गंगा तीरे पुण्य का हारमोन...!
- निर्मला भुराड़िया
प्रसिद्ध लेखक एवं यायावर मार्क ट्वेन ने 1895 में भारत के कुंभ मेले में शिरकत की थी। इतने सारे लोग बगैर किसी योजना व बुलावे के कैसे निश्चित तिथि पर निश्चित जगह आ पहुँचे हैं? यह सोचते हुए उनके सुखद-विस्मय की कोई सीमा नहीं थी।उन्होंने लिखा है कि आस्था की यह शक्ति अद्भुत है कि लाखों की संख्या में वृद्ध, युवा, स्त्री, पुरुष, स्वस्थ, अपंग, कमजोर, सशक्त इस समागम में बगैर झिझक व बगैर शिकायत शिरकत करते हैं। यह आस्था है या भय, जो भी है इतने बड़े सैलाब का उमड़ना अकल्पनीय और अद्भुत है। खासकर हम ठस श्वेतजनों के लिए (उन्होंने द कोल्ड वाइट्स शब्द का उपयोग किया है)।उनको यह कहे कई दशक गुजर चुके हैं। अब हम सूचना क्रांति के युग में रहते हैं। योजनाएँ बनाकर इकट्ठा होते हैं। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के जरिए आभासी जीवन या वर्चुअल लाइफ भी जीते हैं यानी बगैर मिले लोगों से मिल लेते हैं, साक्षात सामने हुए बगैर बात कर लेते हैं, कहीं जाए बगैर घर बैठे दुनिया का नजारा कर लेते हैं। बावजूद इसके कुंभ में आस्था और उसका जादू कम नहीं होता।
धार्मिक आस्था से ज्यादा यह धड़कते जीवन के प्रति आस्था से ज्यादा संबद्ध है। 'भारत' से मिलना हो तो लोग कुंभ में जाते हैं। तरह-तरह के लोग, भाँति-भाँति के नजारे देखने को मिलते हैं। करतबी साधु, तपस्वी योगी, सामान्य गृहस्थजन, बाजीगर, स्नान-अखाड़े, ढोल-ढमाके, गाजे-बाजे एक तिलिस्म-सा सृजित कर देते हैं। जाने कहाँ से लोगों के हुजूम के हुजूम चले आते हैं। रेलगाड़ी की छत, ठेलागाड़ी, हाथी के होदे, बाप का कंधा, बेटे की काँवड़ तक हर सवारी का उपयोग लोग करते हैं। कुंभ और सिंहस्थ जैसे मेलों में उत्साह और जीवन ऊर्जा की एक लहर-सी दिखाई पड़ती है गोया कि पुण्य लेने के बहाने लोग किसी मायावी दुनिया में भागीदारी करने आए हों! यह एक ऐसा जुनून होता है जिसका नशा शिरकत करने पर ही महसूस होता है। आधुनिक भाषा में कहें तो लोगों के इस अनंत प्रवाह में बहने में एड्रीनलीन रश मिलता है। सुखद हार्मोन की यह बढ़ोतरी ही मेले से मिलने वाला पुण्य लाभ है। सशरीर उपस्थित होकर इस हलचल में भागीदारी करना, इस तिलिस्म का जायजा लेना एक रोमांचकारी अनुभव होता है जिसकी बराबरी किसी भी आभासी अनुभव से शायद ही हो सकती है। कुंभ एक अनूठा मेला है, इतना विशाल स्वतःस्फूर्त आयोजन कि दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले। इसीलिए इसमें सिर्फ भारतीय ही शिरकत नहीं करते दुनिया जहान से अब लोग इसकी विशिष्टता को देखने आने लगे हैं। दरअसल श्रद्धालुओं की ऊर्जा की यह लहर ही वह अमृत है जिसने कुंभ मेले की सृष्टि की थी- जैसी कि किंवदंती है।