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Written By ND

नहीं रहे मराठी रंगमंच के 'कोतवाल'

विजय तेंडुलकर को श्रद्धांजलि

नहीं रहे मराठी रंगमंच के ''कोतवाल'' -
अनुराग तागड़

मराठी रंगमंच की स्वर्णिम परंपरा के 'कोतवाल' विजय तेंडुलकर जैसे लेखक जिंदगी को सचाई की स्याही में डुबोकर लिखते थे। उनकी सोच अलहदा थी...उनके विचारों का प्रवाह ही ऐसा था मानो वे हरदम सच पर सवार होना चाहते थे और नाटकों के माध्यम से अपने दर्शकों को झकझोर कर बताना चाहते थे कि अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ और उसमें सचाई के लिए ढेर सारी जगह रखो।

ND
6 जनवरी 1928 को जन्मे विजय तेंडुलकर ने नाटकों के लेखन के अलावा फिल्मों व टेलीविजन के लिए भी अपनी कलम चलाई। वे राजनीति की खूब समझ रखते थे और सामाजिक समस्याओं पर बंधनमुक्त होकर लिखना जानते थे। मराठी रंगमंच के सही मायने में वे कोतवाल ही थे, जिन्होंने यह सिखाया कि नाटक अगर समाज की समस्याओं का मंचन सही तरीके से करेगा तो वह दर्शकों को ज्यादा पसंद आएगा।

मात्र 6 वर्ष की उम्र में लेखन आरंभ किया : विजय तेंडुलकर के पिता धोंडोपंत प्रकाशक थे। इस कारण घर पर लेखकों का आना-जाना रहता था। इस माहौल ने ही विजय तेंडुलकर को साहित्य और लेखन की ओर आकृष्ट किया। मात्र छह वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली कहानी लिखी और मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने नाटक लिखा, उसका निर्देशन किया और उसमें अभिनय भी किया।

मराठी थियेटर का नया दौर : पचास व साठ के दशक को मराठी थियेटर का नया दौर कहा जा सकता है। विजय तेंडुलकर मुंबई की चाल में रहा करते थे। चाल में रहने के कारण मध्यमवर्गीय मराठी परिवारों के बारे में जानने का उन्हें अच्छा मौका मिला, जिसका वर्णन उनके नाटकों में भी मिला। विजय ने नाटकों को नए मोड़ दिए और मराठी रंगमंच के कलाकार जैसे श्रीराम लागू, मोहन अगाशे और सुलभा देशपांडे ने इन नाटकों को बड़ी लगन से दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।

फिल्मों में भी अलग ही छाप : विजय तेंडुलकर ने लगभग 11 हिन्दी व 8 मराठी फिल्मों का लेखन किया। हिन्दी फिल्मों में निशांत, आक्रोश, अर्धसत्य, मंथन प्रमुख हैं, जबकि मराठी में उंबरठा, सिंहासन, सामना प्रमुख हैं। उंबरठा फिल्म को जब्बार पटेल ने निर्देशित किया था तथा इसमें स्मिता पाटिल व गिरीश कर्नाड ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।

लेखन जारी रहा : नब्बे के दशक के बाद भी विजय तेंडुलकर का लिखना जारी रहा। उन्होंने स्वयंसिद्धा नामक एक टेलीविजन धारावाहिक के लिए भी लेखन किया, जिसमें प्रमुख भूमिका उनकी लड़की प्रिया तेंडुलकर ने ही निभाई थी। नाटक सफर के अलावा उन्होंने मराठी में दो कादंबिनी भी लिखी हैं। बच्चों के लिए भी उन्होंने 16 नाटक लिखे हैं। वर्ष 2004 में न्यूयॉर्क में विजय तेंडुलकर फेस्टिवल का भी आयोजन किया गया था।

विजय तेंडुलकर के पुत्र व पत्नी का निधन वर्ष 2001 में हो गया था और पुत्री प्रिया तेंडुलकर का निधन 2002 में हुआ था, इस कारण वे काफी अकेले पड़ गए थे। वे चाहते तो अपनी कलम को 'धनपरी' बना सकते थे, प्रसिद्धि को भुना सकते थे पर वे बने ही अलग मिट्टी के थे।

बिल्कुल एक रिबेलियन की तरह और शायद यही कारण रहा हो कि वे समाज की रूढ़ियों को तोड़ने की बात भी अपने नाटकों में कर जाते थे। इसी कलम ने 'अर्धसत्य' जैसी रचना कर डाली थी। घासीराम कोतवाल जैसे नाटकों के माध्यम से वे राजनीति पर चोट करते हैं और मराठी में लिखे उनके कई नाटक सच का आईना दर्शकों को दिखा देते हैं।

घासीराम कोतवाल : तेंडुलकर के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उन्होंने 'घासीराम कोतवाल' की मंचीय प्रस्तुति दी। यह एक म्यूजिकल ड्रामा था जो कि 18वीं सदी के पूना शहर पर आधारित था। इस नाटक के मंचन से तेंडुलकर के शोध की गहराई का पता चलता है। नाटक में भीड़ के मनोविज्ञान को काफी सुंदर तरीके से चित्रित किया गया है।

इस नाटक की सफलता के कारण उन्हें जवाहरलाल नेहरू फैलोशिप भी मिली थी। नाटक के 6 हजार से भी ज्यादा शो हुए हैं जो कि अपने आप में एक रेकॉर्ड भी है। इसके अलावा कन्यादान, पंछी ऐसे आते हैं, गिधाडे, जात नहीं पूछो साधु की, माझी बहिण, मित्राची गोष्ट आदि नाटक भी काफी प्रसिद्ध रहे।

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