-अथर्व पंवार
पेशवा बाजीराव बल्लाल एक महान योद्धा थे उन्होंने अपने चालीस वर्ष के जीवन में बयालीस युद्ध लड़े और सभी में वह विजयी रहे। उनका कुशल नेतृत्व ऐसा था कि उनका और शिवाजी महाराज का अनुसरण कर उनके सैनिक किसी भी विषम परिस्थिति को सरलता से पार कर जाते थे। उनके सैन्य नेतृत्व की एक और विशेषता यह थी कि वह सभी सैनिकों के बीच एक सैनिक बनकर ही सभी से व्यक्तिगत रूप से मिलते थे न कि एक सेनापति बनकर। इसके अलावा वह ऊंच नीच के भेद के भी विरोधी थे। इसका प्रमाण हमें इतिहास के एक अध्याय से मिलता है।
हिन्दू पद पादशाही की स्थापना के लिए बाजीराव निरंतर आगे बढ़ रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने मालवा की शिप्रा नदी पार की। मांडव , धार, उज्जैन, देवास आदि के मुग़ल सरदारों को उन्होंने परास्त किया। उज्जैन में मुश्ताक अली नाम का मुग़ल सरदार बैठा था जिसके क्रूर शासन और अत्याचारों से प्रजा त्रस्त थी। बाजीराव महान ने अपनी गुप्त कूटनीति से मुश्ताक अली के सेनाधिकारियों को अपने पक्ष में कर लिया था। आज जिसे हम सर्जिकल स्ट्राइक कहते हैं, उसी प्रकार बाजीराव महान के नेतृत्व में धावा बोला गया, मराठा सेना के साथ मुश्ताक अली के सेनाधिकारी भी हर हर महादेव और जय एकलिंग जी के जयघोष से युद्ध में आ गए।
इस अचानक हुए आक्रमण से मुश्ताक अली घबरा गया और चपलता से उसने अपनी बची हुई सेना को एकत्र किया। उसने अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन किया पर मराठा सेना के एक तीरंदाज के तीर के आघात से ही उसने प्राण त्याग दिए। उस एक तीर से ही उसका शीश धरती पर एक गेंद के सामान लुढ़क गया। मराठा सेना विजय हुई और बाजीराव महान ने महाकालेश्वर मंदिर में अभिषेक भी किया। बाजीराव का स्वप्न था कि जिस प्रकार महाकालेश्वर को मुक्त किया है उसी प्रकार काशी विश्वनाथ को भी मुक्त करेंगे।
इस विजय का उत्सव उनकी पूरी छावनी में मन रहा था। एकाएक उनके तम्बू में एक व्यक्ति आया। उसने परिचय दिया कि उसका नाम श्रीधर देवल है और वह एक ब्राह्मण है। बाजीराव महान उस समय प्रसन्न अवस्था में थे उन्होंने ब्राह्मण को दक्षिणा देने का आदेश दिया,पर उस व्यक्ति ने कहा कि वह दक्षिण लेने नहीं आया। वह शिकायत करने आया है। बाजीराव ने उनसे विनम्र भाव से उनकी शिकायत पूछी। उस व्यक्ति ने कहा कि वह आठ दिन पहले ही सेना में आया है और बाजीराव महान से पहली बार मिल रहा है।
उसकी शिकायत तुलसीदास खण्डेराव के विरोध में है। तुलसीदास एक महार है और वह एक ब्राह्मण, दोनों के तम्बू लगे हुए हैं और तम्बू के स्पर्श से उसका धर्म बिगड़ता है। इससे उसका पाप बढ़ता है। उसकी प्रार्थना थी कि उस महार का तम्बू दूर लगाया जाए।
यह सुनकर बाजीराव जो प्रसन्न और शांत थे एकदम क्रुद्ध हो गए, सिंह की भांति दहाड़ कर उन्होंने अपनी तलवार म्यान से निकाल ली। उन्होंने कहा "सुनो श्रीधर देवल, यहां मात्र तलवार की जाति पहचानी जाती है, उसे चलाने वाले की नहीं।
तुमने सुना है -जात न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़े रहने दो म्यान।
यहां भी वही नियम लागू है ,
जात न पूछो वीर की देखो उसका शौर्य, कैसा शस्त्र चलता है, कैसा उसका धैर्य।"
बाजीराव महान ने फिर कुछ सोचकर कहा कि उन्हें ध्यान में आ गया है, पिछले सप्ताह ही सेना में नई भर्ती हुई थी। तुम उसमें आए हो। उन्होंने दहाड़ते हुए श्रीधर से पुछा कि जब वह यवनों की गुलामी करता था, मूर्ति तोड़ने वालों और गाय को खाने वालों के फेंके हुए टुकडे खाता था,तो उसका धर्म भ्रष्ट नहीं हुआ था? धर्म का ज्ञान तुम्हें हमारे बहादुर तुलसीदास से सीखना चाहिए। वह धर्मरक्षक और धर्मवीर है। वह यहां मातृभूमि के लिए आया है, पेट पालने के लिए नहीं। बाजीराव महान ने आवेग में कहा कि हमारी सेना धर्मवीरों की सेना है जहां ऊंच नीच का भेद नहीं माना जाता, सभी एक ही जाति के माने जाते हैं। अगर तुम्हें यह सिद्धांत ठीक नहीं लगते हैं तो यहां से चले जाओ।
यह शब्द बाजीराव महान के ह्रदय से निकल रहे थे। इन वचनों से श्रीधर देवल बहुत प्रभावित हुआ। उसे धर्म का वास्तविक ज्ञान मिल गया था। उसे अपनी भूल ज्ञात हुई और वह बाजीराव महान के पैरों में गिर गया। उसने उन्हें एकनिष्ठ रहने का वचन भी दिया।
तो ऐसे थे हमारे पेशवा बाजीराव महान, और ऐसे थे उनके उत्कृष्ट विचार। बाजीराव पेशवा की महानता इतनी विराट है कि उन्हें कुछ शब्दों में नहीं समझा जा सकता। भारतमाता के इस वीर को कोटि कोटि नमन।
सन्दर्भ - बाजीराव महान, प्र.ग.सहस्रबुद्धे