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सिस्टर निवेदिता : भारत की माटी के लिए समर्पित

सिस्टर निवेदिता : भारत की माटी के लिए समर्पित - Sister-Nivedita
डॉ.भारती जोशी 
 
स्वामी विवेकानंदजी को याद करने पर सिस्टर निवेदिता का याद आना स्वाभाविक है। वे न केवल स्वामीजी की शिष्या थीं, वरन् पूरे भारतवासियों की स्नेहमयी बहन थीं। सिस्टर निवेदिता का असली नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबुल था। 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड में जन्मी मार्गरेट नोबुल का भारतप्रेम अवर्णनीय है। बचपन से ही ईसा मसीह के उपदेश रोम-रोम में बसे थे किंतु वे धर्म को ईश्वरीय प्रकाश और शाश्वत सत्य की खोज के अर्थों में लेती थीं। 
 
इसीलिए ईसाई मत के सिद्धांतों के लिए दिल में कुछ संदेह पैदा हो गए थे। कुछ बड़ी हुईं तो बुद्ध साहित्य पढ़ने पर बेहद प्रभावित हुईं। इनकी प्रका‍श और शाश्वत सत्य की खोज निरंतर जारी थी। इसी बीच 1893 में जब स्वामीजी विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने शिकागो पहुँचे तो उन्होंने दुनिया भर के लोगों में हिंदू धर्म को आधारभूत धर्म के रूप में सि‍द्ध किया, तो वहाँ उपस्थित सभी लोग नतमस्तक हो गए हिंदुत्व और 'हिंदू योगी' के प्रति। सम्मेलन के पश्चात स्वामीजी ने अमेरिका में अनेक स्थानों पर भाषण दिए।
 
इसी श्रंखला में उन्होंने एक दिन लेडी ईजाबेल के घर भी व्याख्यान दिया। यहीं मार्गरेट एलिजाबेथ नोबुल ने इस हिंदू योगी को पहली बार सुना और वे इनके व्याख्यान से बेहद प्रभावित हुईं।
 
उन्होंने स्वामीजी से अपनी अनेक शंकाओं का समाधान पाया। उन्होंने मन ही मन स्वामीजी को अपना गुरु मान लिया। एक बार स्वामीजी ने अपने देश की स्त्रियों के बारे में बताया और कहा था कि वे अशिक्षित हैं और मैं चाहता हूँ‍ कि उन्हें शिक्षा प्रदान की जाए। उन्होंने मार्गरेट नोबुल से जो स्वयं एक अच्छी शिक्षिका थीं, से कहा कि 'अपने देश की महिलाओं के बारे में मेरे दिमाग में एक योजना है, मैं समझता हूँ ‍कि तुम मेरी सहायता करोगी। मार्गरेट नोबुल तो इस वाक्य से धन्य हो गईं। 
 
उन्होंने दृढ़संकल्प किया कि वे भारत जाएँगी और वहाँ की जनता की तन, मन, धन से नि:स्वार्थ सेवा करेंगी। अनेक मंगल कामनाएँ लिए वे जनवरी 1898 में भारत आ गईं। यहाँ आकर कलकत्ता के बेलूर आश्रम में रहने लगीं
 
उन्होंने दृढ़संकल्प किया कि वे भारत जाएँगी और वहाँ की जनता की तन, मन, धन से नि:स्वार्थ सेवा करेंगी। अनेक मंगल कामनाएँ लिए वे जनवरी 1898 में भारत आ गईं। यहाँ आकर कलकत्ता के बेलूर आश्रम में रहने लगीं और रोजाना स्वामीजी से भारतवासियों की जीवनशैली, उनकी संस्कृति, परंपरा आदि के बारे में ध्यानपूर्वक सुनतीं ता‍कि अपने कार्य की शुरुआत कैसे करें, इस बारे में योजना बना सकें। 
 
उन्होंने पहली बार कलकत्ता की सभा में अपने विचार 'भारत के आध्यात्मिक विचारों का इंग्लैंड पर प्रभाव' विषय पर व्यक्त किए। वहाँ उपस्थित श्रोताओं के मन पर ये विचार इस कदर छा गए कि मार्गरेट नोबुल को उन्होंने सच्चे दिल से भारत का हितैषी स्वीकार किया।
 
25 मार्च 1898 का दिन मार्गरेट नोबुल के लिए विशेष दिवस था क्योंकि इसी दिन उनका नया नामकरण संस्कार हुआ। उन्हें उनके गुरु ने 'निवेदिता' नाम दिया, जिसका आशय है 'समर्पित' और सचमुच वे में अपनी उद्‍देश्य प्राप्ति के लिए समर्पित हो गईं।
 
कलकत्ता में जब वे बाग बाजार में रहती थीं तब उन्होंने देखा कि यहाँ की स्त्रियाँ संकोची, शालीन, विनम्र, लज्जाशील और स्वाभिमानी हैं। उन्हें इन स्त्रियों ने प्रभावित किया किंतु सिस्टर निवेदिता चाहती थीं कि ये बहनें अपने आपको रूढ़ियों में ही न जकड़ा रहने दें। इनमें अनगिनत प्रतिभाएँ हैं, जिन्हें ये समाज के डर से दिल में दफन हो जाने देती हैं।
 
ऐसे में शिक्षा का उजाला होना अति आवश्यक है। उनका विचार था कि यदि भारत में नारी जागरण का बिगुल बज उठे तो नि:संदेह भारत अपने अतीत की छवि को धूमिल नहीं पड़ने देगा। निवेदिता ने स्त्रियों में जागरूकता लाने के लिए भारतीय परंपरानुसार बसंत पंचमी को सरस्वती पूजन का आयोजन कर कुछ महिलाओं को एकत्र किया और इस तरह शुभारंभ हो गया एक छोटे से विद्यालय का।
 
प्रारंभ में लोगों को विश्वास में लेना कुछ मुश्किल था, किंतु निवेदिता के स्नेह में वह जादू था कि लोग अपनी कन्याओं को निवेदिता के पास पूरे विश्वास के साथ शिक्षित होने के लिए भेजने लगे।
 
निवेदिता लड़कियों को न केवल पढ़ाई-लिखाई ‍बल्कि सिलाई, कढ़ाई, चित्रकला आदि में भी दक्ष बनाने की शिक्षा देती थीं। अपने विद्यालय के प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित थीं, इसीलिए विद्यालय का खर्च चलाने के लिए ही किताबें लिखतीं और अपनी मित्र सारा बुल से भी मदद लेतीं। सिस्टर निवेदिता ने जिस छोटे से विद्यालय की नींव रखी थी आज यह विद्यालय 'रामकृष्ण शारदा मिशन भगिनी निवेदिता बालिका विद्यालय' के नाम से जाना जाता है। 
 
सिस्टर निवेदिता सिर्फ स्त्रियों के बारे में ही नहीं अपितु पूरे भारत के बारे में सोच-विचार करती थीं, क्योंकि स्वयं को भी इसी देश की निवासी मानती थीं। इसीलिए उनकी लेखनी से दिल के जो उद्‍गार व्यक्त हुए वे इस प्रकार हैं- मुझे अपने हल की नोक से भारत की इस भूमि पर लकीरें खींचने दो, गहरी, गहरी, इतनी गहरी कि वे वस्तुओं के अंत:स्थल तक पहुँच सकें।
 
यह चाहे कोई अज्ञात कंठ ध्वनि हो, जो अपने सूक्ष्म रन्ध्रों द्वारा मूक प्रेरणाओं को विसर्जित कर रही हों, अथवा किसी साकार व्यक्तित्व का स्वरूप हो जो बड़े-बड़े नगरों में प्रचंड झंझा के समान स्वतंत्र विचरण करता हो, किसी भी रूप में हो, इसकी मुझे चिंता नहीं। पर मेरी अपनी बलिष्ठ दक्षिण-बाहु का ईश्वर मुझे वरदान दे कि मैं अपने इस उच्छल उत्साह को परिचय की निरर्थक उच्छृंखलताओं में व्यर्थ न बहा दूँ। इससे तो यही अच्छा होगा कि मैं अपने शरीर का ही अंत कर दूँ। जहाँ तक मेरा संबंध है, भारत वर्ष ही आदि बिंदु है और भारत वर्ष ही अंतिम लक्ष्य। यह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि वह परिचय का भी योगक्षेत्र वहन करे।'
 
इन एक-एक शब्दों से झलकता है कि उन्होंने एक सच्ची शिष्या की तरह अपने नाम को पूर्ण 'समर्पण' से सिद्ध कर दिया। हम सबकी स्नेहमयी बहन यह विलक्षण महिला 13 अक्टूबर 1911 को भारतवासियों में आशा का संचार कर चिरनि‍द्रा में लीन हो गई।