फिल्म 'आवारा' का स्वप्न-दृश्य अपने आप में इतिहास है। सूक्ष्मताओं तथा संवेदनशीलताओं से भरा ऐसा दृश्य किसी फिल्म में दोबारा नहीं आया। 'आवारा' सन् 51 की फिल्म है। मगर 55 से अधिक साल के बाद भी इसके गीते मोहते हैं और सदियों के गुमनाम अतीत की धुंधली याद जगाते हैं।
'आवारा', 'बरसात' और 'श्री चार सौ बीस' स्पष्ट होते हुए भी एक तरह से फेंटेसियां हैं, जहां आप यथार्थ की कड़ी भूमि पर होते हुए भी स्वप्नलोक के कोहरे में होते हैं। ऐसा लगता है, राज कपूर और भी बहुत कुछ कह रहे हैं, जिसे समझा जाना चाहिए। वे अपनी फिल्मों के आंशिक खलील जिब्रान थे।
'आवारा' में पहले स्वप्न-दृश्य नहीं था। उसे बाद में शूट किया गया। युवा राजकपूर एक तरफ बॉक्स ऑफिस की सफलता के लिए चाक्षुष सौंदर्य बढ़ाना चाहते थे और दूसरी तरफ मन की गहरी आस्था व्यक्त करना चाहते थे। इस दृश्य पर उन्होंने बेशुमार खर्च किया- यहां तक कि कृष्णा कपूर के गहने तक गिरवी रख दिए थे। 'आवारा' के स्वप्न-दृश्य को आज भी तकनीक दृष्टि से भव्य, स्तरीय और संपूर्ण माना जाता है। इस टक्कर का- सूक्ष्मताओं और संवेदनशीलता से भरा हुआ- सेल्युलॉइड काव्य अभी भी नजर में नहीं है।
'आवारा' में पूरा जोर व्यक्ति के सुधार पर है। अपराधी को सुधारने में नारी के प्रेम पर है। प्रच्छन्न संदेश यह भी है कि अपराधी अगर मुसीबत का मारा हुआ है, तो वह स्वयं भी दुर्भाव और कुकर्म के नरक से जल्दी बाहर आना चाहता है। 'आवारा' के इस गाने में जो आम सिने दर्शक को मात्र एक गाने से ज्यादा नहीं लगता, राजकपूर की पूरी विचारधारा कैद है।
गौर कीजिए, पहले नरगिस का हिस्सा आता है- 'तेरे बिना आग ये चांदनी।' मगर इस प्रेम के लिए अपने को नकारते हुए आवारा नायक कहता है- 'अभी नहीं। मुझे प्रेम के लायक बनने दो। 'ये नहीं है, ये नहीं है जिंदगी' कि मैं विकृतियों के नरक में जीता रहूं। मुझे अपनी आत्मा में उठने दो। मुझे प्रीत, फूल और बहार चाहिए।' गौर कीजिए, इसके बाद कोरस में 'ओम नमः शिवाय' आता है और फिर आती है, लता की सदाबहार मेलोडी- 'घर आया मेरा परदेसी', जिसका अर्थ यह है कि प्रेम ने आपराधिकता पर विजय पाई और खुद खुशी से नाच उठा!
याद रखिए मेंडोलिन और ढोलक का विशेष उपयोग करके मेलोडी के जन्मजात विश्वकर्मा शंकर-जयकिशन ने नरगिस के इस हिस्से में माधुर्य और आह्लाद की बहार ला दी है, जैसे जनम-जनम के बिछोह के बाद 'रीता का अपना राज' निर्मल इंसान होकर 'अपनी रीता' के दामन में लौट आया है और हर्ष से पागल प्यार ने उसे सभी तरफ से बांहों में भर लिया है। राज का कंसेप्ट, चित्रांकन और मेलोडी यहां विश्व स्तर के हैं। दरअसल दिल महान फिल्म बनाता है।
गीत शैलेन्द्र का लिखा हुआ है। राजकपूर इस स्वप्न-दृश्य में हमें नरक की विभीषिका/ पीड़ा/ प्रेत आवाजों/ डरावने चीत्कारों और आदिम भय से गुजारते हैं। यह दर्शाने के लिए कि इंसान की दुनिया में अगर संस्कृति, सभ्यता, मानसिक स्वास्थ्य, प्रेम, भाईचारा, परदुःखकातरता और व्यवस्था नहीं है, तो उसके भीतर और बाहर सिर्फ नरक है और इसमें उसे जलते रहना है। यह शिक्षण राज ने फिल्मों के माध्यम से किया और वह भी ज्यादातर कॉमेडी और 'एब्सर्डिज्म' के मार्फत! लीजिए गीत पढ़िए-
(पहले ड्रम, ढोलक और प्यानो वगैरह के द्वारा विराट प्रार्थना- कोरस का इफेक्ट, जिसमें लयबद्ध, कर्णप्रिय गुनगुनाहट। फिर लता का करुण आलाप, सदियों पार जलते पहाड़ों से आता हुआ, आदिम बेचैनियों को समेटे। शंकर- जयकिशन का ऑर्केस्ट्रा सजग, चुस्त ड्रीम- एटमॉस्फियर को उसकी विचित्रता और अलौकिकता में जाकर, पकड़ते हुए। फिर धीरे से लता की उठान- 'तेरे बिना आग ये चांदनी' जैसे अथक वेदना पाताल से ऊपर आ रही हो...)
लता : तेरे बिना आग ये चांदनी, तू आ जा, तू आ जा, तेरे बिना आग ये चांदनी तू, आ जा, तू आ जा। तेरे बिना/बेसुरी/बांसुरी/ ये मेरी जिंदगी दर्द की रागिनी, तू आऽऽऽ जा, तू आऽऽऽ जा! (थोड़ा संगीत, फिर आवाज डूबती हुई)। तू आऽऽऽ जा, तू आऽऽऽ जा, तू आऽऽऽ जा, तू आऽऽऽ जा!
(आगे भुतहा संगीत, फिर मन्ना डे का करुण आलाप, जैसे नरक की चीखों के शोर और हजारों नरकाग्नियों से उठता हुआ। इस अलाप से ऐसा अहसास होता है, जैसे कोई अनगिनत कुओं से बाहर आना चाहता है और उसकी आवाज पर नाटकीय शोरों के भूत हावी हो रहे हैं। यह कला की अतींद्रिय में फलांग है। राजकपूर और शंकर जयकिशन को अनेक सलाम!)
मन्नाडे : (विलाप के स्वर) ओऽऽऽ ये नहीं है, ये नहीं है, जिंदगी, जिंदगी, ये नहीं! जिंदगी! (भुतहे स्वर) जिंदगी की ये चिता में जिंदा जल रहा हूं हाय साँस के, ये आग के ये तीर चीरते हैं आर-पार... आर-पार (ओ मौत बेरहम न बांध मुझको अपनी बांह में) मुझको ये नर्क न चाहिए, मुझको फूल, मुझको गीत मुझको प्रीत चाहिए, मुझको चाहिए बहार... मुझको चाहिए बहार... मुझको चाहिए बहार.... कोरस : ओम नमः शिवाय।
(नर्क पश्चाताप, प्रार्थना, परमात्मा और फिर धरती पर आदि नारी का आदि पुरुष के लिए अटूट प्यार...! यही है राजकपूर का विकासक्रम, विकास कथा! अगले अंतरे में राज अनुपम मेलोडी का वासंती टुकड़ा साउंड ट्रैक पर उतार देते हैं। मीठा-सा कोरस। फिर)।
लता : घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अंखियन की! तू मेरे मन का मोती है, इन नैनन की ज्योति है याद है मेरे बचपन की/ घर आया मेरा परदेसी। (महिला कोरस : आऽऽऽ, आऽऽऽ, आऽऽऽ) अब दिल तोड़के मत जाना, रोती छोड़के मत जाना, कसम तुझे मेरे अंसुवन की/ घर आया मेरा परदेसी! (महिला कोरस : आऽऽऽ, आऽऽऽ। और क्रमशः फेड आउट)