* होली-फाग के दोहे : रंगरंगीले त्योहार पर फाग के दोहे...
- माणिक वर्मा
दृष्टि यदि इनसान की, पिचकारी हो जाए
कोई दामन आपको, उजला नजर न आए।
क्या होली के रंग हैं, इस अभाव के संग
गोरी भीतर को छिपे, बाहर झांके अंग।
आशिक और कम्यूनिस्ट की, एक सरीखी रीत
जब तक मुखड़ा लाल है, तब तक इनकी प्रीत।
हम हैं धब्बे रंग के, पीड़ा की औलाद
जीवनभर न हो सके, आंचल से आजाद।
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आसमान का इन्द्रधनुष, कौन धरा पर लाए
जब कीचड़ से आदमी, इन्द्रधनुष हो जाए।
क्या वसंत की दोस्ती, क्या पतझड़ का साथ
हम तो मस्त कबीर हैं, किसके आए हाथ।
ऑक्सीजन पर शहर है, जीवित न रह जाए
मरने वालों देखना, हम पर आंच न आए।
क्या धनिया के आज तक, कोई सपन फगुनाय
होरी मिले तो पूछना, वोट किसे दे आए।
जनता कितनी श्रेष्ठ है, जब चाहे फंस जाए
पहले भीगे रंग में, फिर चूना लगवाए।
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फागुन को लगने लगे, वैसाखी के पांव
इसीलिए पहुंचा नहीं, अब तक अपने गांव।
क्या वसंत का आगमन, क्या उल्लू का फाग
अपनी किस्मत में लिखा, रात-रातभर जाग।
जरा संभल कर दोस्तों, मलना मुझे अबीर
कई लोगों का माल है, मेरा एक शरीर।
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देख नहाए रूप को, पानी हुआ गुलाल
रक्त मनुज का फेंक कर, उसमें विष मत डाल।
उस लड़की को देखकर, उग आई वो डाल
जिस पर कि मसले गए, एक कैरी के गाल।
मछुआरे के जाल में, मछली पीवे रेत
बगुले उसको दे रहे, लहरों के संकेत।
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घूंघट तक तो ठीक था, बोली मारे घाव
हलवाई के गांव में, चीनी का ये भाव।
कोयल बोली कूक कर, आओ प्रियवर काग
यही समय की मांग है, हम-तुम खेलें फाग।
कीचड़ उनके पास था, मेरे पास गुलाल
जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल।
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वो और सहमत फाग से, वह भी मेरे संग
कभी चढ़ा है रेत पर, इन्द्रधनुष का रंग।
एक पिचकारी नेह की, बड़ी बुरी है मार
पड़े तो मन की झील भी, पानी मांगे उधार।
आज तलक रंगीन है, पिचकारी का घाव
तुमने जाने क्या किया, बड़े कहीं के जाव।
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जिन पेड़ों की छांव से, काला पड़े गुलाल
उनकी जड़ में बावरे, अब तो मठ्ठा डाल।
बिल्ली काटे रास्ता, गोरी नदी नहाय
चल खुसरो घर आपने, फागुन के दिन आय।
उधर आम के बौर से, कोयल रगड़े गाल
इधर तू छत पर देख तो, वासंती का हाल।
अमलतास को छेड़ती, यूं फागुनी बयार
जैसे देवर के लिए, नई भाभी का प्यार।
पनवाड़ी का छोकरा, खड़ा कबीरा गाय
दरवाजे की ओट से, कैसे फागुन आए।
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