अजमेर में ही दफना दिया गया। जहां उनको दफनाया गया था वहां पर उनके भक्तों के एक बड़ी कब्र बनवा दी थी। आज उनकी वही कब्र यानी दरगाह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ की दरगाह के नाम से जानी जाती है। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि पर हर साल दरगाह पर उर्स मनाया जाता है। 
 
अजमेर दरगाह शरीफ का परिचय: तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है...यहाँ ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है। दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बेहद खूबसूरत है। इसका कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहाँगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चाँदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहाँ कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं। दरगाह के बरामदे में दो बड़ी देग रखी हुई हैं...इन देगों को बादशाह अकबर और जहाँगीर ने चढ़ाया था। सूफी संत मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर पर माथा टेकने वालों में मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक यहां पर प्रतिदिन 20 से 22 हजार लोग दरगाह पर माथा टेकने आते हैं जिन्हें जायरीन कहा जाता है। ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह दुनियाभर के सूफियों के लिए एक प्रमुख स्थल है।