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Written By WD

'प्रेम' के 'चंद' मोती हैं अब भी

''प्रेम'' के ''चंद'' मोती हैं अब भी -
- जितेंद्र वेद

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एक ऐसी शख्सियत जिसके लिए 'कर्मभूमि' कागज थी, तो 'रंगभूमि' कैनवास। इन कागजों के कैनवास पर युद्ध करते-करते न जाने कितनी 'निर्मला' उन्होंने रंग दीं। इस रंग भरने की कोशिश के दौरान उन्होंने कभी भी शब्दों का 'गबन' नहीं किया-जो भी लिखा बिना लाग-लपेट के।

सामाजिक वैषम्यताओं, आर्थिक मुश्किलों, दैहिक आवश्यकताओं को तार-तार करने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनके लिए शब्द दान 'गोदान' भी था और महाभोज भी। 1880 से लेकर 1936 यानी 56 साल की अवधि के दौरान उन्होंने साहित्य की यह 'सेवा' -विपन्नताओं,तकलीफों, वैषम्यताओं तथा देश, काल व समाज की अन्य मुश्किलों के 'सदन' में रहकर।

  असहनीय गरीबी के लम्हों को बिल्कुल ठंडे दिमाग से झेलने की क्षमता, चट्टानों से बिना आपा खोये निपटने की जिजीविषा हममें आदरभाव भर देती है।      
साहित्य समाज का दर्पण होता है और स्व का चित्रण भी। व्यक्ति जितना भोगता है, जितना सहन करता है, जिसका प्रत्यक्ष गवाह होता है वह गाहे-बगाहे अपनी कलम के माध्यम से पाठकों के सामने परोस देता है। इस थाली में परोसे गए भोज्य पदार्थ में साहित्यकार की संवेदना, अंतर्वेदना, मनोवेदना का वही अनुपात-समानुपात होता है, जो हम दैनिक जीवन में हम देखते हैं, भोगते हैं, निरपेक्ष भाव से ग्रहण कर लेते हैं। फिर किसी भी समाज में दुख का अनुपात सुख को हमेशा मात देता है तो साहित्य भी कैसे अछूता रह सकता है।

अमृतराय के इस 'कलम के सिपाही' में ये सब भावनाएँ कूट-कूट कर भरी हुई थी। ने अपनी संवेदनाएँ, होरी-धनिया, गोबर-झुनिया, अमरकांत, सूरदास आदि के माध्यम से व्यक्त की है। असहनीय गरीबी के लम्हों को बिल्कुल ठंडे दिमाग से झेलने की क्षमता, चट्टानों से बिना आपा खोये निपटने की जिजीविषा हममें आदरभाव भर देती है। दूसरी ओर मातादीन जैसे पात्र को समझने पर हमारे मन में उपेक्षा भाव ज्यादा होता है, घृणा भाव कम।

हर समाज अच्छे-बुरे का हेट्रोजीनियस (विषमांगी) मिश्रण होता है। बुरा कितना भी बुरा क्यों न हो - वह घृणित नहीं होता है। वह किसी भी समाज की आवश्यक बुराई की तरह होता है, इसलिए उसे वैसा ही स्वीकार करने की कला सुझाने का श्रेय मुंशी प्रेमचंद को जाता है। दरअसल प्रेमचंद के बारे में लिखते समय एक कहानी का नाम लिखो तो यकायक जेहन में दूसरा नाम आ जाता है।


दूसरा लिखो तो तीसरा.....। अर्थात सूची कहीं 'एक्जहास्ट' नहीं होती। हर समय नयापन, नवीनता और इससे भी ज्यादा अपनापन। शायद काईयांपन या चालाकी उनकी प्रवृत्ति में थी ही नहीं अत: रचना संसार में भी नहीं है।

हर रचना को ध्यान से पढ़ने पर लगता है कि अवचेतन मस्तिष्क पटल पर कुछ न कुछ घटित हो रहा है। शायद फिल्म युग की शुरुआत में ही प्रेमचंद ने टू-इन-वन का क्राफ्‍ट सीख लिया था। एक और चीज जो प्रेमचंद के बारे में जब-तब सुनी जाती है, विश्लेषित की जाती है कि वे कहानीकार पहले हैं कि उपन्यासकार।

कहानी लिखने की कला एकदिवसीय क्रिकेट की तरह है तो उपन्यास टेस्ट क्रिकेट की नाईं। दोनों को अपना-अपना आलोक है। एक तत्काल परिणाम देता है जो आम आदमी की आवश्यकता है। एक में आपमें धैर्य होना चाहिए 'सेशन टू सेशन' (चेप्टर-टू-चेप्टर) समायोजित करने की क्षमता। चूँकि, प्रेमचंद का व्यक्तित्व एक सज्जन व्यक्ति का था उनमें चालाकी कम थी। 'मेनिपुलेट' करने की क्षमता पर्याप्त नहीं थी। इसलिए उपन्यास जैसी विधा के लिए आवश्यक मैनिपुलेशन में थोड़े कमजोर सिद्ध हुए हैं।

यह शायद उनके व्यक्तित्व के कारण हुआ है न कि क्राफ्ट में कमी के कारण। वे कहानी कला के उस्ताद थे। 72 नहीं कई वर्षों तक वे कृतित्व के माध्यम से जीवित रहेंगे।

शिक्षक जैसे विपन्न प्राणी के रूप में : अधूरे कपड़ों में ठंड की परवाह किए बिना 'पूस की रात' में भी लिखा और वह भी अँग्रेजी दमन चक्र का 'कफन' बाँधकर धनपतराय से नवाबराय और नवाबराय से प्रेमचंद तक का सफर एक दासताँ है - एक उनका ही अफसाना, एक अफसाना निगार का।

मुंशी प्रेमचंद की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनकी रचनाएँ, रचनाएँ कम अनुभव ज्यादा हैं। छोटे-छोटे मंजरों से रचनाओं की मँजरी बनाना बहुत कम लोगों के लिए मुनासिब है। पर प्रेमचंद उर्फ नवाबराय अपने फन के नवाब थे। वे पहले उस अनुभव से स्वयं गुजरते थे और अब पाठकों को गुजारते हैं।

इस स्थिति में उनकी रचनाएँ अफाना कम तजुरबा ज्यादा हो जाती है। एक और हामिद का बाल मन और दूसरी ओर घीसू और माधव की परिपक्वता, बूढ़ी काकी में एक ही रचना बचपन और पचपन का एक साथ समावेश है। हो भी क्यों नहीं, बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन ही तो है।
उनकी रचना जब भी नायाब थी और अब भी नायाब है। कादम्बिनी के नवीनतम अंक में 'बड़े घर की बेटी' पढ़कर एक क्षण भी ऐसा नहीं लगा कि उनकी प्रासंगिकता में जरा सी भी कमी आई है।

वही ताजगी, वही तपिश, वही जुड़ाव जो तीस साल पहले था यूँ तो पूरे देश का शहरीकरण होने लगा है, पर दतौदा-खातेगाँव, कन्नौद की गलियों-चौबारों में घूमने पर लगता है कि वही परिवेश अब भी जीवित है। आज भी कुछ बदला नहीं है।

बदलने के नाम पर बदतर हुआ है इसके मायने नहीं है कि उनकी रचनाएँ कालातीत नहीं हुई है। उनकी रचनाओं की कोई 'एक्सपायरी डेट' नहीं है। इस मायने में प्रेमचंद की रचनाएँ एलोपैथी के बजाय आयुर्वेद के पास है। ये सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों से ज्यादा प्रभावित नहीं होती है और हमेशा प्रासंगिक रहती है।

दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता है कि उनकी रचनाओं को पढ़कर यह पता लगाना मुश्किल है कि वे किस आयु वर्ग को ध्यान में रखकर लिखी गई है। ईदगाह, नमक का दरोगा, पूस की रात, बूढ़ी काकी, या पंच परमेश्वर बड़ों को जितना मोहती है उतनी ही बच्चों को उल्लासित करती है।

'ईदगाह' का हामिद बाल मनोविज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो बड़ों-बड़ों को आकर्षित करता है। पंच परमेश्वर में जुम्मन चौधरी, अलगू साहू की दोस्ती बिल्कुल बच्चों की कट्‍टी-बुच्ची जैसी लगती है। बड़े घर की बेटी में छोटे भाई का मनोविज्ञान भावज का मन बड़े-छोटे सभी के लिए आकर्षण का विषय साहित्य रचना, दरअसल एक फन है, एक कारीगरी है एक कच्ची मिट्‍टी के लौंदे को दीपक या मटके में तब्दील करने की ख्वाहिश है। इस बात में कोई दो मत नहीं है कि मुंशीजी अपने फन के उस्ताद थे, अपनी कारीगरी में माहिर थे। पर इससे भी बड़ी बात यह है कि उनकी कारीगरी कहीं दिखती नहीं है।

बिल्कुल उस बारीक तुरपाई करने वाले दर्जी की तरह जिसको देखकर यह पता लगाना मुश्किल है कि कपड़े को मोड़कर जोड़ा गया है या कपड़ा ही मुड़ा हुआ तैयार किया गया है। गाँधीयुग के सादा जीवन उच्च विचार वाले गाँधीवादी लेखक की रचनाओं में भी उनका सादापन झलकता है।

उनकी रचनाओं में विलेन किस्म के किरदार ढूँढने के लए चाय-चलनी का प्रयोग करना पड़ेगा तब कहीं दो-चार खराब पात्र मिल जाएँगे। वो भी दातादीन-मातादीन की तरह ज्यादा से ज्यादा साहूकार, परमेश्वर सिर्फ धन है जिनका कर्म अर्थोपार्जन है।

ऐसे तो हर काल हर समय में होते हैं, जिनके बिना साहित्य की अवधारणा ही असंभव होने लगती है और उन्हें आवश्यक बुराई भी माना जा सकता है। फिर उनकी रचनाएँ सिर्फ उत्तर भारत की न होकर पूरे मानव समाज को ध्यान में रखकर रचित है।

कई लोग कहते हैं कि टैगोर ने ज्यादा लिखा, उनमें ज्यादा विविधता थी। बात सच है - पर उसके लिए प्रेमचंद नहीं परवरदिगार जिम्मेदार है। भगवान ने उनको सिर्फ 56 बसंत बख्शे तो टैगोर को 80 (1861-1941)। बिल्कुल ब्रेडमैन-बॉर्डर की तरह यदि प्रेमचंद ने ज्यादा वर्ष बैटिंग की होती तो हो सकता था कि ज्यादा रन (ज्यादा साहित्य) बनाने में कामयाब हो जाते।