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खलील जिब्रान : रहस्यमयी शख्सियत

खलील जिब्रान : रहस्यमयी शख्सियत -
डॉ. रश्मिकांत व्यास
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संसार के श्रेष्ठ चिंतक महाकवि के रूप में विश्व के हर कोने में ख्याति प्राप्त करने वाले, देश-विदेश भ्रमण करने वाले खलील जिब्रान अरबी, अँग्रेजी, फारसी के ज्ञाता, दार्शनिक और चित्रकार भी थे। उन्हें अपने चिंतन के कारण समकालीन पादरियों और अधिकारी वर्ग का कोपभाजन होने से जाति से बहिष्कृत करके देश निकाला तक दे दिया गया था।

खलील जिब्रान 6 जनवरी 1883 को लेबनान के 'बथरी' नगर में एक संपन्न परिवार में पैदा हुए। 12 वर्ष की आयु में ही माता-पिता के साथ बेल्जियम, फ्रांस, अमेरिका आदि देशों में भ्रमण करते हुए 1912 में अमेरिका के न्यूयॉर्क में स्थायी रूप से रहने लगे थे।

उनमें अद्भुत कल्पना शक्ति थी। वे अपने विचारों के कारण कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के समकक्ष ही स्थापित होते थे। उनकी रचनाएँ 22 से अधिक भाषाओं में देश-विदेश में तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, उर्दू में अनुवादित हो चुकी हैं। इनमें उर्दू तथा मराठी में सबसे अधिक अनुवाद प्राप्त होते हैं।

उनके चित्रों की प्रदर्शनी भी कई देशों में लगाई गई, जिसकी सभी ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की। वे ईसा के अनुयायी होकर भी पादरियों और अंधविश्वास के कट्टर विरोधी रहे।

  संसार के श्रेष्ठ चिंतक महाकवि के रूप में विश्व के हर कोने में ख्याति प्राप्त करने वाले, देश-विदेश भ्रमण करने वाले खलील जिब्रान अरबी, अँग्रेजी, फारसी के ज्ञाता, दार्शनिक और चित्रकार भी थे...      
देश से निष्कासन के बाद भी अपनी देशभक्ति के कारण अपने देश हेतु सतत लिखते रहे। 48 वर्ष की आयु में कार दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल होकर 10 अप्रैल 1931 को उनका न्यूयॉर्क में ही देहांत हो गया। उनके निधन के बाद हजारों लोग उनके अंतिम दर्शनों को आते रहे। बाद में उन्हें उनकी जन्मभूमि के गिरजाघर में दफनाया गया।

वे अपने विचार जो उच्च कोटि के सुभाषित या कहावत रूप में होते थे, उन्हें कागज के टुकड़ों, थिएटर के कार्यक्रम के कागजों, सिगरेट की डिब्बियों के गत्तों तथा फटे हुए लिफाफों पर लिखकर रख देते थे। उनकी सेक्रेटरी बारबरा यंग को उन्हें इकट्ठी कर प्रकाशित करवाने का श्रेय जाता है।
उन्हें हर बात या कुछ कहने के पूर्व एक या दो वाक्य सूत्र रूप में सूक्ति कहने की आदत थी। वे कहते थे जिन विचारों को मैंने सूक्तियों में बंद किया है, मुझे अपने कार्यों से उनको स्वतंत्र करना है।

  उन्हें हर बात या कुछ कहने के पूर्व एक या दो वाक्य सूत्र रूप में सूक्ति कहने की आदत थी। वे कहते थे जिन विचारों को मैंने सूक्तियों में बंद किया है, मुझे अपने कार्यों से उनको स्वतंत्र करना है...      
1926 में उनकी पुस्तक जिसे वे कहावतों की पुस्तिका कहते थे, प्रकाशित हुई थी। इन कहावतों में गहराई और विशालता जैसी बातों पर गंभीर चिंतन मौजूद है। उनकी कुछ श्रेष्ठतम सूक्तियाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं-

* सत्य को जानना चाहिए पर उसको कहना कभी-कभी चाहिए।

* दानशीलता यह नहीं है कि तुम मुझे वह वस्तु दे दो, जिसकी मुझे आवश्यकता तुमसे अधिक है, बल्कि यह है कि तुम मुझे वह वस्तु दो, जिसकी आवश्यकता तुम्हें मुझसे अधिक है।

* कुछ सुखों की इच्छा ही मेरे दुःखों का अंश है।

* यदि तुम अपने अंदर कुछ लिखने की प्रेरणा का अनुभव करो तो तुम्हारे भीतर ये बातें होनी चाहिए- 1. ज्ञान कला का जादू, 2. शब्दों के संगीत का ज्ञान और 3. श्रोताओं को मोह लेने का जादू।

* यदि तुम्हारे हाथ रुपए से भरे हुए हैं तो फिर वे परमात्मा की वंदना के लिए कैसे उठ सकते हैं।

* बहुत-सी स्त्रियाँ पुरुषों के मन को मोह लेती हैं, परंतु बिरली ही स्त्रियाँ हैं जो अपने वश में रख सकती हैं।

* जो पुरुष स्त्रियों के छोटे-छोटे अपराधों को क्षमा नहीं करते, वे उनके महान गुणों का सुख नहीं भोग सकते।

* मित्रता सदा एक मधुर उत्तरदायित्व है, न कि स्वार्थपूर्ति का अवसर।

* मंदिर के द्वार पर हम सभी भिखारी ही हैं।

* यदि अतिथि नहीं होते तो सब घर कब्र बन जाते।

* यदि तुम्हारे हृदय में ईर्ष्या, घृणा का ज्वालामुखी धधक रहा है, तो तुम अपने हाथों में फूलों के खिलने की आशा कैसे कर सकते हो?

* यथार्थ में अच्छा वही है जो उन सब लोगों से मिलकर रहता है जो बुरे समझे जाते हैं।

* इससे बड़ा और क्या अपराध हो सकता है कि दूसरों के अपराधों को जानते रहें।

* यथार्थ महापुरुष वह आदमी है जो न दूसरे को अपने अधीन रखता है और न स्वयं दूसरों के अधीन होता है।

* अतिशयोक्ति एक ऐसी यथार्थता है जो अपने आपे से बाहर हो गई है।

* दानशीलता यह है कि अपनी सामर्थ्य से अधिक दो और स्वाभिमान यह है कि अपनी आवश्यकता से कम लो।

* संसार में केवल दो तत्व हैं- एक सौंदर्य और दूसरा सत्य। सौंदर्य प्रेम करने वालों के हृदय में है और सत्य किसान की भुजाओं में।

* इच्छा आधा जीवन है और उदासीनता आधी मौत।

* निःसंदेह नमक में एक विलक्षण पवित्रता है, इसीलिए वह हमारे आँसुओं में भी है और समुद्र में भी।

* यदि तुम जाति, देश और व्यक्तिगत पक्षपातों से जरा ऊँचे उठ जाओ तो निःसंदेह तुम देवता के समान बन जाओगे।