तस्वीर की बात
बंशीलाल परमार
उनकी संतों में गहरी श्रद्धा थी। थोड़ा बहुत भी समय मिलता तो सत्संग में अवश्य जाते। जीवन के गूढ़ प्रश्न संतों से पूछते। जिन संतों से वे जीवन में प्रभावित रहे, उन संतों के चित्र अपने कक्ष में लगाते। उनके कक्ष की दीवारें साधु-संतों की तस्वीरों से पटी रहती थीं। जो भी उनसे मिलने जाता वे उन्हें अपना वह कक्ष दिखाना नहीं भूलते। लोग उनकी सराहना करते नहीं अघाते। एक बार मुझे उनके कक्ष में जाने का सुअवसर मिला। वे प्रत्येक संत का चित्र बताते हुए उनका परिचय देते जा रहे थे। किस उम्र में साधु बने? कितने वर्ष तपस्या की? कौनसा मठ बनवाया? साथ ही उनके लौकिक-आलौकिक किस्से भी बताए। हाँ, एक मुख्य बात, उक्त संत ने कहाँ? कब-कैसा चमत्कार किया? यह बताना वे कभी नहीं भूलते। सारे चित्रों को देखकर वे मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में थे। मेरे मुख से प्रशंसा के भाव सुनने को आतुर थे। मैंने कहा, "आपके इन संत संग्रह में सब कुछ ठीक है, पर एक बात की कमी है।' वे चौंके, 'क्या कमी है? दास उस कमी को पूरा करने का प्रयत्न करेगा।' मैंने धीमे स्वर में कहा, 'इस संपूर्ण कक्ष में आपके पिताजी की तस्वीर नहीं है।'