Jallianwala bagh hatyakand story in hindi: 13 अप्रैल 1919... यह तारीख भारत के इतिहास में एक ऐसे क्रूर और अमानवीय हत्याकांड का प्रतीक है जिसने पूरे राष्ट्र की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। यह वही दिन था जब अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता अपने चरम पर थी और निर्दोष भारतीयों के खून से जलियांवाला बाग का मैदान लाल हो गया था। यह नरसंहार न केवल ब्रिटिश राज की नृशंसता को दर्शाता है, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा भी देता है। जलियांवाला बाग हत्याकांड भारतीय इतिहास का वह अध्याय है जो दमन और प्रतिरोध का प्रतीक बन चुका है। यह घटना हर साल हमें यह याद दिलाती है कि स्वतंत्रता कितनी बड़ी कीमत देकर पाई गई थी। आज जब हम 2025 में जलियांवाला बाग दिवस मना रहे हैं, तो आइए जानें इस भयावह हत्याकांड की पृष्ठभूमि, घटनाक्रम और इसके दूरगामी प्रभाव।
पृष्ठभूमि: क्या थी रोलेट एक्ट और विरोध की चिंगारी?
1919 में ब्रिटिश सरकार ने 'रोलेट एक्ट' नाम का एक कानून लागू किया, जिसे काला कानून कहा गया। इसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वह बिना किसी मुकदमे और बिना किसी सबूत के किसी भी भारतीय को गिरफ्तार कर सकती है और अनिश्चितकाल तक जेल में रख सकती है। यह कानून भारतीयों के मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन था।
महात्मा गांधी सहित पूरे देश में इस एक्ट का विरोध होने लगा। पंजाब में यह आंदोलन बहुत तेज़ हो गया, और अमृतसर इस विरोध का केंद्र बन गया। 10 अप्रैल को दो प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं — डॉक्टर सैफुद्दीन किचलू और डॉक्टर सत्यपाल — को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे जनता में आक्रोश और बढ़ गया।
13 अप्रैल 1919: जलियांवाला बाग में नरसंहार की योजना
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का पर्व था, और हजारों लोग अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा में भाग लेने के लिए इकट्ठा हुए थे। इस सभा का उद्देश्य रोलेट एक्ट और गिरफ्तार किए गए नेताओं के विरोध में आवाज़ उठाना था।
जलियांवाला बाग चारों ओर से दीवारों से घिरा हुआ है और अंदर जाने का केवल एक मुख्य रास्ता है। उसी दिन, ब्रिटिश ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर अपने सैनिकों के साथ बाग में पहुँचा। बिना किसी चेतावनी के, डायर ने आदेश दिया कि भीड़ पर गोलियां चला दी जाएं।
हत्याकांड: गोलियों की गूंज और खामोश चीखें
जनरल डायर के आदेश पर सैनिकों ने बाग के एकमात्र संकरे प्रवेश द्वार को घेर लिया और निर्दोष नागरिकों पर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं। भीड़ में महिलाएं, बच्चे, बूढ़े और युवा शामिल थे। लोगों के पास भागने का कोई रास्ता नहीं था। गोलियों से बचने के लिए कुछ लोग दीवारों से टकराए, कुछ कुएं में कूद गए। ब्रिटिश सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इस गोलीबारी में 379 लोग मारे गए, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जांच समिति के अनुसार यह संख्या 1000 से अधिक थी। लगभग 1500 लोग गंभीर रूप से घायल हुए।
जनरल डायर और ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया: जनरल डायर को ब्रिटिश सरकार ने इस "कड़े कदम" के लिए शुरू में समर्थन दिया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब इस घटना की निंदा हुई, तो उन्हें वापस बुला लिया गया और सेवानिवृत्त कर दिया गया। परंतु, ब्रिटेन के कई चरमपंथी वर्गों ने डायर को हीरो माना और उसके सम्मान में चंदा भी इकट्ठा किया।
भारत में यह घटना जन-जन में आक्रोश की आग बन गई। यह वह क्षण था जब कई नरमपंथी भारतीय भी यह समझ गए कि ब्रिटिश शासन सुधारों से नहीं, बल्कि पूर्ण आज़ादी से ही हटेगा।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर प्रभाव: जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नया मोड़ दिया। महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन से पूरी तरह असहयोग की शुरुआत की। यह घटना भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के मन में आज़ादी के लिए जुनून की चिंगारी बनी। रविंद्रनाथ टैगोर ने इस कांड के विरोध में अपनी नाइटहुड की उपाधि लौटा दी। इस नरसंहार ने भारतीय जनता को अंग्रेजों के असली चेहरे से अवगत कराया और जनमानस में क्रांति की भावना को प्रबल किया।
आज का जलियांवाला बाग: एक स्मृति स्थल
आज जलियांवाला बाग को एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में संरक्षित किया गया है। वहां दीवारों पर गोलियों के निशान, शहीद कुआं और शहीद स्मारक आज भी खामोश गवाही देते हैं कि कैसे अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर जुल्म ढाए थे। हर साल हजारों पर्यटक, छात्र और इतिहास प्रेमी यहां आकर उन बलिदानों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
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