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यात्रा वृत्तांत : नवाबों के शहर लखनऊ में मेहमाननवाजी का लुत्फ

यात्रा वृत्तांत : नवाबों के शहर लखनऊ में मेहमाननवाजी का लुत्फ - Journey Of Lucknow
बचपन से ही नजाकत, नफासत और नवाबों का शहर लखनऊ मुझे प्रभावित करता रहा है। अपने परिजनों, शिक्षकों और शुभचिंतकों से हमेशा लखनऊ के बारे में सुनता रहा। यही वजह है कि इस शानदार शहर को करीब से देखने की इच्छा बलवती होती रही। आखिरकार पहुंच ही गया लखनऊ। लखनऊ के दोस्तों ने रेलवे स्टेशन पर ही मेरा पुरजोर स्वागत किया। इसके बाद तो मेहमाननवाजी का लंबा लुत्फ उठाने का मौका मिला।
 
लखनऊ के बारे में जैसा सुना था, बिलकुल वैसा ही मैंने महसूस किया। नवाबों के इस शहर की मीठी जुबान और तहजीब का मैं कायल-सा हो गया। नवाबी तहजीब और मीठी जुबान के अलावा यहां ऐसे कई ऐतिहासिक स्थान हैं जिनका दीदार किए बिना आप रह नहीं सकते। यही वजह है कि सैलानियों का तांता यहां सालभर लगा रहता है। 
 
अगर आप यात्रा के शौकीन हैं तो लखनऊ आए बिना आपकी यात्रा मुकम्मल नहीं हो सकती। इस ऐतिहासिक शहर के जर्रे-जर्रे में आपको रूहानी सुकून का एहसास होगा। लखनऊ का इतिहास बहुत पुराना है। पहले इसका नाम लक्ष्मणपुरी, फिर लखनपुरी और बाद में लखनऊ हो गया। 
 
लखनवी अंदाज वाली मिठाइयां आपको बरबस ही लुभाएंगी। यहां की मिठाइयों में रामआसरे, छप्पन भोग, राधेलाल परंपरा और मधुरिमा खास हैं। सन् 1775 से 1856 तक लखनऊ अवध राज्य का राजधानी था। नवाबी काल में अवध के अदब और तहजीब का विकास हुआ। 
 
ऐतिहासिक धरोहर है बड़ा इमामबाड़ा
लखनऊ के वीवीआईपी सरकारी गेस्ट हाउस से अपने दोस्तों के साथ मैं सीधे पहुंचा बड़ा इमामबाड़ा। चारबाग रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी महज 6 किलोमीटर है। यह इमामबाड़ा लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है। इमामबाड़े के मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते ही आपको नवाबी तहजीब का एहसास होने लगेगा। इमामबाड़े की दीवारें नवाबों के रहन-सहन और उनके रुतबों की कहानी कहती नजर आती हैं। आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे। 
 
लखनऊ के बड़े इमामबाड़े को भूल-भुलैया के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसकी बनावट ही ऐसी है। अगर अंदर आपका कोई मित्र या रिश्तेदार बिछड़ गया तो उसे आसानी से ढूंढना मुश्किल हो जाता है। इस इमामबाड़े का निर्माण नवाब आसफउद्दौला ने सन् 1784 में कराया था इसलिए इसे आसफ इमामबाड़े के नाम से यहां के लोग बुलाते हैं। 
 
इस इमामबाड़े की बनावट देखकर आप हैरत में पड़ जाएंगे कि उस जमाने में भी इमारतें बनाने की कला कितनी समृद्ध थी। इमामबाड़े को बनाने वालों ने कितने करीने से इसे गढ़ा होगा। बारीकी से देखने पर इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व का सहज ही आभास होता है। इमामबाड़े का विशाल गुंबदनुमा हॉल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। 
 
विशेषज्ञ बताते हैं कि इस इमारत को बनाने में उस जमाने में लगभग 10 लाख रुपए खर्च हुए होंगे। इमारत बनने के बाद भी इस इमामबाड़े के रखरखाव पर सालाना तकरीबन 4 से 5 लाख रुपए नवाब द्वारा खर्च किए जाते थे। साज-सज्जा पर भी काफी खर्च होते थे।
 
इसी इमामबाड़े में एक मस्जिद भी है। इस मस्जिद को असफी मस्जिद कहते हैं। इस मस्जिद में आज भी इबादत की जाती है। मस्जिद के आंगन में 2 ऊंची मीनारें हैं जिसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। इमामबाड़े के पास ही एक गहरा कुआं है। इमामबाड़े की बावड़ी में नहाने की लिए गोमती नदी का पानी आता है और सुरक्षा के नजरिए से इसे ऐसा बनाया गया है कि अंदर नहा रहा व्यक्ति बाहर वाले को तो देख सकता है, मगर बाहर वाला अंदर नहा रहे व्यक्ति को नहीं देख सकता। 
 
भूल-भुलैया के बारे में कहा जाता है कि इस इमामबाड़े में अनचाहे तौर पर प्रवेश करने वालों के लिए इसे बनाया गया था ताकि अनचाहे मेहमानों और दुश्मनों को रोका जा सके। आपको बताता चलूं कि इस इमारत का हॉल अपने आप में एक अजूबा है। 49.4 मीटर लंबे और 16.2 मीटर चौड़े इस हॉल में एक भी खंभा नहीं है। बिना खंभे के ही छत कामयाबी के साथ खड़ी है। यह इमामबाड़ा मुगल स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना है। 
 
छोटा इमामबाड़ा (हुसैनाबाद इमामबाड़ा)
बड़े इमामबाड़े से महज 1 किलोमीटर की दूरी पर छोटा इमामबाड़ा यानी हुसैनाबाद इमामबाड़ा भी है। छोटे इमामबाड़े का निर्माण अवध के तीसरे नवाब मोहम्मद अली शाह ने कराया था। स्थापत्य कला के इस बेजोड़ नमूने को दूर से ही देखकर आप आकर्षित हुए बिना नहीं रह पाएंगे। आपको करीब जाने का दिल करेगा। 
 
इस इमामबाड़े को देखकर आपको सहज ही ताजमहल का एहसास हो जाएगा, क्योंकि इसकी बनावट काफी हद तक ताजमहल की तरह है। मोहम्मद अली शाह ने इसे 1840 में बनवाया था। इसकी साज-सज्जा काफी आकर्षक है। इमामबाड़े में उस जमाने के झाड़-फानूस लगे हैं और नहाने के लिए एक खास किस्म का हौद बनाया गया है। इस हौद में हमेशा ठंडा और गर्म पानी आता रहता है। मोहम्मद अली शाह को यहीं दफनाया गया था और उनकी पत्नी व बेटी का मकबरा भी यहीं है। 
 
बड़े इमामबाड़े और छोटे इमामबाड़े के बीच कई और ऐतिहासिक इमारतें हैं। इन इमारतों को देखने के लिए प्रवेश पत्र बड़ा इमामबाड़ा के पास ही मिल जाता है। दो इमामबाड़ों के बीच है घड़ी मीनार, पिक्चर गैलरी और रूमी दरवाजा। इमामबाड़े के बाहर बने दरवाजे को ही रूमी दरवाजा कहते हैं। इस दरवाजे के निर्माण में किसी भी तरह के लोहे की रॉड या लकड़ी का उपयोग नहीं किया गया है। ये इसकी खासियत है। इस दरवाजे का निर्माण नवाब आसफ उद्दौला ने सन् 1783 में अकाल के दौरान करवाया था ताकि लोगों को रोजगार मिल सके। इस दरवाजे को तुर्किश गेटवे भी कहा जाता है। 
 
रूमी दरवाजे को काफी देर तक एकटक निहारने के बाद मेरी निगाह घड़ी मीनार पर जाकर ठहर गई। इस मीनार में लगा घड़ी का पेंडुलम लगभग 14 फुट लंबा है और 12 पंखुड़ियों वाला डॉयल खिले हुए फूल की तरह दिखता है। इसे भी एक अजूबा कहा जा सकता है। पिक्चर गैलरी में जाकर आप अवध के नवाबों के तैलचित्र देख सकते हैं। इन तैलचित्रों को बड़े ही करीने से सजाया गया है। यहां आकर लखनवी और नवाबी तहजीब को करीब से देखा जा सकता है। 
 
मोती महल 
लखनऊ आकर ऐतिहासिक मोती महल का दीदार भी किया जा सकता है। यहां गोमती नदी के किनारे 3 ऐतिहासिक इमारतें हैं जिनमें मोती महल प्रमुख है। इन तीनों इमारतों को सआदत अली खां ने बनवाया था। इन इमारतों के बालकनी में खड़े होकर नवाब जानवरों और पशु-पक्षियों के झगड़े देखते थे और खूबसूरत शाम का आनंद उठाते थे। मोती महल के अलावा यहां शाह मंजिल और मुबारक मंजिल है। 
 
बनारसी बाग (चिड़ियाघर)
लखनऊ में बनारसी बाग के रूप में विख्यात यहां का चिड़ियाघर भी आकर्षण का केंद्र है। यहां का वातावरण हरा-भरा है। हरे-भरे माहौल के बीच जानवरों और पशु-पक्षियों के पिंजरे हैं। पिंजरों के अंदर विभिन्न जानवरों और पशु-पक्षियों को देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। बनारसी बाग परिसर में ही एक भव्य संग्रहालय है जिसमें आकर्षक मूर्तियां और कलाकृतियां रखी हैं। आप इन कलाकृतियों का दीदार कर सकते हैं। इस संग्रहालय का मुख्य आकर्षण है रानी विक्टोरिया की प्रतिमा और मिस्र की ममी। इन्हें देखने देश-विदेश के लोग यहां आते हैं, साथ ही मथुरा से मंगवाई गईं मूर्तियां भी आकर्षण का केंद्र हैं। 
 
डॉ. अंबेडकर मेमोरियल पार्क 
अपने मित्र रितेश के अनुरोध पर मैं उसकी मोटरसाइकल पर बैठकर लखनऊ के गोमती नगर स्थित डॉ. अंबेडकर मेमोरियल पार्क पहुंचा। इस पार्क के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था। आखिरकार यहां आने का मौका मिल ही गया। सड़क के किनारे स्थित इस भव्य पार्क में प्रवेश करते ही इसकी खूबसूरती देखकर आंखें चुंधिया गईं। वाकई इस पार्क को काफी करीने से सजाया गया है। पार्क के अंदर की खूबसूरती हमने कैमरे में कैद करना शुरू किया और आगे बढ़ते गए। 
 
कहा जाता है कि इस पार्क के निर्माण में लगभग 700 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। उत्तरप्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने इस पार्क का उद्घाटन 14 अप्रैल 2008 को किया था। इसे डॉ. भीमराव अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल के रूप में भी जाना जाता है। समय-समय पर यह पार्क चर्चा का केंद्र बना रहा। 107 एकड़ जमीन पर बने इस पार्क की इमारतों को बनाने में ज्यादातर राजस्थान के बालुई पत्थर का प्रयोग किया गया है। खुले मैदान में कई स्मारक और कलाकृतियां बनी हुई हैं।
 
आगे जाने पर एक ऊंचा स्तंभ दिखा। इस स्तंभ का नाम है सामाजिक परिवर्तन स्तंभ। इस स्तंभ के चारों ओर हाथी बने हैं। थोड़ा-सा आगे दो स्तूप भी हैं। अंदर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हैं। सीढ़ियों की मदद से हम अंदर दाखिल हुए। अंदर की दीवारों पर उभरी नक्काशियों को देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। गुंबद की छतों को आकर्षक तरीके से सजाया गया है। यहां डॉ. भीमराव अंबेडकर, क्षत्रपति साहूजी महाराज, ज्योतिबा फूले, कांशीराम और मायावती की भव्य प्रतिमाएं लगी हैं। प्रतिमाओं के नीचे परिचय लिखे हैं। लगभग 4 घंटे हमने इस भव्य पार्क में व्यतीत किए। 
 
ब्रिटिश रेजीडेंसी
लखनऊ प्रवास के दौरान एक शाम हमने लखनऊ के हजरतगंज स्थित ब्रिटिश रेजीडेंसी में गुजारे। दरअसल, इसका निर्माण नवाब सआदत अली खां ने 1780 और 1800 के बीच कराया था। यहां ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी रहते थे। यहां 5-6 भवन, बेगम कोठी, मस्जिद, चर्च आदि हैं। आजादी की पहली लड़ाई में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
 
अंग्रेजी बलों और भारतीय विद्रोहियों के बीच की लड़ाई में ब्रिटिश रेजीडेंसी का एक हिस्सा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ। बाद में इसे जस का तस छोड़ दिया गया। राष्ट्रीय स्मारक के रूप में यह आज भी इतिहास की कहानी कह रहा है। रेजीडेंसी की टूटी-फूटी दीवारों में आज भी गोलियों और तोपों के निशान देखे जा सकते हैं। जब भी लखनऊ आना हो, यहां जरूर आएं। 

कुल मिलाकर लखनऊ की मेरी यात्रा काफी यादगार रही। दोस्तों व शुभचिंतकों के साथ घूमने-फिरने के अलावा मैंने लखनवी मिठाइयों, स्वादिष्ट पकवान और मेमाननवाजी का भी भरपूर आनंद उठाया। 
 
बार-बार मैंने यह तकियाकलाम सुना- 'मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं'। अंत में आप लोगों से मैं भी यही कहूंगा- 'मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं'।