नवगीत: घना हो तमस चाहे
अब घना हो तमस चाहे,
आंधियां कितनी चलें।
हो निराशा
दीर्घ तमसा,
या कंटकाकीर्ण पथ हो।
हो नियति
अब क्रुद्ध मुझसे,
या व्यथा व्यापी विरथ हो।
लडूंगा जीवन समर मैं,
शत्रु चाहे जितने मिलें।
ग्रीष्म की जलती
तपन हो या,
हिमाच्छादित
पर्वत शिखर।
हो समंदर
अतल तल या,
सैलाब हो तीखा प्रखर।
चलूंगा में सत्य पथ पर,
झूठ चाहे कितने खिलें।
लुटते रहे
अपनों से हरदम,
नेह न मरने दिया।
दर्द की
स्मित त्वरा पर,
नृत्य भी हंस कर किया।
मिलूंगा मैं अडिग अविचल,
शूल चाहें जितने मिलें।
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