नई कविता : मर्यादा
देवेन्द्र सोनी
यह दंभ
पालते ही हैं हम कि
जीते हैं मर्यादित जीवन ।
रहते हैं मर्यादा में सदा ही
पर यदि शांत मन से सोचें
तो पाएंगे
कितनी ही बार जीवन में
टूटी हैं हमसे मर्यादा ।
पहली बार तब तोड़ी थी
मर्यादा
जब जताई थी
पिता के अनुभव से असहमति।
दूसरी बार तब टूटी थी
मर्यादा
जब दिया था मां को जवाब।
फिर इश्क के नाम पर
लगाए थे यहां-वहां चक्कर
की थी कभी छेड़छाड़ भी
और भी न जाने
अपने हित के लिए
कितनी ही बार तोड़ी होंगी
मर्यादा हमने।
पर क्या कभी
इसे स्वीकारा भी है हमने!
नहीं,
यह अनकहा दंभ ही है
जो रोकता रहा है हमको
अपने गिरेबां में झांकने से हरदम
पर समय तो अपने आप को
दोहराता ही है न।
आज जब यही सब लौटता है
बच्चों के माध्यम से हम तक
तो फिर क्यों
होते हैं विचलित ...?
खोते हैं क्यों अपना आपा ..?
जब हमने सीखा ही नहीं
रहना मर्यादा में तो
कैसे रहेंगे बच्चे भी
मर्यादा में ?
जब-जब टूटेंगी मर्यादा
सीता होगी ही अपह्रत
होंगे ही फिर युद्ध भी
मारा जाएगा दशानन भी।
इसलिए
यदि रोकना है इन्हें तो
वक्त अभी भी है
हम सबके पास
बड़े - बुजुर्गों के
अनुभव से सीखने और
बच्चों को सिखाने का ।
मानना ही होगा हमें
उनके संस्कार, उनकी मर्यादा
गढ़ने को अच्छा परिवेश
अच्छा देश ।