तीन बार विचार कर लिखती हूँ कहानी
कृष्णा अग्निहोत्री
मैं एक दब्बू, संस्कारों व आदर्शों की घुट्टी पी पली-बढ़ी लड़की बचपन से लेखक बनने का सपना मन में सँजोए थी। मेरा सपना वर्षों तक सुप्त रहा, पर विभिन्न कसैले-मीठे अनुभवों, विभिन्न सोपानों पर इकट्ठा एहसासों के बादलों ने जाने कब संवेदनाओं का तीखा प्रहार कर दिया कि वे सब कागज पर विभिन्न पात्रों में आकार ले बैठे। मैं नहीं जानती थी कि भीतरी कृष्णा इतनी अधिक संवेदनशील कैसे है कि मानव के दर्द दूध में छुपे उबाल से बाहर जब-तब छलकने लगते हैं और तब कोई कहानी बनती है या उपन्यास सँवर जाता है।विशेष तैयारी से तो नहीं पर मर्मांतक अनुभवों से अवश्य यह विवशता होती है कि कहानी अब लिखनी ही है। हाँ, लिखते समय रचना की सम-सामयिकता, परिवेश व पात्र को समझना चाहती हूँ और उसके द्वारा कुछ सोउद्देश्ता, अर्थवत्ता बने, इतना ध्यान रहता है। जैसे इंदिराजी की मृत्यु व उस पर अनेक नाटकीय प्रसंगों का प्रभाव मुझ पर रहा। मैंने एक जहीन, देशप्रेमी, जीवट वाली महिला की जिंदगी के कई पहलुओं को स्पष्ट करने हेतु 22 पुस्तकें पढ़ीं। '
टपरे वाले' लिखते समय लगातार मेरा ताँगा टपरे वालों के भीतर झाँकने हेतु टपरे वालों के वहाँ ठहरता। मैं उन्हें देखती, समझती, बतियाती और तब लिखती।मेरे पात्र जिस वर्ग के होते हैं, उसको पूरी तरह समझकर कुछ नोट्स लेकर उनकी संरचना होती है। मेरे पात्र कागज पर आते ही मेरे साथ-साथ चलते हैं, जब तक कि मैं उन्हें साकार आकार नहीं दे देती। स्थितियों के अध्ययन पश्चात मैं कहानी या उपन्यास के अंत में कुछ विशेष अवश्य रखना चाहती हूँ, जो कथा को मार्मिक एवं व्यक्तिगत अनुभव होते हुए भी समष्टिगत बना दे। वह मानव, समाज व देश के लिए हितकारी हो। मात्र विवरण व उल्लेख से कहानी-कथा नहीं बनती।रचना रचते समय मेरा विशेष ध्यान रहता है कि उसमें गली-सड़ी रूढ़ियों, विचारों एवं संस्कारों का अनुमोदन न हो, अपितु विरोध हो। मुझे खुद पता नहीं चलता कि मेरे मुख्यधारा के पात्रों में स्त्री विशेष कैसे हो जाती है। मैं प्रोफेसर रही हूँ, तो कुछ बातें वैसे भी जेहन में रही हैं।मेरे पात्र मुझसे बात करते हैं, साथ चलते हैं और रास्ता बनाते जाते हैं। राष्ट्र में घटी किसी भी सामाजिक, राजनीतिक व पारिवारिक घटना से मैं सीधे प्रभावित होती हूँ। जैसे एक जाति विशेष में लड़कियाँ बेची जाती हैं, खबर पढ़ते ही कहानी 'दौड़' बन गई कि अब वहाँ की लड़कियों को इस परंपरा को तोड़ने के लिए दौड़ लगानी ही पड़ेगी।स्त्री पर अत्याचार को मैं नारों या विमर्श में नहीं ढकेलती। वह तो स्वयं ही कथा में समाहित रहता है, ताकि उसे गहराई से समझा जाए, वह भी सदियों तक, ताकि दूर करने का प्रयास सोच व व्यवहार में हो। मेरी स्त्री लिखते समय तटस्थ एवं सजग रहती है। वह जो व्यक्त कर रही है, वह मानव के हित के लिए हो, भले ही वह कड़वा सच या कसैला यथार्थ हो। पारिवारिक रिश्तों, सामाजिक रिश्तों में जो संवेदनाओं का अभाव है, वह मैं रचना प्रक्रियानुसार अवश्य धड़ल्ले व निर्भीकता से प्रस्तुत करने की योजना बनाती हूँ, क्योंकि स्वयं को उन रिश्तों में रखने के पश्चात रिश्तों का खोखलापन खौलकर बाहर आने को आतुर होने लगता है। जब वह रचना में बँध जाता है, उसमें कसावट आती है तो उसे मर्मांतक बनाने की मेरी चेष्टा होती है, ताकि हम इस बदलते परिवेश में टूटते रिश्तों की वेदना व कमी को अनुभव कर सकें।कथा विषय अधिकतर किसी यथार्थ घटना से या स्वयं के अहसास ही से प्रेरित हो कागज पर उतरता है। मैं अधिकतर कहानियों को तीन बार विचार कर लिखती हूँ। मान लो मैंने किसी किशोरी को अपना विषय बनाया तो उसके साथ जुड़ी घटना, उसका परिवेश, संवाद और कहानी लिखने का कारण तय होता है। यदि संतोष न हुआ तो चार बार में भी कथा बनती है, पर यह सिलसिला उपन्यास में नहीं रहता। उपन्यास का विचार पूर्व में ही पूरी तरह बुन लेती हूँ। होमवर्क तैयार रहता है, कुछ नोट्स और विचार तय रहते हैं और एक ही बार में लगातार लिखकर पूरा होता है। जब मैं ऐतिहासिक उपन्यास लिख रही थी तो जोधाबाई को मैंने जयपुर की लायब्रेरी में ढूँढा व नोट्स लिए। इसी प्रकार 'नीलोफर' आँचलिक उपन्यास के समय बालाघाट से अमरकंटक तक की यात्राएँ कीं, बैगा आदिवासियों से मिली, उनसे वार्तालाप किया। जब दुबई गई तो वहाँ के जीवन को जीवंत बनाने हेतु एक खाँचा तैयार हुआ। कल्पना कहीं-कहीं मात्र उपन्यासों में रहती है, कहानियों की भूमि ठोस होती है। रचनाकार बनते ही मैं शिल्पकार की भाँति शब्दों व भाषा को पात्रों के अनुसार ढालने में सावधानी बरतती हूँ।बहुत पहले नौकरी करते समय रात्रि में एक-दो बजे तक लिखने में नहीं थकती थी। अब मुझे प्रातः 10 से 2 बजे तक लिखना अच्छा लगता है। अब कोई भी कागज लिखने के काम में ले लेती हूँ। पहले ऐसा लगता था कि कलम विशेष उपहार की हो, लेकिन अब किसी भी पेन से लगातार लिखती हूँ। मेरी रचना प्रक्रिया योजनाबद्ध नहीं, आंतरिक आवश्यकता है। मैं लेखन से ही जिन्दा हूँ, क्योंकि वही मुझे जीने की ऊर्जा प्रदान करता है। कृष्णा अग्निहोत्री के अब तक 12 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'कुमारिकाएँ', 'बात एक औरत की', 'नीलोफर', 'टपरेवाले', 'निष्कृति', 'मैं अपराधी हूँ' और 'बित्ताभर की छोकरी' खासे चर्चित रहे हैं। 15 कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। कृष्णाजी की आत्मकथा के दो खंड 'लगता नहीं है दिल मेरा' व 'और और औरत' भी पाठकों द्वारा पसंद किए गए हैं। कृष्णाजी को वाग्मणी सम्मान, रत्नभारती सम्मान, अहिल्या सम्मान और अजमेर का नागरिक सम्मान भी प्राप्त है।