सब कुछ अपरिचय से घिरा है
कवि अशोक वाजपेयी का गद्यांश और प्रेरित कलाकृति
यह पहली सुबह है इस ईसाई संत के प्राचीन कमरे में अकेले। दिन धीरे-धीरे चढ़ रहा है। थोड़ी देर पहले इस कमरे से लगे छोटे से बगीचे में एक रंगीन सी चिड़िया थी। पर प्रायः कोई आवाज नहीं है, कभी-कभी चीजों की अपनी आवाज जैसा कुछ सुनाई देता है। जैसे चीजें बीच बीच में अलसाकर अँगड़ाई सी ले रही हैं। यों तो होटलों के कमरे भी एकदम अकेले होते हैं पर यहाँ का अकेलापन कुछ अलग है, उसमें कुछ रहस्य, कुछ भय सा है। कोई नहीं आता पर लगता रहता है कि कहीं से कोई प्राचीन पुरुष निकल आएगा। कल रात जब यहाँ पहुँचे तो एकदम सुनसान था, रोशन सुनसान। फिर भी जैसे हम प्राचीनता के किसी पवित्र से अवसाद में कोई फूहड़ सा खलल डाल रहे हों। यहाँ सब कुछ शांत है मानो अनुग्रह की अटूट अनंत असमाप्य प्रतीक्षा है। चीजें आसपास सब कुछ अपरिचय से घिरा है। हम सब कुछ धीरे-धीरे ही जानते हैं भले एक अधीर समय में रहते हैं और फँसे हैं। चीजें भी हमें धीरे-धीरे ही जानना शुरू करती है। जैसे सामने की एक खिड़की और उसके पार एक पुरानी पत्थर की ऊँची दीवार या इधर बगल की आयताकार खिड़की से दीखता दीवार का उतना ही बड़ा हिस्सा, इनमें से किसी ने अभी तक मुझे देखा नहीं है।