-डॉ. अखिलेश बार्चे
बात उन दिनों की है, जब मेरा पुत्र 3-4 साल का था। वात्सल्य से भरकर, मनोविनोद के लिए मैं उसे कन्हैया, गोपाल, मुरलीधर, गिरधारी, कृष्ण, कान्हा, मोहन, बंशीधर, रणछोड़, नंदलाल, श्याम, मधुसूदन, वासुदेव, माधव, ऋषिकेश, जनार्दन, योगेश्वर आदि नाम लेकर पुकारता।
मुझे और उसे तो आनंद आता ही, यदि कोई इस चुहलबाजी को सुनता, तो वह भी आनंद से भर जाता। कुछ बड़ा होने पर पुत्र ने पूछा- 'पापा, क्या इतने सारे नाम केवल कृष्ण भगवान के हैं? उनके इतने नाम कैसे पड़े?' और मुझे उसको इन सब नामों का आधार समझाना पड़ा। कितना विचित्र व्यक्तित्व रहा होगा इस दिव्य पुरुष कृष्ण का, जो एक ग्वाले का बेटा होकर भी उस युग का युगपुरुष बना।
श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है। उनके द्वारा युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में संशय मुक्त करने के लिए अर्जुन को दिया गया उपदेश ही श्रीमद् भागवत गीता है। द्वापर युग में विष्णु के इस कृष्ण अवतार ने भारत भूमि पर जन्म लेकर एक व्यक्ति के रूप में जो कुछ किया, वह उन्हें वीर, साहसी, चतुर, नीति-निपुण, कुशल वक्ता व कुशल संगठक सिद्ध करता है।
कृष्ण जन्म भादव मास की घनघोर काली बरसाती रात में (अर्धरात्रि में) हुआ, वह भी उस समय जब कंस के अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए कोई नजर नहीं आता था। यह इसी तथ्य को इंगित करने के लिए था कि जब बुराई बलशाली होकर अजेय होती प्रतीत होती है, तभी इसके विनाश की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
कंस से मुकाबला तो मथुरा में होना था, जो कंस की राजधानी थी, पर कृष्ण ने पूर्व तैयारी के लिए बचपन गोकुल में बिताया। ग्वालों में जागृति पैदा की, उन्हें संगठित किया, जिससे वे शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा सकें। सत्ताधीश कंस के विरुद्ध कृष्ण का संघर्षरत रहना और उनके द्वारा कंस वध, शिशुपाल वध, क्या यह संदेश नहीं देते कि आततायी, अन्यायी से युद्ध करना ही चाहिए, भले ही वह हमारा अपना क्यों न हो?
दुष्टता और छल-कपट के प्रतीक दुर्योधन व शकुनि ने भी जब पांडवों के साथ अनीतिपूर्ण बर्ताव किया तो कृष्ण ने अर्जुन को अन्याय के विरुद्ध अस्त्र उठाने का आव्हान किया।यदि राम ने रावण को हराने में वनवासियों की सहायता ली तो कृष्ण ने कंस का खात्मा ग्रामवासियों की मदद से किया। दोनों मामलों में नायक जनप्रिय रहे। राम हों या कृष्ण, आम आदमी की आशाएँ उन पर टिकी रहीं और उन्हें उन्होंने पूरा किया।
उद्देश्य दोनों का एक ही था, धर्म की स्थापना एवं अधर्म का नाश। साधु-संतों की रक्षा, दुष्टों का संहार। इस उद्देश्य की पूर्ति राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर की और कृष्ण ने तो वर्जनाओं को तोड़ने से भी परहेज नहीं किया। 'शठे शाठ्यम समाचरेत' अर्थात कपटी को कपट से, अधर्मी को अधर्म से मारना भी उनकी दृष्टि में धर्म था।संभवतः त्रेता से द्वापर तक आते-आते दुष्टता इतनी प्रबल हो गई थी कि नियमों की मर्यादा में रहकर इसका मुकाबला करना कठिन था। इसलिए अधर्मियों के नाश व धर्म की रक्षा के लिए महाभारत में कृष्ण कूटनीति से कपटियों को काल-कवलित करते हैं। गहराई से विचार करने पर लगता है कि कौरव पक्ष, पाण्डव पक्ष की तुलना में इतना शक्तिशाली था कि बिना छल-बल के उसे हरा पाना संभव नहीं था। केवल धर्मराज युधिष्ठिर के सत्य धर्म के सहारे भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन, दुःशासन, जयद्रथ, शकुनि आदि की पराजय शक्य नहीं थी। जब धृतराष्ट्र कपटपूर्वक गले लगाने के लिए आगे बढ़े तो लौह प्रतिमा ही आगे बढ़ाना चाहिए। यही कृष्ण ने किया। उनकी मंशा बिलकुल स्पष्ट थी। बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए छोटे उद्देश्यों की बलि चढ़ाने में कोई हर्ज नहीं है।तत्कालीन आर्यावर्त के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाने, द्वारकाधीश कहलाने के बाद भी उनसे बैर भाव रखने वाले समकालीन लोग उन्हें 'ग्वाला' कहकर अपनी खीज निकालते थे। लेकिन कृष्ण को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनकी दृष्टि सदैव अपने लक्ष्य की ओर रहती थी। सामरिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मथुरा छोड़ दी और द्वारका बसाई। '
रणछोड़' कहलाने के भय से उन्होंने भावी सफलता को दाँव पर नहीं लगाया। शकुनि यदि पाँसे के खेल में माहिर था, तो कृष्ण ने योद्धाओं और राज्यों तक का पाँसों की तरह उपयोग किया। राम प्रारंभ से अंत तक राम ही नजर आते हैं। रघुकुल तिलक, मर्यादा पुरुषोत्तम, कर्तव्य परायण, लोककल्याणकारी, मातृ-पितृभक्त, एक पत्नीव्रतधारी, सहज, सरल, सत्यनिष्ठ। लेकिन कृष्ण का स्वरूप सदैव बदलता रहता है। गोकुल में वे नटखट कान्हा, बालमुकुंद, श्यामसुंदर, बंशीवाले, गाय चराने वाले, रास रचाने वाले, माखन चुराने, गोपियों से छेड़छाड़ करने, ग्वाल टोली का नेतृत्व करने वाले नंदकिशोर थे तो मथुरा पहुँचते ही उनके जीवन का एकदम नवीन अध्याय प्रारंभ हो गया। कृष्ण माधुर्य में डूबी 'राधा' सुधबुध भूली अपने बाल सखा की प्रतीक्षा ही करती रह जाती है, पर कृष्ण फिर गोकुल की ओर नहीं पलटते। हस्तिनापुर में फिर हमें एक अलग ही कृष्ण नजर आते हैं, जो प्रखर राजनीतिज्ञ हैं। धीरे-धीरे योद्धा कृष्ण, योगेश्वर और युगपुरुष बन जाते हैं। योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से विश्व को ज्ञान का अनोखा भंडार 'भगवत गीता' दिया जिसके अंतिम श्लोक में वे स्वयं कहते हैं-'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरःतत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा, नीतिर्मतिर्मम..॥'
जहाँ योगेश्वर भगवान कृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री विजय, विभूति और अचल नीति है। कृष्ण उस युग की आवश्यकता थे। हर युग को कृष्ण मिलते हैं, आवश्यकता है पार्थ बनने की।