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कीमत न समझे कुर्बानी की
महेंद्र तिवारीआजादी का हमने क्या खूब अर्थ निकाला,हत्या कर दी मूल्यों की, दे आधुनिकता का हवाला। आकंठ डूबे आत्मोत्थान में, पीकर अनाचार की हाला, फेंक उतार सत्य की चादर, ओढ़ लिया झूठ का दुशाला।कीमत न समझे कुर्बानी की, शर्मिंदा पूर्वजों को कर डाला,देखकर हिंदुस्तान की हालत, रोते हैं गाँधी, सुभाष और लाला।लुटती इज्जत, उजड़ती माँगें, चारों ओर अराजकता की ज्वाला, देश बना मरघट का नमूना, अपनी जिंदगी हरदम मधुशाला।नीलाम हो गई इंसानियत, खून पड़ गया सामंतों का काला, फुटपाथ हुए गरीबों का घर, संसद ने गुंडों को पाला। आतंक की गिरफ्त में वतन, नजर आता नहीं छुड़ाने वाला,रहनुमाओं की जुबाँ पर डल गया वोट बैंक का ताला। आस्था पर आघात हो रहे, विश्वास को अपनों ने भून डालाखतरे में भगवान का वजूद, धर्म को दे दिया देश निकालाअहसान ना करो झंडे उठाकर, मत पहनाओ मूर्तियों को मालाजगा सको तो जमीर को जगाओ, जिसे तुमने बहुत पहले मार डाला।लौटा सको तो अस्मिता लौटाओ, जिसे वीरों ने बड़े नाज से संभालाजला सको तो जज्बे के दीप जलाओ, जिन्हें शहीदों ने लहू से बाला।