Lord Parashurama Jayanti 2020
- पं. रामहरि शर्मा 'सरल'
सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल में राजाओं की निरंकुशता से जनजीवन त्रस्त और छिन्न-भिन्न हो गया था। दीन और आर्तजनों की पुकार को कोई सुनने वाला नहीं था।
ऐसी परिस्थिति में महर्षि ऋचिक के पुत्र जमदग्नि अपनी सहधर्मिणी रेणुका के साथ नर्मदा के निकट पर्वत शिखर पर जमदग्नेय आश्रम (अब जानापाव) में तपस्यारत थे। उन्होंने पराशक्ति का आह्वान किया, उपासना की तब लोक मंगल के लिए वैशाख शुक्ल तृतीया को पराशक्ति, परमात्मा, ईश्वर का मध्यरात्रि को अवतरण हुआ। आश्रम में उत्साह का वातावरण फैला।
ज्योतिष एवं नक्षत्रों की यति-मति-गति अनुसार बालक का नाम 'राम' रखा गया। बालक अपने ईष्ट शिव का स्मरण करते हुए ब़ड़ा होने लगा। राम का अपने ईष्ट शिव से साक्षात्कार हुआ। अमोघ शस्त्र परशु (फरसा) और धनुष प्राप्ति के साथ शक्ति अर्जन हेतु मां परांबा, महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी की आराधना का आदेश भी प्राप्त किया।
परशुधारी परशुराम को शास्त्र विद्या का ज्ञान जमदग्नि ऋषि ने दे दिया था, किंतु शिव प्रदत्त अमोघ परशु को चलाने की कला सीखने के लिए महर्षि कश्यप के आश्रम में भेजा। परशुराम शस्त्र कला में पारंगत होने के बाद गुरु से आशीर्वाद प्राप्त कर पिता के आश्रम लौटे। वहां पिता का सिर ध़ड़ से अलग, आश्रम के ऋषि, ब्राह्मण और गुरुकुल के बालकों के रक्तरंजित निर्जीव शरीर का अंबार प़ड़ा मिला। परशुराम हतप्रभ हो गए। इसी बीच माता की कराह और चीत्कार सुनाई दी। दौ़ड़कर माता के निकट पहुंचे। माता ने 21 बार छाती पीटी।
परशुराम ने सब जान लिया कि कार्तवीर्य (सहस्रबाहु) के पुत्र एवं सेना ने तांडव मचाया है। परशुराम वायु वेग से माहिष्मति पहुंचे। उन्होंने कार्तवीर्य की सहस्र भुजाओं को अपने प्रखर परशु से एक-एक कर काट दिया। अंत में शीश भी काटकर धूल में मिला दिया।
इतना ही नहीं, परशुराम का परशु चलता ही रहा और एक-एक अनाचारी को खोज-खोजकर नष्ट कर दिया। परशुरामजी से यह कृत्य लोकहित में ही हुआ है किंतु कतिपय लोगों ने उन्हें आवेशी करार दिया है। परशुरामजी में आवेश का प्रादुर्भाव कभी नहीं हुआ। परिस्थितिजन्य स्थिति में कोमल भी कठोर हो जाता है। परशुरामजी के कोमल मन में आवेश नहीं, कठोरता का प्रादुर्भाव अवश्य होता रहा है।
यदि हम पुराणों का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि ब्राह्मण जाति और सर्व समाज के हितैषी भगवान परशुराम दया, क्षमा, करुणा के पुंज हैं, साथ ही उनका शौर्य प्रताप हम में ऊर्जा का संचार करने में समर्थ है।
आवश्यकता है उनको पूजने की, उनकी आराधना करने की।
- पं. रामहरि शर्मा 'सरल'
सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल में राजाओं की निरंकुशता से जनजीवन त्रस्त और छिन्न-भिन्न हो गया था। दीन और आर्तजनों की पुकार को कोई सुनने वाला नहीं था।
ऐसी परिस्थिति में महर्षि ऋचिक के पुत्र जमदग्नि अपनी सहधर्मिणी रेणुका के साथ नर्मदा के निकट पर्वत शिखर पर जमदग्नेय आश्रम (अब जानापाव) में तपस्यारत थे। उन्होंने पराशक्ति का आह्वान किया, उपासना की तब लोक मंगल के लिए वैशाख शुक्ल तृतीया को पराशक्ति, परमात्मा, ईश्वर का मध्यरात्रि को अवतरण हुआ। आश्रम में उत्साह का वातावरण फैला।
ज्योतिष एवं नक्षत्रों की यति-मति-गति अनुसार बालक का नाम 'राम' रखा गया। बालक अपने ईष्ट शिव का स्मरण करते हुए ब़ड़ा होने लगा। राम का अपने ईष्ट शिव से साक्षात्कार हुआ। अमोघ शस्त्र परशु (फरसा) और धनुष प्राप्ति के साथ शक्ति अर्जन हेतु माँ पराम्बा, महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी की आराधना का आदेश भी प्राप्त किया।
परशुधारी परशुराम को शास्त्र विद्या का ज्ञान जमदग्नि ऋषि ने दे दिया था, किंतु शिव प्रदत्त अमोघ परशु को चलाने की कला सीखने के लिए महर्षि कश्यप के आश्रम में भेजा। परशुराम शस्त्र कला में पारंगत होने के बाद गुरु से आशीर्वाद प्राप्त कर पिता के आश्रम लौटे। वहां पिता का सिर ध़ड़ से अलग, आश्रम के ऋषि, ब्राह्मण और गुरुकुल के बालकों के रक्तरंजित निर्जीव शरीर का अंबार प़ड़ा मिला। परशुराम हतप्रभ हो गए। इसी बीच माता की कराह और चीत्कार सुनाई दी। दौ़ड़कर माता के निकट पहुंचे। माता ने 21 बार छाती पीटी।
परशुराम ने सब जान लिया कि कार्तवीर्य (सहस्रबाहु) के पुत्र एवं सेना ने तांडव मचाया है। परशुराम वायु वेग से माहिष्मति पहुंचे। उन्होंने कार्तवीर्य की सहस्र भुजाओं को अपने प्रखर परशु से एक-एक कर काट दिया। अंत में शीश भी काटकर धूल में मिला दिया।
इतना ही नहीं, परशुराम का परशु चलता ही रहा और एक-एक अनाचारी को खोज-खोजकर नष्ट कर दिया। परशुरामजी से यह कृत्य लोकहित में ही हुआ है किंतु कतिपय लोगों ने उन्हें आवेशी करार दिया है। परशुरामजी में आवेश का प्रादुर्भाव कभी नहीं हुआ। परिस्थितिजन्य स्थिति में कोमल भी कठोर हो जाता है। परशुरामजी के कोमल मन में आवेश नहीं, कठोरता का प्रादुर्भाव अवश्य होता रहा है।
यदि हम पुराणों का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि ब्राह्मण जाति और सर्व समाज के हितैषी भगवान परशुराम दया, क्षमा, करुणा के पुंज हैं, साथ ही उनका शौर्य प्रताप हम में ऊर्जा का संचार करने में समर्थ है।
आवश्यकता है उनको पूजने की, उनकी आराधना करने की।