राजकुमार कुम्भज
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) ने हरिद्वार से कानपुर के मध्य स्थित एक हजार सत्तर उद्योगों को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए पूछा है कि गंगा नदी को प्रदूषित करने की वजह बनने से क्यों नहीं उन्हें बंद कर दिया जाना चाहिए ?
एन.जी.टी. ने चमड़ा, लुगदी, कपड़ा-कारखानों और बूचड़खानों जैसे उद्योगों को गंदा पानी बिल्कुल नहीं डालने, ऑनलाइन निगरानी प्रणालियां स्थापित करने और इन इकाइयों की वर्तमान स्थिति पर उनका रूखसाफ करने का निर्देष देते हुए यह भी पूछा है कि उनके क्रियाकलापों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए उन्होंने अब तक क्या कदम उठाए हैं ?
प्रदूषण नियंत्रण संबंधी मानकों की परवाह नहीं करने में गैरकानूनी तरीकों से चलाई जाने वाली औद्योगिक इकाइयां सबसे आगे रहती हैं। एन.जी.टी. ने हरिद्वार से कानपुर के मध्य कार्यरत जिन एक हजार सत्तर औद्योगिक इकाइयों की सूची वेबसाइट पर स्पष्ट करने का आदेश दिया है, उनमें से अधिकांश बिना पंजीकरण के ही चल रही हैं। आश्चर्य अन्यथा नहीं है,कि एक ऐसे समय में जबकि प्रदूषण को जीवन के लिए बतौर एक गंभीर समस्या निरंतर रेखांकित किया जा रहा है, तब नदियों की स्वच्छता का मुद्दा अभी भी गौण ही बना हुआ है।
हैरानी की बात यह भी है कि नदियों में बढ़ते जा रहे प्रदूषण के संदर्भ में अदालतों की ओर से हमारी सरकारों को कई-कई बार फटकारा जा चुका है। जन-स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल-प्रभावों के आंकड़े भी समय-समय पर जाहिर किए जाते रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण, केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी नदियों में प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को कड़े दिशा-निर्देश जारी कर चुके हैं, फिर भी हलातों में जरा भी सकारात्मकता दिखाई नहीं देती है, तो क्यों ? प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों पर नजर रखने वाले सरकारी संस्थानों की निष्क्रियता देखते ही बनती है। साफ-साफ देखा जा सकता है कि ऐसे उद्योग संचालकों और सरकारी संस्थानों के निगहबानों के बीच सांठ-गांठ का ही यह नतीजा है कि हमारी नदियां निरंतर प्रदूषित हो रही हैं। ऊंची पहुंच वाले लोग प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अमले को न सिर्फ भ्रमित करते हैं, बल्कि साम-दाम-दंड-भेद से प्रभावित करने की कोशिशें भी करते हैं।
एन.जी.टी. प्रमुख न्यायमूर्ति स्वतंत्रकुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों से पूछा है कि क्या ऐसा कोई एक भी उद्योग है जो आपके अनुसार प्रदूषण कर रहा हो ? पिछले दो बरस में हमने आप लोगों से ऐसा कभी कुछ नहीं सुना, फिर भी प्रदूषण है। आप कहते हैं कि आपकी इकाइयों से प्रदूषण नहीं होता है, लेकिन क्या आपने कभी अपनी औद्योगिक इकाई से निकलने वाले प्रदूषण-प्रवाह का विश्लेषण करवाया है ? राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने इन इकाइयों से यह भी पूछा है कि अगर प्रदूषण है, तो हम आपकी इन औद्योगिक इकाइयों को क्यों नहीं बंद कर दें ? अधिकरण द्वारा आगे यह भी पूछा गया है कि हमें बताइए कि हमें ऐसे उद्योगों को भी क्यों नहीं बंद कर देना चाहिए, जिनका संचालन प्रदूषण बोर्ड की स्वीकृति बगैर हो रहा है ? यही नहीं, हरित अधिकरण ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से भी जवाब तलब किया है।
अधिकरण पीठ की ओर से पर्यावरण मंत्रालय को निर्देशित किया गया है कि वह प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों की पहचान गंभीरता से करें और बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैला रही औद्योगिक इकाइयों का खुलासा भी करें। अधिकरण ने उत्तरप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भी आदेश दिया है कि गंभीर रूप से प्रदूषण फैला रही सभी एक हजार सत्तर औद्योगिक इकाइयों की सूची अपनी वेबसाइट पर डालें।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण के समक्ष सुनवाई के दौरान बूचड़खानों की ओर से पेष हुए अधिवक्ता ने जब अपनी सफाई में कुछ कहने की कोशिश की तो स्थिति और भी हास्यास्पद हो गई। बचाव में कहा गया कि हमारी ओर से नदी में कोई भी प्रदूषण नहीं डाला जाता है, बल्कि सिंचाई के लिए तो बूचड़खानों द्वारा इस्तेमाल किया हुआ पानी प्रयोग में लिया जाता है। इस कुतर्क का लगभग भंडाफोड़ करते हुए अधिकरण ने अपनी नाराजगी जाहिर की। अधिकरण ने कहा कि क्या होता है, जब आपके पानी से सिंचाई होती है ? क्या आपको कुछ पता भी है कि आप किस तरह का प्रदूषण भूमिगत जल में छोड़ रहे हैं ? आप तो सीधेतौर पर ही पानी को प्रदूषित कर रहे हैं। इस तरह राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने गंगा को प्रदूषित करने वाली औद्योगिक इकाइयों को एक बार फिर सीख देते हुए नियंत्रित करने की पुरजोर कोशश की है।
क्या हम जानते नहीं हैं कि गंगा सफाई योजना को शुरू हुए लगभग तीन दषक बीत चुके हैं और अब तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने स्वतंत्रतौर पर उमा भारती को इस काम में लगा रखा है, यह भी कि गंगा सफाई योजना पर अब तक अरबों रुपया खर्च भी किया जा चुका है। इस योजना के अंतर्गत तय तो यही हुआ था कि औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले तमाम कचरे और प्रदूषित पानी को नदियों में मिलने से न सिर्फ रोका जाएगा, बल्कि प्रदूषित पानी को नदियों में मिलने से पहले संशोधित करने की सक्षम इकाइयां भी स्थापित की जाएंगी। इसका मकसद औद्योगिक इकाइयों पर नजर रखने के साथ ही साथ, उनसे प्रदूषण-मानकों का अनिवार्यतः पालन करवाना भी था, किन्तु राजनीतिक इच्छा-शक्ति के प्रदूषण की वजह से नदियों का प्रदूषित होते रहना अभी भी जारी है। सिर्फ गंगा ही नहीं, देश की अन्य अनेकों नदियां भी अभी तक पूर्ववत प्रदूषित बनी हुई हैं और नदियों की जल-शुद्धता का लक्ष्य सिर्फ कागजी-घुड़दौड़ बना हुआ है।
यह पहली बार नहीं है कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों पर शिकंजा कसने की कोशिश की है। इससे पहले भी प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को राष्ट्रीय हरित अधिकरण सहित केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को भी फटकार लगाते हुए पर्याप्त शोधन-यंत्र लगाने के निर्देश जारी हो चुके हैं। हरिद्वार से कानपुर के मध्य ऐसे छोटे-बड़े हजारों कल-कारखानें हैं, जिनमें कागज की लुगदी, चमड़े की वस्तुएं, कपड़े-लोहे का सामान आदि का प्रसंस्करण किया जाता है।
इन तमाम औद्योगिक इकाइयों से भारी मात्रा में हानिकारक रसायन मिला दूषित जल निकलता है, जिसे बगैर किसी व्यवस्थित तर्कपूर्ण शोधन के सीधे गंगा में बहा दिया जाता है। बूचड़खानों से निकलने वाला तमाम कचरा और गंदा पानी भी सीधे-सीधे गंगा को समर्पित कर दिया जाता है। अदालतों तक की फटकारों के बाद भी अगर हालात यथावत बने हुए हैं, तो मामला वाकई गंभीर है; क्योंकि नियमों, निर्देशों और निर्णयों का सख्ती से पालन करने वाले सक्षम अधिकारियों में पर्याप्त गंभीरता और पर्याप्त जिम्मेदारी का अभाव है।
अन्यथा नहीं है कि नदी-जल-प्रदूषण की समस्या को, जीवन के प्रति निरंतर एक गंभीर समस्या ही देखा जाता रहा है। कहने को भी सुंदरतापूर्वक यह वाक्य भी दोहराया जाता रहा है कि जल ही जीवन है, मगर अफसोस की बात है कि जिम्मेदार लोग निष्क्रिय और खामोशी ओढ़कर बैठे हैं और प्रदूषण का निरंतर विस्तार होता जा रहा है। नियम-निर्देश तो यह भी तय किए गए थे कि जिन छोटी औद्योगिक इकाइयों के पास जल-मल-शोधन की क्षमता और जगह का अभाव है, वे कोई एक समूह बनाकर भी ऐसा प्रबंध कर सकती हैं। छोटी-छोटी इकाइयां आपस में मिल-जुलकर भी प्रदूषण की इस समस्या का समाधान निकाल सकती हैं।
यह कोई बहुत मुश्किल भी नहीं है, लेकिन राजनीतिक-इच्छा-शक्ति की कमी के कारण भी इस दिशा में कोई खास ठोस प्रगति व पहल नहीं देखी गई है। अब अगर गंगा-प्रदूषण विरूद्ध राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने एक बार फिर प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को नियंत्रित करने की पहल की है, तो उसका पर्याप्त अमल भी जरूरी हो जाता है। अब संबंधित सक्षम अधिकारियों को चाहिए कि वे एन.जी.टी. के इस ताजा आदेश पर सख्त कार्रवाई करके नतीजे भी दिखाएं, ताकि गंगा के शुद्धिकरण की तरफ कुछ आगे बढ़ने की राह खुल सके।